सामयिक कविता :
कालचक्र
महेंद्र शर्मा.
*
टूट रही हैं मर्यादाएं, खंडित होते पात्र खड़े हैं,
फिर अतीत के
अभिशापों में,कालपुरुष के पांव गड़े हैं...
*
राजनीति के रंगमंच
पर,षड्यंत्रों के अनुष्ठान हैं,
फिर भविष्य के उद्घोषक ने, कूटनीति के मंत्र पढ़े हैं.
दशरथ के आसक्ति-जाल से,कैकयी
के कोपभवन तक,
कुटिल मंथरा, के मंथन से, रामराज्य
के सिंहासन तक,
लक्ष्मण-रेखा की टूटन पर, स्वर्ण-मृगी आखेट हो रहे,
उधर उर्मिला के यौवन के
,विरह-तप्त,अध्याय पड़े हैं.
टूट रही हैं
मर्यादाएं, खंडित होते पात्र खड़े है...
*
प्रतिभाओं के कर्ण कैद
हैं, दुर्योधन के दुराग्रहों में,
धर्मराज हो रहे पराजित,शकुनियों
के द्यूत-ग्रहों में,
चीर-हरण की चर्चाओं
में, भीष्म-प्रतिज्ञा बनी विवशता,
पांचाली के अधोवस्त्र तक, दुशाशन
के हाथ बढ़े हैं.
टूट रही हैं
मर्यादाएं, खंडित होते पात्र खड़े हैं...
*
सतयुग, द्वापर या त्रेता हो, हर युग में पाखंड रहा है,
किस अतीत पर नतमस्तक हों, हर युग
में आतंक रहा है,
पृथ्वी-राजों,के प्रांगण में जयचंदों, के जयकारे हैं,
गौतम-गाँधी की गलियों में,
कितने अंगुलिमाल खड़े है.
टूट रही है,मर्यादाएं,खंडित
होते पात्र खड़े हैं...
*
जयद्रथों के वंशज देते शिशुपाली शैली में भाषण,
पांडव हैं अज्ञातवास में, कौरव
करते कुटिल आचरण,
सिंहासन के षड्यंत्रों
से, विदुर-व्यथा,बन गयी विवशता,
कुरुक्षेत्र में केशव
मानो, किकर्तव्य-विमूढ़ खड़े हैं.
टूट रही हैं
मर्यादाएं,खंडित होते पात्र खड़े है...
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mahendra sharma <mks_141@yahoo.co.in>
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