मुक्तिका:
बेवफा से ...
संजीव 'सलिल'
*अधर की लाली रहा था, गाल का अब तिल हुआ।।
तोड़ता था बेरहम अब, टूटकर चुपचाप है।
हाय रे! आशिक 'सलिल', माशूक का क्यों दिल हुआ?
कद्रदां दुनिया थी जब तक नाश्ते की प्लेट था।
फेर लीं नजरों ने नजरें, टिप न दी, जब बिल हुआ।।
हँसे खिलखिल यही सपना साथ मिल देखा मगर-
ख्वाब था दिलकश, हुई ताबीर तो किलकिल हुआ।।
'सलिल' ने माना था भँवरों को कँवल का मीत पर-
संगदिल भँवरों के संग मंझधार भी साहिल हुआ।।
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17 टिप्पणियां:
AVINASH S BAGDE
अधर की लाली रहा था, गाल का अब तिल हुआ।। kya bat hai..wah.
योगराज प्रभाकर
लाजवाब मुक्तिता आदरणीय आचार्य जी, दिल से बधाई.
SANDEEP KUMAR PATEL
आदरणीय सलिल सर जी सादर प्रणाम
आपकी इस मुक्तिका ने मन मोह लिया
हर मुक्त द्विपंक्ति सुन्दर और सुगढ़ है
भाव शिल्प कथ्य सभी का सुन्दर समावेश किया है आपने
ह्रदय से बधाई इस अनुपम काव्य रचना हेतु
rajesh kumari
कद्रदां दुनिया थी जब तक नाश्ते की प्लेट था।
फेर लीं नजरों ने नजरें, टिप न दी, जब बिल हुआ।।---मतलबपरस्त अहसान फरामोशी का अच्छा नमूना पेश किया ---
बहुत ही अच्छी मुक्तिका मुझे तो ग़ज़ल लगी
वीनस केसरी
आदरणीय आचार्य जी
कितना हसीन इत्तेफाक है कि अभी परसों ही सौरभ जी से आपका हाल चाल मालूम कर रहा था और उनसे निवेदन कर रहा था कि आपको यहाँ सक्रिय होने के लिए आपसे संपर्क करें और आज आप प्रकट हो गये
कहीं उन्होंने आपसे संपर्क तो नहीं किया या सच में यह महज इत्तेफाक है
तोड़ता था बेरहम अब, टूटकर चुपचाप है।
हाय रे! आशिक 'सलिल', माशूक का क्यों दिल हुआ?
इस शेर की तो जो तारीफ़ करू कम है
बेहद घिसी पिटी बात को आपने जिस बारीकी से नयेपन का जामा पहनाया है वह लाजवाब है
सादर
Er. Ambarish Srivastava
आदरणीय आचार्य जी,
सादर प्रणाम !
आपके द्वारा रचित यह अनमोल मुक्तिका हमें बहुत भायी! इसे हम सभी के मध्य साझा करने के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें !सादर
Er. Ganesh Jee "Bagi"
आदरणीय आचार्य जी,
ओ बी ओ आपको और आपकी रचनाओं को सदैव मिस करता रहता है | आपकी यह रचना बहुत ही अच्छी लगी, उस्तादों वाली बात है इस अभिव्यक्ति में, बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें |
kusum sinha
ekavita
priy salil ji
aapki har rachna hi lajwab hoti hai mujhe bhi ashirwad dijiye
kusum
meri shubh kamnayen sada apke sath hain. jab jo sahayata cahie nissankoch kahen.
Rakesh Khandelwal ekavita
कद्रदां दुनिया थी जब तक नाश्ते की प्लेट था।
फेर लीं नजरों ने नजरें, टिप न दी, जब बिल हुआ।।
हाय री कमबखत किस्मत ,और वालेट खो गया
जेठ में भी कांपता तन, और मौसम चिल हुआ
सादर
उत्साहवर्धन हेतु आभार।
आपका आभार शत-शत। गुण ग्राहकता को नमन। समर्पित एक दोहा-
शोभा बगिया की कुसुम, बाँटे नित्य सुगंध।
कौन जानता 'सलिल' को, रहे सदा निर्गंध।।
salil.sanjiv@gmail.com
काश ऐसी हो प्रणाली, जब जरूरत आ पड़े।
दबा मोबाइल दिया फिर पल में बटुआ फिल हुआ।।
- mcdewedy@gmail.com
बहुत-बहुत रोचक सलिल जी। इन शेरों में बड़े नए-नए हास्य-व्यंग्य हैं। मुबारक।
महेश चन्द्र द्विवेदी
दर्द के मौसम में, ऐ मेरे खुदा! सद शुक्र है।
हास्य का पल एक तो हमको 'सलिल' हासिल हुआ।।
Mahipal Singh Tomar yahoogroups.com ekavita
रहे सदा ' निर्गंध ' मगर जीवन है पानी ,
कविता नूर 'सलिल' का कोई नहीं है सानी ।
पानी-पानी हो रही, पानी खोकर मौन।
पानीदार न एक भी, सारी संसद मौन।।
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