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मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

समीक्षा

पुस्तक चर्चा-
'सच कहूँ तो' नवगीतों की अनूठी भाव भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[पुस्तक विवरण- सच कहूँ तो, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२ , चलभाष ९८३९८ २५०६२]
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नवगीत की सृजन यात्रा को इस दशक में वैविध्य और विकास के सोपानों से सतत आगे ले जानेवाले महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में लखनऊ निवासी निर्मल शुक्ला जी की भूमिका महत्वपूर्ण है। नवगीतकार, नवगीत संपादक, नवगीत प्रकाशक और नव नवगीतकार प्रोत्साहक की चतुर्मुखी भूमिका को दिन-ब-दिन अधिकाधिक सामर्थ्य से मूर्त करते निर्मल जी अपनी मिसाल आप हैं। 'सच कहूँ तो' निर्मल जी के इकतीस जीवंत नवगीतों का बार-बार पठनीय ही नहीं संग्रहणीय, मननीय और विवेचनीय संग्रह भी है। निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं जीते हैं। ''इस संग्रह में कवि श्री निर्मल शुक्ल ने साक्षी भाव से अपनी अनुभूतियों के रंगपट्ट पर विविधावर्णी चित्र उकेरे हैं। संकलन का शीर्षक 'सच कहूँ तो' भी उसी साक्षी भाव को व्याख्यायित करता है। अधिकांश गीतों में सच कहने की यह भंगिमा सुधि पाठक को अपने परिवेश की दरस-परस करने को बाध्य करती है। वस्तुतः यह संग्रह फिलवक्त की विसंगतियों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वैयक्तिक राग-विरागों, संवेदनाओं से ये गीत रू-ब-रू नहीं हुए हैं। ... कहन एवं बिंबों की आकृति की दृष्टि से भी ये गीत अलग किसिम के हैं। '' नवगीतों के शिखर हस्ताक्षर कुमार रवींद्र जी ने विवेच्य कृति पर अभिमत में कृतिकार निर्मल शुक्ला जी को आस्तिक आस्था से प्रेरित कवि ठीक ही कहा है।
'सच कहूँ तो' के नवगीतों में दैनन्दिन जीवन के सहज उच्छ्वास से नि:सृत तथा मानवीय संवेदनाओं से सम्पृक्त मनोभावों की रागात्मक अन्विति महसूसी जा सकती है। इन गीतों में आम जन के सामाजिक परिवेश में होते व्याघातों के साथ करवट बदलती, असहजता के विरोध में स्वर गुँजाती परिवर्तनकामी वैचारिक चेतना यात्रा-तत्र अभिव्यक्त हुई है। संवेदन, चिंतन और अभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने 'सच कहूँ तो' को नवगीत-संकलनों में विशिष्ट और अन्यों से अलग स्थान का अधिकारी बनाया है। सामान्यत: रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों की सघनता और गहराई उसकी अंतश्चेतना में अन्तर्निहित तथा रचना में अभिव्यक्त होती रहती है। वैयक्तिक अनुभूति सार्वजनीन होकर रचना को जन सामान्य की आवाज़ बना देती है। तब कवि का कथ्य पाठक के मन की बात बन जाता है। निर्मल शुक्ल जी के गीतकार का वैशिष्ट्य यही है कि उनकी अभिव्यक्ति उनकी होकर भी सबकी प्रतीत होती है।
सच कहूँ तो
पढ़ चुके हैं
हम किताबों में लिखी
सारी इबारत
अब गुरु जी
शब्द अब तक
आपने जितने पढ़ाये
याद हैं सब
स्मृति में अब भी
तरोताज़ा
पृष्ठ के संवाद हैं अब
.
सच कहूँ तो
छोड़ आए
हम अँधेरों की बहुत
पीछे इमारत
अब गुरु जी
व्यक्ति और समाज के स्वर में जब आत्मविश्वास भर जाता है तो अँधेरों का पीछे छूटना ही उजाले की अगवानी को संकेतित करता है। नवगीत को नैराश्य, वैषम्य और दर्द का पर्याय बतानेवाले समीक्षकों को आशावादिता का यह स्वर पचे न पचे पाठक में नवचेतना का संचार करने में समर्थ है। राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान विश्ववाणी हिंदी को लेकर शासन-प्रशासन कितने भी उदासीन और कर्तव्यविमुख क्यों न हों निर्मल जी के लिये हिंदी राष्ट्रीयता का पर्याय है-
हिन्द की पहचान हिंदी
शब्दिता की शान हिंदी
सच कहूँ तो
कृत्य की परिकल्पना,
अभिव्यंजनाएँ
और उनके बीच भूषित
भाल का है गर्व हिंदी
रूप हिंदी, भूप हिंदी
हर नया प्रारूप हिंदी
सच कहूँ तो
धरणि से
आकाश तक अवधारणाएँ
और उनके बीच
संस्कृत
चेतना गन्धर्व हिंदी
'स्व' से 'सर्व' तक आनुभूतिक सृजन सेतु बनते-बनाते निर्मल जी के नवगीत 'व्हिसिल ब्लोअर' की भूमिका भी निभाते हैं। 'हो सके तो' शीर्षक गीत में भ्रूण-हत्या के विरुद्ध अपनी बात पूरी दमदारी से सामने आती है-
सच कहूँ तो
हर किसी के दर्द को
अपना समझना
हो सके तो
एक पल को मान लेना
हाथ में सीना तुम्हारा
दर्द से छलनी हुआ हो
साँस ले-न-ले दुबारा
सच कहूँ तो
उन क्षणों में, एक छोटी
चूक से
बचना-सम्हलना
हो सके तो
एक पल को, कोख की
हारी-अजन्मी चीख सुनना
और बदनीयत
हवा के
हर कदम पर आँख रखना
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़े जाने की संभावनाओं, नदी-तालाबों के विनष्ट होने की आशंकाओं को देखते हुए 'नदी से जन्मती हैं' शीर्षक नवगीत में रचनात्मकता का आव्हान है-
'नदी से जन्मती है
सच कहूँ तो
आज संस्कृतियाँ'
.
नदी के कंठ में कल-कल
उफनती धार में छल-छल
प्रकृति को
बाँटती सुषमा
लुटाती राग वेगों में.
.
अछूती अल्पना देकर
सजाती छरहरे जंगल
प्रवाहों में समाई
सच कहूँ तो
आज विकृतियाँ'.....
...तरंगों में बसी हैं
सच कहूँ तो
स्वस्ति आकृतियाँ...
....सिरा लें, आज चलकर
सच कहूँ तो
हर विसंगतियाँ '
निर्मल जी के नवगीत सत्यजित राय के चलचित्रों की तरह विसंगतियों और विडंबनाओं की प्रदर्शनी लगाकर आम जन की बेबसी की नीलामी नहीं करते अपितु प्रतिरोध का रचनात्मक स्वर गुँजाते हैं-
चिनगियों से आग
फिर जल कर रहेगी देख लेना
सच कहूँ तो
बादलों की, परत
फिर गल कर रहेगी देख लेना
सच कहूँ तो
तालियाँ तो आज
भी खुलकर बजेंगी देख लेना
सच कहूँ तो
निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं गुनगुनाते हैं। इसलिए उनके नवगीतों में अंत्यानुप्रास तुकबन्दी मात्र नहीं करते, दो बिम्बों, प्रतीकों या विचारों के बीच सेतु बनाते हैं।
उर्दू ग़ज़ल में लम्बे-लम्बे रदीफ़ रखने की चुनौती स्वीकारनेवाले गजलकारों की परंपरा घट चली है किन्तु निर्मल जी नवगीत के अंतरों में इसे अभिनव साज-सज्जा के साथ प्रयोग करने का कौशल रखते हैं। जल तरंगों के बीच बहते कमल पुष्प की तरह 'फिर नया क्या सिलसिला होगा, देख लेना सच कहूँ तो, अब गुरु जी, फिर नया क्या सिलसिला होगा, आना होगा आज कृष्ण को, यही समय है, धरें कहाँ तक धीर, महानगर है' आदि पंक्त्यांश सरसता में वृद्धि करते हैं।
'सच कहूँ तो' इस संग्रह का शीर्षक मात्र नहीं है अपितु 'तकियाकलाम' की तरह हर नवगीत की जुबान पर बैठा अभिव्यक्ति का वह अंश है तो कथ्य को अधिक ताकत से पाठक - श्रोता तक इस तरह पहुँचात है कि बारम्बार पुनरावृत्तियों के बाद भी बाह्य आवरण की तरह ओढ़ा हुआ नहीं अपितु अंतर्मन की तरह अभिन्न प्रतीत होता है। कहीं - कहीं तो समूचा नवगीत इस 'सच कहूँ के इर्द - गिर्द घूमता है। यह अभिनव शैल्पिक प्रयोग कृति की पठनीयता औेर नवगीतों की मननीयता में वृद्धि करता है।
हिंदी साहित्य के महाकवियों और आधुनिक कवियों के सन्दर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है -
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास
अब के कवि खद्योत सम, जहँ - तहँ करत प्रकास
निर्मल जी इस से सहमत होते हैं, किन्तु शर्मिंदा नहीं होते। वे जुगनू होने में भी अर्थवत्ता तलाश लेते हैं-
हम,
संवेदन के जुगनू हैं
हम से
तम भी थर्राता है
निर्मल जी नवगीत में नए रुझान के प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। पारिस्थितिक विडंबनाओं को उद्घाटित करते उनके नवगीतों में दीनता, विवशता या बेबसी नहीं जूझने और परिवर्तन करने का संकल्प पाठक को दिशा देता है-
तंत्र राज में
नाव कागजी भी
उतराती है
सच कह दूँ तो
रोज सभ्यता
आँख चुराती है...
...ऐसे में तो, जी करता है
सारी काया उलट-पुलट दें
दुत्कारें, इस अंधे युग को
मंत्र फूँक, सब पत्थर कर दें
किंतु वेदना संघर्षों की
सिर चढ़ जाती है
सच कह दूँ तो
यहाँ सभ्यता
चीख दबाती है
इन नवगीतों का वैशिष्ट्य दलित-पीड़ित को हौसला देने और दालान-मुक्ति से संघर्ष का संबल बनने का परोक्ष संदेश अंतर्निहित कर पाना है। यह संदेश कहीं भी प्रवचन, उपदेश या भाषण की तरह नहीं है, अपितु मीठी गोली में छिपी कड़वी दवाई की तरह सुग्राह्य रख पाना निर्मल जी का वैशिष्ट्य है-
इसी समय यदि
समय साधने का हम कोई
मंतर पढ़ लें
तो,
आगे अच्छे दिन होंगे
यही समय है
सच कह दूँ तो
फिर जीने के
और अनूठे अवसर होंगे
आशाओं से हुआ प्रफुल्लित
जगर-मगर घर में उजियारा
सुख का सागर
समय बाँचकर
समां गया आँगन में सारा
उत्सव होंगे, पर्व मनेगा
रंग-बिरंगे अंबर होंगे
सच कह दूँ तो
फिर जीने के वासंती
संवत्सर हौंगे
संवेदना को वेदना न बनाकर, वेदना के परिहार का हथियार बनाने का कौशल in नवगीतों को एक नया तेवर दे सका है। वैषम्य को ही सुधार और परिष्कार का आधार बनाते हुए ये नवगीत निर्माल्य की तरह ग्रहणीय हैं। महाप्राण निराला पर रचा गया नवगीत और उसमें निराला जी की कृतियों के नामों का समावेश निर्मल जी की असाधारण अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी है।
नवगीत की बढ़ती लोकप्रियता और तथाकथित प्रगतिशील कविता की लोक विमुखता ने नवगीत के रचनाक्षेत्र में अयाचित हस्तक्षेप और अतिक्रमणों को जन्म दिया है। साम्यवादी चिंतन से प्रभावित लोगों ने नवगीत की लोक संवेदना के मूल में नयी कविता की वैचारिकता होने की, उर्दू ग़ज़ल के पक्षधरों ने नवगीत की सहज-सरस कहन पर ग़ज़ल से आयातित होने की जुमलेबाजी करते हुए नवगीत में पैठ बनने का सफल प्रयास किया है। निर्मल जी ऐसी हास्यास्पद कोशिशों से अप्रभावित रहते हुए नवगीत में अन्तर्निहित पारंपरिक गीतज लयात्मकता, लोकगीतीय अपनत्व तथा गीति-शास्त्रीय छान्दस विरासत का उपयोग कर वैयक्तिक अनुभूतियों को वैचारिक प्रतिबद्धता, अन्तरंग अभिव्यक्ति और रचनात्मक लालित्य के साथ सम्मिश्रित कर सम्यक शब्दों, बिम्बों और प्रतीकों की ऐसी नवगीत-बगिया बनाते हैं जो रूप-रंग-गंध और आकार का सुरुचिसंपन्न स्वप्न लोक साकार कर देता है। पाठक और श्रोता इस गीत-बगिया में भाव कलियों पर गति-यति भ्रमर तितलियों को लय मधु का पान करते देख सम्मोहित सा रह जाता है। नवगीत लेखन में प्रविष्ट हो रहे नव हस्ताक्षरों के लिए निर्मल जी के नवगीत संकलन पाठ्य पुस्तकों की तरह हैं जिनसे न्यूनतम शब्दों में अधिकताम अर्थ अभिव्यक्त करने की कला सीखी जा सकती है।
इस कृति के नवगीतों में कहीं भी आरोपित क्लिष्टता नहीं है, पांडित्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं है। सरलता, सरसता और सार्गर्भितता की इस त्रिवेणी में बार-बार अवगाहन करने का मन होता ही इन नवगीतों और नवगीतकार की सफलता है।
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संपर्क- विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४

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