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रविवार, 12 जुलाई 2020

कार्य शाला अनुवाद

कार्य शाला
अनुवाद / कवित्त
◆Still I Rise◆ ◆BY MAYA ANGELOU◆
अनुवाद- नम्रता श्रीवास्तव
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कड़वे छली मृषा से तुम्हारे इतिहास में
तुम्हारी लेखनी से मैं न्यूनतम दिखूँगी धूल-धूसरित भी कर सकते हो मुझे किंतु भरे गुबार सी फिर-फिर उठूँगी स्त्रीपन मेरा विचलित तुम्हे करता है क्यों क्यों घने तिमिर के हो आवरण में तुम तेल-कूप महिषी की, है छाव मेरी चाल में स्थित जो मेरे कक्ष में, इस भ्रम में तुम जिस तरह है चंद्र, और उगता सूर्य है ज्वार-भाटे के निश्चित विधान सी चढ़ूँगी जैसे ऊँची आशा की किरण सी लहरा उठें ऐसे ही बारम्बार मैं फिर-फिर उठूँगी तुमने क्या चाहा था मुझे टूटा हुआ देखना नत रहे मस्तक व नीची मेरी निगाहें भूमि गिरे ज्यों लोर सम कंधे भी ढह जाएँ हृदय विदारक मेरी चीखें और आहें अस्मिता मेरी तुम्हें क्या करती है निरादृत इतनी डरावनी क्यों लगती है तुमको आंगन के अपने स्वर्ण-खदानों की रानी सी मैं कैसे ना बिहसूं, क्यों खलती है तुमको अपने शब्दों से मुझे मार सकते हो गोली तुम्हारे तीक्ष्ण नेत्र-धार से भी मैं कटूँगी अपने विद्वेष को मेरा हंता बन जाने दो तूफान की तरह मैं फिर-फिर उठूँगी क्या मेरी काम्यता से आजिज़ आते हो तुम या इससे अचंभित हुए जाते हो तुम हीरा मिला हो यूँ चमक कर झूमती हूँ मैं उरु-संधि मध्य जिसे ढँका पाते हो तुम निर्लज्ज इतिहास की कुटिया के बाहर उदित हूँ मैं दुख में डूबी अतीत की जड़ों के ऊपर उदित हूँ मैं एक कृष्ण जलधि हूँ मैं, आन्दोलित व विस्तृत हूँ ज्वार में पली-बढ़ी, सहिष्णु और परिष्कृत आतंक और भयभरी रात्रि पीछे छोड़कर उदित हूँ मैं उज्जवल अनोखे अरुणोदय के द्वार पर उदित हूँ मैं पुरखों की देन है उपहार जो मैं लायी हूँ किंकर की आशा व स्वप्न बन कर आई हूँ उदित हूँ मैं उदित हूँ मैं उदित हूँ मैं ◆◆◆ कड़वे छली मृषा से इतिहास में तुम्हारे मैं न्यूनतम दिखूँगी झलकूँगी लेखनी से तुम धूल-धूसरित भी चाहो जो कर अगर दो फिर फिर गुबार जैसी मिटकर मैं जी उठूँगी स्त्रीत्व मेरा विचलित तुमको क्यों कर रहा है क्यों आवरण सघन तम में जा छिपे हो बोलो
है मेरी चाल में ही छवि राजलक्ष्मी की जो मेरे कक्ष में है, यह भ्रम हुआ क्यों तुमको जिस तरह चाँद ऊगे या ऊगता है सूरज निश्चित विधान सी मैं हर ज्वा रमें चढ़ूँगी आशा-किरण सी ऊँची फिर मैं लहर उठूँगी
मैं बार-बार फिर-फिर गिर-गिर पुन:उठूँगी चाहा था तुमने देखो टूटा हुआ मुझे पर अवनत रहा है मस्तक नीची निगाह मेरी ज्यों लोर गिरे भू पर त्यों ढहें मेरे कंधे दें भेद ह्रदय चीखें कर दग्ध मेरी आहें क्या कर रही निरादृत मम अस्मिता तुम्हें ही इतनी डरावनी क्यों यह लग रही है तुमको आँगन की स्वर्ण खानों की रानी साहिबा मैं क्यों खल रही हूँ तुमको, कैसे न कहो विहसूँ तुम मार दो भले ही तीखी कटाक्ष गोली
या तीक्ष्ण कटाक्षों से मैं मौन रह कटूँगी निज द्वेष को बनाओं तुम भले मेरा हन्ता तूफान की तरह मैं फिर-फिर सम्हल उठूँगी तुम आ रहे हो आजिज क्या मेरी काम्यता से या इससे हो अचंभित तुम खो रहे हो खुद को हीरा मिला मुझे हो यूँ चमक झूमती मैं उरु-संधि मध्य जिसको पाते ढँका रहे तुम इतिहास बेहया की कुटिया से उदित हूँ मैं
दुःखगरसर जड़ अतीती पर हुई उदित हूँ मैं हूँ जलधि कृष्ण विस्तृत मैं आत्म आन्दोलित हूँ ज्वार में पली मैं, सहिष्णु वा परिष्कृत आतंक भयभरी निशि को छोड़ हूँ उदित मैं
उज्जवल अरुण उदय के द्वार पर उदित मैं पुरखों की देन है वह उपहार जो मैं लायी
किंकिर की स्वप्न आशा बन हो गयी उदित मैं
हो गयी उदित मैं हो गयी उदित मैं हो गयी उदित मैं

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