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बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

विशेष रचना: विजयादशमी ...? राकेश खंडेलवाल

विशेष गीत:










विजयादशमी ...?
राकेश खंडेलवाल 
  *
विजयादशमी विजय पर्व है विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
जाने कितने दिन बीते हैं एक प्रश्न को लेकर फ़िरते
कभी धूप में तपे , ओढ़ कर कभी गगन पर बादल घिरते
चट्टानों के दृढ़ सीने से लौटा है सवाल टकराकर
और बह गया बिन उत्तर के नदिया की धारा में तिरते
 
रहा कौंधता यही प्रश्न इक हर इक प्रहर और हर पल छिन
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
रामकथा ने बतलाया था हुआ अस्त इस दिन दशकन्धर
जिसकी खातिर अनायास ही बन्धन में था बँधा समन्दर
थी अस्त्य पर विजय सत्य की, तना न्याय का गर्वित सीना
एक तीर ने सोख लिया था आर्यावर्त पर टँका ववंडर
 
रातें हुईं चाँदनी तब से,मढ़े स्वर्ण से थे सारे दिन
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
पर वो तब की बातें थीं जो मन को तो बहला देती हैं
किन्तु उदर की यज्ञाग्नि में आहुति एक नहीं देती हैं
सपनों के खींचे चित्रों से टकराता है स्थिति का पत्थर
तो मुट्ठी में शेष रही बस जमना के तट की रेती है
 
आशवासन चुभते हैं मन में जैसे चुभती हो तीखी पिन
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
कल के स्वर्णिम आश्वासन में रँगते हुये बरस बीते हैं
मेहमां एक निशा का है तम गाते गाते दिन बीते हैं
इन्द्रधनुष के परे स्वर्ण मुद्राओं की बातों में उलझे
जितने कलश खोल; कर देखे पाये सब के सब रीते हैं
 
नवजीवन की आंखें खुलती हैं तो अब आशाओं के बिन
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
अपना बस इतिहास लगाये सीने से कब तक जीना है
कब तक उगी प्यास को आंखों का ही गंगाजल पीना है
जीवन की चौसर पर बाजी कब कब किसके साथ रहे एहै
मा फ़लेषु को छोड़ अधूरा ही श्लोक  गया बीना है
 
जिन खोजा तिन पाया सुनते आये, दिखता कहीं नहीं तिन
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
नहीं जीत का नहीं पराजय का ही पल हासिल हो पाया
इस यात्रा में कितना हमने खोया और भला क्या पाया
क्षणिक भ्रमों में अपनी जय का कर लेते उद्गोष भले ही
लेकिन सांझ ढले पर एकाकीपन महज साथ दे पाया
 
चुकता नहीं सांस की पूंजी का धड़कन दे देकर भी ॠन
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
विजयी कौन? अराजकता के दिन प्रतिदिन बढ़ते शासन में
विजयी कौन? एक वह जिसको सांसें मिलती हैं राशन में
जयश्री का अपहरण किये बैठे हैं सामन्तों के वंशज
विजयी कौन?विजय के होते नये नये नित अनुवादन में
 
सत्यमेव जयते का नारा, काट रहा अपने दिन गिन गिन
विजयादशमी विजय पर्व है, विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
विजयी वह को हिन्दी का सम्मेलन करता है विदेश में
विजयी वह जो लक्ष्मी ढूँढ़ा करता आयातित गणेश में
विजयी वह जो फ़टी गूदड़ी भी तन से उतार लेता है
विजयी वह जो दोनों हाथों से संचय करता प्रदेश में
 
विजयी नहीं सपेरा, बजवाती जो बीन वही इक नागिन
विजयादशमी विजय पर्व है विजयी कौन हुआ है लेकिन
 
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