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सोमवार, 17 दिसंबर 2018

एक हाइकू, एक गीत

एक हाइकु-
बहा पसीना 
चमक उठी देह 
जैसे नगीना।
*
गीत: 
दरिंदों से मनुजता को जूझना है 

सुर-असुर संघर्ष अब भी हो रहा है 
पा रहा संसार कुछ, कुछ खो रहा है
मज़हबी जुनून पागलपन बना है
ढँक गया है सूर्य, कोहरा भी घना है
आत्मघाती सवालों को बूझना है
.
नहीं अपना या पराया दर्द होता
कहीं भी हो, किसी को हो ह्रदय रोता
पोंछना है अश्रु लेकर नयी आशा
बोलना संघर्ष की मिल एक भाषा
नाव यह आतंक की अब डूबना है
.
आँख के तारे अधर की मुस्कुराहट
आये कुछ राक्षस मिटाने खिलखिलाहट
थाम लो गांडीव, पाञ्चजन्य फूंको
मिटें दहशतगर्द रह जाएँ बिखरकर
सिर्फ दृढ़ संकल्प से हल सूझना है
.
जिस तरह का देव हो, वैसी ही पूजा
दंड के अतिरिक्त पथ वरना न दूजा
खोदकर जड़, मठा उसमें डाल देना
तभी सूझेगा नयन कर रुदन सूजा
सघन तम के बाद सूरज ऊगना है
*

१६-१२-२०१४

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