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गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

सामयिक चर्चा: राजभाषा हिंदी राकेश कुमार आर्य

:सामयिक चर्चा:
हिंदी पर केन्द्रीय कुछ विचार प्रस्तुत हैं जिनमें विविध बिंदु उठाये गए हैं। इन तथा इनके अतिरिक्त अन्य बिन्दुओं पर आपकी राय की प्रतीक्षा है।
: राजभाषा हिंदी :
राकेश कुमार आर्य
बी.ए.एल.एल.बी., दादरी, ऊ.प्र.निवासी। पेशे से अधिवक्ता, स्वतंत्र लेखन,बीस से अधिक पुस्तकों का लेखन। 'उगता भारत' साप्ताहिक अखबार के संपादक; 'मानवाधिकार दर्पण' पत्रिका के कार्यकारी संपादक व 'अखिल हिन्दू सभा वार्ता' के सह संपादक। अखिल भारत हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार।
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आज हम स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं। हमारी राज-भाषा हिंदी हैहिंदीभाषी विश्व में सबसे अधिक हैं। अंग्रेजी को ब्रिटेन के लगभग दो करोड़ लोग मातृभाषा के रूप में प्रयोग करते हैं, जबकि हिंदी को भारत में उत्तरप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे प्रांतों में लगभग साठ- पैंसठ करोड़ लोग अपनी मातृभाषा के रूप में प्रयोग करते हैं। हिंदी संपर्क भाषा के रूप में पूरे देश में तथा  देश से बाहर श्रीलंका, नेपाल, बीर्मा, भूटान, बांगलादेश, पाकिस्तान, मारीशस जैसे सुदूरस्थ देशों में भी बोली-समझी जाती है। विश्व की सर्वाधिक समृद्घ भाषा और बोली-समझी जानेवाली भाषा हिंदी है लेकिन इस हिंदी को भारत सरकार नौकरों की भाषा बताती हैं। दोष सरकार का नही अपितु अफसरों की गुलाम मानसिकता का है।

पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देश में हिंदी के स्थान हिंदुस्तानी नाम की एक नई भाषा (जिसमें उर्दू के अधिकांश तथा कुछ अन्य भाषाओँ के शब्द हों) को संपर्क भाषा के रूप में स्थापित करने का अनुचित प्रयास किया। वे भूल गये कि हर भाषा की तरह हिंदी का अलग व्याकरण है जबकि उर्दू या हिंदुस्तानी का कोई व्याकरण नही है। इसलिए शब्दों की उत्पत्ति को लेकर उर्दू या हिंदुस्तानी बगलें झांकती हैं, जबकि हिंदी अपने प्रत्येक शब्द की उत्पत्ति के विषय में अब तो सहज रूप से समझा सकती है, कि इसकी उत्पत्ति का आधार क्या है?

कांग्रेस प्रारंभ से ही राजनीतिक अधिकारों के साथ भाषा को भी सांम्प्रदायिक रूप से बांटने के पक्ष में रही।  काँग्रेस के 25वें हिंदी साहित्य सम्मेलन सभापति पद से राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जी ने कहा था-हिंदी में जितने फारसी और अरबी के शब्दों का समावेश हो सकेगा उतनी ही वह व्यापक और प्रौढ़ भाषा हो सकेगी। इंदौर सम्मेलन में गांधी जी और आगे बढ़ गये जब उन्होंने हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं को एक ही मान लिया था। इसीलिए भारत में साम्प्रदायिक और भाषाई आधार पर प्रांतों का विभाजन / निर्माण हुआ
प्रारंभ में कांग्रेसी कथित हिंदुस्तानी में उर्दू के तैतीस प्रतिशत शब्द डालना चाहते थे, मुसलमान पचास प्रतिशत उर्दू शब्द चाह रहे थे जबकि मुसलिम लीग के नेता जिन्ना इतने से भी संतुष्ट नही थे। कांग्रेसी  नेता मौलाना आजाद का कहना था कि उर्दू का ही दूसरा नाम हिंदुस्तानी है जिसमें कम से कम सत्तर प्रतिशत शब्द उर्दू के हैं। पंजाब के प्रधानमंत्री सरब सिकंदर हयात खान की मांग थी कि हिंदुस्तान की राजभाषा उर्दू ही हो सकती है, हिंदुस्तानी नहीं।

स्वतंत्रता के बाद हिंदी के बारे में हमारे देश की सरकारों का वही दृष्टिकोण रहा जो स्वतंत्रता पूर्व या स्वतंत्रता के एकदम बाद कांग्रेस का था। हिंदुस्तानी ने हिंदी को बहुत पीछे धकेल दिया। पूरे देश में अंग्रेजी और उर्दू मिश्रित भाषा का प्रचलन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में तेजी से बढ़ा है। फलतः नई पीढ़ी हिंदी बहुत कम जानती है। हमारी मानसिक दासता के कारण अंग्रेजी हमारी शिक्षा पद्घति का आधार है प्रारंभ से राजभाषा के रूप में हिंदी फलती-फूलती तो भाषाई दंगे कदापि नही होते। भाषा को राजनीतिज्ञों ने अपनी राजनीति चमकाने के हथियार के रूप में प्रयोग किया है। तिलक जैसे देशभक्त के प्रांत में भाषा के नाम पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राजठाकरे जो कर रहे हैं वह कतई उचित नही है।

स्वतंत्र भारत में पहले दिन से ही हिंदी राजनीतिज्ञों की उपेक्षावृत्ति व घृणापूर्ण अवहेलना का शिकार हुई। श्री नेहरू के समय में कामराज जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता के पास दिल्ली से हिंदी में पत्र जाने पर उन्होंने अपने पास एक अनुवाद रखने के स्थान पर इन पत्रों को कूड़े की टोकरी में फेंक दो’- ऐसा निर्देश देकर राजभाषा के प्रति अपने घृणास्पद विचारों का प्रदर्शन किया था।  भारत वर्ष में कुल जनसंख्या का पांच प्रतिशत से भी कम भाग अंग्रेजी समझता है। हमें गुजराती होकर मराठी से और मराठी होकर हिंदी से घृणा है लेकिन विदेशी भाषा अंग्रेजी से प्यार है। जो भाषा संपर्क भाषा भी नही हो सकती उसे हमने पटरानी बना लिया और जो भाषा पटरानी है उसे दासी बना दिया। आज विदेशी भाषा अंग्रेजी के कारण  देश की अधिकांश आर्थिक नीतियों और योजनाओं का लाभ देश का एक विशेष वर्ग उठा रहा  हैऔर उसे संरिद्ध होते देखकर  हिंदीभाषी व्यक्ति को लगता है जैसे हिंदी बोलकर वह अत्यंत छोटा काम कर रहा है। किसी साक्षात्कार में अभ्यर्थी ने यदि बेहिचक अंग्रेजी  में प्रश्नों के उत्तर दिये हैं तो उसके चयन की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसलिए देश में हिंदी के प्रति उपेक्षाभाव बढ़ता जा रहा है।

भारत एक कृषि प्रधान देश है किंतु किसानों के लिए टीवी और रेडियो पर अंग्रेजी में या अंग्रेजी प्रधान शब्दों से भरी वार्ताएं प्रसारित की जाती हैं जिन्हें किसान समझ नही पाता, इसलिए सुनना भी नही चाहता। इसी कारण टीवी और रेडियो पर आयोजित वार्ताओं का अपेक्षित परिणाम नही मिल पाता। देश को एकता के सूत्र में पिरोये रखने के लिए राजनीति नहीं भाषा नीति की आवश्यकता है। इस हेतु शिक्षा का संस्कारों पर आधारित होना नितांत आवश्यक है। संस्कारित और शिक्षित नागरिक तैयार करना जिस दिन हमारी शिक्षा नीति का उद्देश्य हो जाएगा उसी दिन इस देश से कितनी ही समस्याओं का समाधान हो जाएगा।

अभी तक के आंकड़े यही बताते हैं कि हमने मात्र शिक्षित नागरिक ही उत्पन्न किये हैं, संस्कारित नहीं। संस्कारित और देशभक्त नागरिकों का निर्माण देश की भाषा से ही हो सकता है। देश की अन्य प्रांतीय भाषाएं हिंदी की तरह ही संस्कृत से उद्भूत हैं। इन भाषाओं के नाम पर देश की राजभाषा की उपेक्षा करना राजनीति के मूल्यों से खिलवाड़ करना तथा विदेशी भाषा को अपनी पटरानी बनाकर रखना तो और भी घातक है।
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डॉ. मधुसूदन झवेरी :

हमारे नेतृत्व ने जिसको पटरानी बनाना चाहा था, वह तो पाकिस्तान चली गयी फिर भी उसकी आराधना करने में हमने हमारी संस्कृतनिष्ठ दक्षिण की भाषाओं की उपेक्षा कर के उन्हें प्रादेशिकतावादी आन्दोलनों के लिए अप्रत्यक्ष रीति से प्रोत्साहित किया| न इधर यश पाए न उधर!
सोचे - (1)हिंदी को अरबी-फारसी के समीप रखने से संस्कृत से उद्भूत शब्दावली से वंचित होना पड़ा है: कन्नड़ 70 से 80%, तेलुगु 70-80%, तमिल 40-50%.जागें, दक्षिणी भाषाओँ की संस्कृत उद्भूत शब्दावली को हिंदी में मिलायें।


(१) संस्कृत बहुल शब्दों वाली।
(२) कतिपय फारसी-अरेबिक (साहित्य में आ चुकने के कारण) स्वीकार करना पडेंगे।
(३) पराया शब्द लेने के पहले हमें अपनी देशी भाषाओं से शब्द लेना चाहिए।
(४) पारिभाषिक शब्दावली सारी बिना अपवाद संस्कृत ही होगी। किसी भी अन्य भाषा का कोई साहस नहीं, हो सकता।

(६) कुछ शब्द अपवादात्मक रूपमें ले ने पडे, तो उसका हिन्दीकरण होना चाहिए।

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प्रो. मोहनकान्त गौतम  
सत्य है कि  हिन्दी के नाम पर जितना काम हो रहा है वह खाना पूरी मात्र है. पिछले १० सालों से भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने कहा कि आगामी विश्व हिंदी सम्मलेन होलैंड में होगा. मैं योरोप और होलैंड की हिंदी समितियों का सभापति हूँ. हमने काफी पैसा, प्रचार और प्रसार में खर्च किया. भारत सरकार से दो बार यहाँ लोग भी आये पर कुछ नहीं हुआ.२००२ में डॉ. करण सिंह व डॉ. मनमोहन सिंह के चाहने के बाद भी विश्व हिंदी सम्मलेन सम्मलेन होलैंड के स्थान पर सूरीनाम में, फिर न्यूयार्क में किया गया. उन्हें भ्रमित किया गया कि सम्मलेन अमरीका में हो तो सयुंक्त राष्ट्र संघ में हिंदी अपने आप पहुँच जायेगी. कहाँ पहुंची? और शायद कभी नहीं पहुँच पायेगी क्योंकि हमारी कोई व्यवस्थित नीति नहीं है. अब नवें सम्मेल्लन के लिए हमारे प्रस्ताव को फिर अमान्य कर दक्षिण अफ्रीका में सम्मलेन किया जा रहा है। होलैंड में २,३०,००० भारत वंशी हैंसिवाय कोरे वायदों के भारत सरकार जो झूंठे वायदे करने में निपुण है कुछ नहीं किया.
भारतीय दूतावास ने फिर खेल खेला... यहाँ से कोई भी दक्षिण अफ्रीका नहीं गया। एक तरफ  इंडियन दिस्पोरा (Indian Diaspora ) की बातें कर लोग भारत सरकार के खर्चे पर विदेशों का चक्कर लगाते हैं पर जो विद्वान ठोस काम कर सकते हैं उन्हें घास भी नहीं डाली जाती। धिक्कार है, होलैंड में बसे भारतवंशियों ने निश्चय कर लिया है कि भारत सरकार से अब कभी कुछ भी नहीं मांगेंगे। किसी भारतीय दूतावास में हिंदी कोई बोलता नहीं, सिर्फ अंग्रेज़ी ही बोलते हैं जैसे वही उनकी मातृभाषा हो। भाषाओं की तुलना नहीं की जा सकती। सभी भाषाएँ अच्छी हैं। जितनी भाषाएँ सीखी जा सकें, अवश्य सीखें। भाषाओं में सदैव से मिलावट हुई है और होती रहेगी। भारत में मुश्किल से १% लोग मानक हिंदी बोलते हैं और यही लोग हिंदी पर बातें करते हैं। यह कहाँ तक उचित है आप ही बताएं। दूसरी भाषाओं के शब्द लेने से भाषा धनी होती है। आक्सफोर्ड शब्दकोश को देखें तो पता लगेगा कि अंग्रेज़ी दूसरी भाषाओं से धनी हुई है। हिंदी का विकास ऐसे ही नहीं हुआ। अपभ्रंश भाषा से निकली और मानकीकरण तो सन १९०० के आस पास हुआ। यदि हमें हिंदी को आगे लाना है तो जिन शब्दों को हिन्दी ने अपना लिया है या बोले जाते हैं उन्हें हिन्दी का ही माना जाये। हमें संकुचित नहीं बनना है। मेरे जैसे अनेक भारतवंशियों ने अपना जीवन हिन्दी के लिये अर्पित कर दिया है पर भारत सरकार हमारी बात नहीं सुनती। 

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मनोज रक्षित 
तमिलनाडु में हिन्दी लोकप्रिय?
प्रश्न यह नहीं कि क्या तमिलनाडु में हिन्दी लोकप्रिय है या नहीं? प्रश्न यह होना चाहिए कि क्या किसी हिन्दी भाषी प्रदेश में तमिल (या कोई अन्य प्रादेशिक भाषा) लोकप्रिय है?
ऐसा क्यों कि हिन्दीभाषी देना तो कुछ चाहते नहीं, केवल लेना चाहते है? क्या मुसलमानों की संगत में इतने लंबे समय तक रहने का प्रभाव है यह? मुसलमान इतने स्वार्थी होते हैं कि उन्हें सब कुछ चाहिए ही होता है, देना कुछ भी नहीं चाहते। जिस प्रकार मुसलमान मानकर चलते हैं कि हिन्दू मंदिर तोड़ना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है पर बाबरी खण्डहर जिसमें पचास सालों से कभी नमाज़ अदा नहीं की गई थी, को तोड़ने का अधिकार किसी को नहीं था, उसी प्रकार हिन्दीभाषी यह मान कर क्यों चलते हैं कि यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार है कि अन्य भाषा-भाषी हिन्दी पढ़ेंसमझें पर वे खुद किसी अन्य भाषा को न तो पढ़ेंगे, जानेंगें? क्या इस अधिकारभाव का कारण यह है कि एक जमाने में बहुसंख्यक उत्तर प्रदेश की भाषा हिंदी थी? वह प्रदेश जो अब टूट-फूट कर टुकड़े-टुकड़े हो गया, पर आदत नहीं गई? या फिर इसलिए कि संविधान के अनुसार केन्द्रीय सरकार के पत्र व्यवहार मात्र की दो भाषाओं में से हिन्दी एक है। जिस संविधान की दुहाई देकर वे हिन्दी के पक्ष में बोलते हैं, उसी संविधान के अनुसार जो दूसरी भाषा हिन्दी के समकक्ष है उसे यह अधिकार नहीं? हिन्दी भाषा को लेकर कि उन्हें अधिकार है दूसरों पर हिन्दी थोपने का पर किसी अन्य की भाषा को वही सम्मान देना उनके शान के खिलाफ़ है- ऐसा क्यों?

अंग्रेजों ने भारत आने पर भारतीयों को अपने से हर विषय में बहुत आगे पाकर तथा उनके लिए अपने-आप को ऊपर उठाना संभव न होने पर, अधिकार का प्रयोग कर भारतीयों पर अंग्रेज़ी थोपी, उनके मनो-मस्तिष्क पर अपना अधिकार जमाकर, उन्हें अपने आप से निकृष्ट बना दिया। उसी प्रकार उनके जाने के बाद हिन्दीभाषी प्रदेशों ने देखा कि वे सबसे अधिक पिछड़े प्रदेशों में से हैं, तथा अपने आपको अन्य प्रदेशों के समकक्ष बनाना उनके बस की बात नहीं, अंग्रेजों जैसी सत्ता भी उनके पास नहीं, तब उन्होंने अंग्रेज़ों की तरह छल का प्रयोग कर यह मिथ्या सारे देश में फैलायी कि हिन्दी राजभाषा है और छल-बल का प्रयोग कर हिन्दी अन्य राज्यों पर जबरन थोपने की चेष्टा की। यदि देवनागरी का उच्चारण केवल 10 वर्ष में ही सीखा जा सकता है तो फिर अनेकों हिन्दभाषी (जिनकी मातृभाषा हिन्दी है तथा जिन्होंने आजीवन हिन्दी में ही शिक्षा ग्रहण की है) "श" की जगह "स" उच्चारण करते हैं? ये हिन्दी भाषी देवनागरी जैसे phonetically scientific लिपि की अर्थी निकाल देते हैं। क्या अधिकार है इन्हें हिन्दी के पक्ष में बोलने का?

संस्कृत के साथ अपने हिन्दी के करीबी संबंधों का बखान सभी हिन्दीभाषी करते हैं किन्तु यह बात भूल कर भी नहीं करते कि साहित्य, व्याकरण, सशक्त भाषा की दृष्टि से संस्कृत के साथ हिन्दी की कोई तुलना ही नहीं हो सकती। अशक्त हिंदी के स्थान पर सशक्त संस्कृत को राजभाषा बनाने की बात वे कभी नहीं करते जबकि  संस्कृत राजभाषा के सर्वथा योग्य है। हिन्दी न तो संस्कृत के साथ सबसे अधिक सामीप्य रखने वाली भाषा है, न ही संस्कृत के बाडी सबसे सशक्त भाषा है।

हिन्दीभाषी शिकायत करते हैं कि चेन्नई या दक्षिण में कोइ उनसे हिन्दी में बात नहीं करता, सभी अग्रेज़ी बोलते हैं जो संवैधानिक राजभाषा का यह अपमान है। वे भूल जाते हैं कि हिन्दी तथा अंग्रेज़ी को संविधान ने एक समान स्तर एवं प्रत्येक प्रदेश को स्वतंत्रता दी है कि वे हिन्दी अथवा अंग्रेज़ी में किसी एक को चुनने में समर्थ हैं। देवनागरी के साथ हिन्दी का नाम जोड़नेवाले देवनागरी की गरिमा बढ़ानेवाले मराठी, नेपाली जैसी भाषाओं को क्यों भूल जाते हैं?? क्या स्वार्थ ही इसका मुख्य कारण है
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