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शनिवार, 22 दिसंबर 2018

समीक्षा- रामचंद्र प्रसाद कर्ण

कृति चर्चा:
शब्दांजलि : गीतिकाव्यमय भावांजलि 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण: शब्दांजलि, काव्य संग्रह, रामचंद्र प्रसाद 'कर्ण', प्रथम संस्करण २०१७, आई एस बी एन ९७८९३८ ७१४९२०५, आकार २१ से. x  १३.५ से., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १०८, मूल्य १३०/-, लोकोदय प्रकाशन लखनऊ, कवि संपर्क शासकीय महाविद्यालय के पीछे, पाली परियोजना, डाकघर बिरसिंहपुर पाली, जिला उमरिया ४८४५५१]
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"वाणी के सौंदर्य का, शब्द रूप है काव्य / मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य।।" -पद्मभूषण पद्मश्री नीरज ने कवि होने को सौभाग्य कहा है। माँ वीणापाणी के चरणों में 'शब्दाँजलि' शीर्षक काव्यांजलि लेकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं श्री रामचंद्र प्रसाद कर्ण अपने पुरुषार्थ से भाग्य को सौभाग्य में बदलकर नर्मदांचल के कवि दरबार में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। रामचंद्र की पहचान संघर्षशीलता के साथ मर्यादा पालन के लिए है। पुण्य कर्मों का फल होता है। कर्ण अपने अचूक शरसंधान तथा दानशीलता के लिए कालजयी ख्याति प्राप्त है। शब्दांजलिकार के नाम में जिन तीन शब्दों का समावेश है, कृति में उनसे जुड़े तत्वों की छवि अन्तर्निहित है। अद्यावधि संघर्ष के पश्चात् आयु के ६७ वे वर्ष में प्रथम कृति का प्रकाशन कराना उनके पौरुष का प्रमाण है। कृति के आरम्भ में श्री गणेश, भवानी-शंकर, गुरु, सीता-राम, भारत माँ, तथा हिंदी का वंदन कर पारंपरिक मर्यादा का पालन कवि ने किया है। 

कविकुल गुरु गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस के श्लोकों से वंदनारंभ के साथ-साथ कवि तुलसी द्वारा जनकनंदिनी द्वारा जगजननी की वंदना "जय-जय गिरिवर राज किसोरी, जय महेश मुख चंद चकोरी" को  अंतर्मन में स्मरण कर अपने गृहस्थ जीवन में प्रसादवद प्राप्त जीवन संगिनी  शीला जी के शील को नमन करते हुए लिखता है- 'कमलवदन मुख चंद चकोरी / मृग नयनी शुभ-गात किशोरी।' कवि कर्ण प्रणय शर से बिद्ध हो प्रणय गीत, अभिसार, मेरा प्यार, तुम कितनी सुंदर लगती हो, चाँद और कमलिनी, नख-शिख, लट घुँघराली है, मुस्कुराती रही रात भर, मधुवन, मधुर मिलन आदि रचना-शरों से अचूक लक्ष्य वेध कर द्वैत से अद्वैत की राह पर पग धरते हैं। अपने नाम में प्रयुक्त तीनों शब्दों से न्याय करता कवि मिलन और विरह दोनों स्थितियों में रस-रास विहारी को स्मरण करना नहीं भूलता। 'वृंदावन की कुञ्ज गली अब / हरि बिन कछु न सोहात' लिखता महाकवि सूरदास और भ्रमर गीत से श्रोता-पाठक का तादात्म्य स्थापित कराता है। गगन के पार जाना चाहता हूँ, बसंत, मन-मयूरी तथा पनघट  में राधा-कृष्ण से तादात्म्य स्थापित करता कवि-लीलाविहारी नंदनंदन तथा लीलेश्वरी राधिका जी का सतत स्मरण करता है 'नंद के नंद पर सब बलिहारी / मति भयी 'कर्ण की भोरी / निरखत छवियाँ छवि मोहन की, संग वृषभान किशोरी'।  

कवि कर्ण की रचनाओं का द्वितीय सर्ग सामाजिक-राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण है। राष्ट्र वंदना, उद्बोधन, भारत वर्णन, नमन देश के वीरों को, वंदे मातरम, शत-शत प्रणाम, आवाहन, कारगिल से भारतीय सैनिकों का उद्घोष, विभिन्नता में एकता, शांति सन्देश, नील गगन लहराए तिरंगा, सद्भावना के फूल, दीप ऐसा जलाएँ, अंतिम प्रणाम,  घर वापस आ जाओ तुम, सीमा के प्रहरी आदि रचनाओं में राष्ट्रीयता का ज्वार उमड़ रहा है। ींरचनाओं में वीर और करुण रास का उद्वेग है। 

जन-जन का सहयोग चाहिए, देश से भ्रष्टाचार मिटायें, श्रमिक, मानवता के दर्पण को देखो,  संकट में हर पल नारी है, देश बहकर बनेगा कौन, अम्बर में आग लगा दी है, काँप उठे हैं धरा गगन, आओ मिलकर दीप जलाएँ,  कोसी का कहर, बिहार में बाढ़ का तांडव,  वृक्ष का रुदन, किसानों की दुर्दशा, आतंकवाद का प्रवेश, कांधार विमान अपहरण काण्ड,  जनतंत्र की रानी दिल्ली, संसद संवाद, सामाजिक दुर्दशा, आज के नेता, जनता के रखवाले   जैसी कविताओं में राष्ट्र के सम्मुख खतरों से सचेत करते हुए कवि ने राजनैतिक-सामाजिक परिदृश्य में व्याप्त विसंगतियों से उत्पन्न हो रहे खतरों से सचेत करने के साथ जनगण को कर्तव्य बोध भी कराया है। 

नयी दिशा की ओर चलो, शौर्य गाथा, स्वच्छता अभियान, स्वच्छता का अश्वमेध साक्षी हैं की कवी चुनातियों और विसंगतियों से निराश नहीं है। वह यथार्थ की आँख में आँख डालकर देश के जनगण पर पूर्ण विश्वास रखकर राष्ट्रनिर्माण के प्रति सजग, सतर्क और सचेत है। कवि कर्ण अपने सारस्वत अनुष्ठान में कथ्य को शिल्प पर वरीयता देते हैं। वे भावनाओं के कवि हैं। उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य और शब्द सम्पदा यथेष्ट है। वे प्रांजल हिंदी, दैनिक जीवन में प्रयुक्त हो रही भाषा तथा ग्राम्यांचलों में प्रयुक्त देशज भाषा तीनों का व्यवहार समान कुशलता के साथ कर पाते हैं। कहावतें जीवन का सत्य कहती हैं। 'घर की मुर्गी दाल बराबर', 'घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध' आदि का निहितार्थ यही है कि अत्यंत समीप की वस्तु की अपेक्षा दूर की वास्तु अधिक ध्यानाकर्षित करती है। कवि कर्ण कोयला खदान परियोजना में सेवा करते हुए जीवन गुजारा है।कोयला खदान परियोजनाएं अनेक समस्याओं से ग्रस्त हैं। वनों-पहाड़ों का क्षरण, अंधाधुंध खुदाई, श्रमिकों की सुरक्षा और आजीविका के संकट, पर्यावरण प्रदूषण, दुर्घटनाएँ आदि अनेक बार राष्ट्रीय चिंता का विषय बने हैं किंतु एक भी रचना में इन्हें स्थान नहीं मिला है। कवि की चिंता उन क्षेत्रों के प्रति अधिक है जहाँ वह कभी नहीं गया। 

कृति का आवरण आकर्षक है। अलंकारों, बिंबों, प्रतीकों और कहीं-कहीं मिथकों का प्रयोग पठनीयता में वृद्धि करता है। कुछ त्रुटियाँ खीर में कंकर की तरह हैं। 'गंधर्व' के स्थान पर 'गंर्धव', 'द्वंद' के स्थान पर 'दवंदव', खड़ी बोली की पंक्तियों में देशज क्रिया रूप, 'लघु सूर्य सा बिंदी सजाया' में लिंग दोष आदि से बचा जा सकता था। चन्द्रमा के दाग की तरह इन त्रुटियों की और ध्यान न दें तो कवि कर्ण की कविताएँ पठनीय, माननीय, विचारणीय और स्मरणीय भी हैं। इन रचनाओं से प्रेरित होकर किशोर और तरुण ही नहीं युवा और प्रौढ़ भी अपने कर्तव्य की अनुभूति कर, दायित्व निर्वहन के पथ पर पग बढ़ा सकते हैं। कवि और कविता युग साक्षी और युग निर्माता कहे गए हैं। शब्दांजलि की रचनाएँ इन दोनों भूमिकाओं में देखी जा सकती हैं। कवि की चेतना उनसे और अधिक परिपक्व कृतियों की प्राप्ति के प्रति आश्वस्ति भाव जगाती है। शब्दांजलि और शब्दांजलिकार कवि कर्ण की लोकप्रियता में अभिवृद्धि  हेतु मंगलकामनाएँ हैं।
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com
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