एक कविता:
बिखरी सी मुस्कान...

संजीव 'सलिल
*
श्री-प्रकाश अधमुंदे नयन से,
झर-झर कर झरता था.
भोर रश्मि का नव उजास
आलोक धवल भरता था.
अधरों पर सज्जित थी उसके
बिखरी सी मुस्कान.
देवों को भी दुर्लभ
ऐसी अद्भुत उसकी शान.
जिसने देखा ठगा रह गया
स्वप्न लोक का राजा.
जाने क्या कुछ देख रहा था?
किसे बुलाता आ जा?
रामलला-कान्हा दोनों की
छवि उसने पायी थी.
छह माताओं की किस्मत पा
मैया हर्षायी थी.
नभ को नाप रहा या
सागर मथकर खुश होता है.
कौन बताये समय धरा में
कौन बीज बोता है?
मानव से ईश्वर ने अब तक
रार नहीं ठानी है.
'सलिल' मनुज ने बाधाओं से
हार नहीं मानी है.
तम कितना भी सघन रहे
नव दीप्ति-किरण लायेगा.
नन्हा वामन हो विराट
जीवन की जय गायेगा.

*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot. com
http://hindihindi.in
बिखरी सी मुस्कान...
संजीव 'सलिल
*
श्री-प्रकाश अधमुंदे नयन से,
झर-झर कर झरता था.
भोर रश्मि का नव उजास
आलोक धवल भरता था.
अधरों पर सज्जित थी उसके
बिखरी सी मुस्कान.
देवों को भी दुर्लभ
ऐसी अद्भुत उसकी शान.
जिसने देखा ठगा रह गया
स्वप्न लोक का राजा.
जाने क्या कुछ देख रहा था?
किसे बुलाता आ जा?
रामलला-कान्हा दोनों की
छवि उसने पायी थी.
छह माताओं की किस्मत पा
मैया हर्षायी थी.
नभ को नाप रहा या
सागर मथकर खुश होता है.
कौन बताये समय धरा में
कौन बीज बोता है?
मानव से ईश्वर ने अब तक
रार नहीं ठानी है.
'सलिल' मनुज ने बाधाओं से
हार नहीं मानी है.
तम कितना भी सघन रहे
नव दीप्ति-किरण लायेगा.
नन्हा वामन हो विराट
जीवन की जय गायेगा.
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.
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