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बुधवार, 8 अगस्त 2012

मुकरियाँ या कह-मुकरियाँ -सौरभ पाण्डे

पुस्तक सलिला :
रसरंगिनी : मनसंगिनी 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
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[पुस्तक विवरण : रसरंगिनी, मुकरी संग्रह, तारकेश्वरी यादव 'सुधि', प्रथम संस्करण, वर्ष २०२०, आकार २१ से. मी. x १४ से. मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ४८, मूल्य ६०रु., राजस्थानी ग्रंथागार प्रकाशन जोधपुर, रचनाकार संपर्क : truyadav44@gmailcom ]
भारतीय लोक साहित्य में आदिकाल से प्रश्नोत्तर शैली में काव्य सृजन की परंपरा अटूट है। नगरों की तुलना में कम शिक्षित और नासमझ समझे जानेवाले ग्रामीण मजदूर-किसानों ने काम की एकरसता और थकान को दूर करने के लिए मौसमी लोकगीत गाने के साथ-साथ एक दूसरे के साथ स्वस्थ्य छेड़-छाड़ कर ते हुए प्रश्नोत्तरी गायन के शैली विकसित की।  इस शैली को समय-समय पर दिग्गज साहित्यकारों ने भी अपनाया। कबीर और खुसरो इस क्षेत्र में सर्वाधिक पुराने कवि हैं जिनकी रचनाएँ प्राप्त हैं। इन दोनों की प्रश्नोत्तरी रचनाएँ अध्यात्म से जुडी हैं। कबीर की रचनाओं में गूढ़ता है तो खुसरों की रचनाओं में रंजकता। कबीर की रचनाएँ साखी हैं तो खुसरो की मुकरी। साखी में सीख देने का भाव है तो मुकरी में कुछ कहना और उससे मुकरने का भाव निहित है। 
कबीर ने कहा - 
चलती चाकी देखकर, दिया कबीरा रोय 
दो पाटन के बीच में, साबित बचो न कोय 
कबीर के पुत्र कमाल ने उत्तर दिया-
चलती चाकी देखकर दिया कमाल ठिठोय 
जो तीली से लग रहा, मार सका नहीं कोय  
ये दोनों दोहे द्विअर्थी हैं। कबीर के दोहे का सामान्य अर्थ है चक्की के दो पाटों के बीच में जो दाना पड़ा वह पिस जायेगा उसे कोई बचा नहीं सकता जबकि गूढ़ार्थ है ब्रह्म और माया के दो पाटों में पीसने से  जीव की रक्षा कोई नहीं कर सकता। कमाल के दोहे का सामान्य अर्थ है की चलती हुई चक्की की कीली (धुरी) से जो दाना चिपक गया वह नहीं पिसा, बच गया। जबकि विशेषार्थ है संसार की चक्की में जो जीव ब्रह्म से प्रेम कर उससे अभिन्न हो गया उसका यम भी बाल-बांका नहीं कर सकता। 
शब्द कोष के अनुसार मुक़री, संज्ञा स्त्रीलिंग शब्द हैं जिसका अर्थ है एक पद्य जिसमें पहले कथन किया जाए फिर उसका खंडन किया जाए। वह कविता जिसमें प्रारंभिक चरणों में कही हुई बात से मुकरकर उसके अंत में भिन्न अभिप्राय व्यक्त किया जाय। यह कविता प्रायः चार चरणों की होती है इसके पहले तीन चरण ऐसे होते हैं; जिनका आशय दो जगह घट सकता है। इनसे प्रत्यक्ष रूप से जिस पदार्थ या व्यक्ति का आशय निकलता है, चौथे चरण में किसी और पदार्थ का नाम लेकर, उससे इनकार कर दिया जाता है । इस प्रकार मानो कही हुई बात से मुकरते हुए कुछ और ही अभिप्राय प्रकट किया जाता है। 
मुकरी लोकप्रचलित पहेलियों का ही एक रूप है, जिसका लक्ष्य मनोरंजन के साथ-साथ बुद्धिचातुरी की परीक्षा लेना होता है। इसमें जो बातें कही जाती हैं, वे द्वयर्थक या श्लिष्ट होती है, पर उन दोनों अर्थों में से जो प्रधान होता है, उससे मुकरकर दूसरे अर्थ को उसी छन्द में स्वीकार किया जाता है, किन्तु यह स्वीकारोक्ति वास्तविक नहीं होती, कही हुई बात से मुकरकर उसकी जगह कोई दूसरी उपयुक्त बात बनाकर कह दी जाती है। जिससे सुननेवाला कुछ का कुछ समझने लगता है। 
प्रश्नोत्तरी काव्य में पहेली भी लोकप्रिय विधा है। पहेली और मुकरी में अन्तर यह है कि पहेली का उत्तर उसके पद्य का अभिन्न भाग नहीं होता, पतंग की पूँछ की तरह अलग से जुड़ा होता है। कबीर की उलटबाँसियों और मुकरी में भी साम्य और वैषम्य दोनों हैं। साम्य यह कि दोनों में पद्य के दो अर्थ होते हैं, वैषम्य यह कि कबीर की उलट बाँसियाँ दर्शन शास्त्रीय मीमांसाओं से सम्बद्ध हैं जबकि मुकरियाँ दैनंदिन जीवन से। 
शिल्प की दृष्टि से देखें तो मुकरी में ४ पंक्तियाँ है जिनमें से तीन सोलह मात्रिक पंक्तियाँ गेयता को निभाती  हैं, चौथी पंक्ति दो भागों में विभक्त होती है, प्रथमार्ध उत्तर देते हुए प्रश्न उपस्थित करता है कि क्या यह ठीक है?, उत्तरार्ध उत्तर का खंडन कर समान लक्षणा अन्य उत्तर देकर अपने कहे से मुकर जाता है। प्रथम दो पंक्तियाँ सम तुकांत होती हैं जबकि तीसरी चौथी पंक्तियाँ भिन्न सम तुकांत में होती हैं।
हिन्दी में अमीर खुसरो ने इस लोककाव्य-रूप को साहित्यिक रूप दिया। अलंकार की दृष्टि से इसे छेकापह्नुति कर सकते हैं, क्योंकि इसमें प्रस्तुत अर्थ को अस्वीकार करके अप्रस्तुत को स्थापित किया जाता है। इसे ‘कह-मुकरी’ अर्थात पहले कहना और फिर मुकर जाना भी कहते हैं। हिन्दी में अमीर खुसरो की मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं। खुसरो इसके अंत में प्राय: 'सखी' या 'सखिया' भी कहते हैं । एक जीवंत उदाहरण देखें -
सगरि रैन वह मो संग जागा। 
भोर भई तब बिछुरन लागा।
वाके बिछरत फाटे हिया।                                                                                                               क्यों सखि साजन? ना सखि दिया। 
भारतेन्दु हरिश्चंद्र रचित एक मुकरी का आनंद लें - 
भीतर भीतर सब रस चूसै,                                                                                                            हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै।                                                                                                 जाहिर बातन मैं अति तेज,                                                                                                         क्यों सखि सज्जन? नहिं अँगरेज।
भारतेन्दु के बाद नागार्जुन ने भी मुकरियाँ कहीं हैं। इस सदी के आरंभ में मैंने भी कुछ मुकरियाँ कहीं। एक उदाहरण देखें - 
इससे उसको जोड़ मिलाता                                                                                                          झटपट दूरी दूर भगाता                                                                                                                    कोई स्वार्थ न कोई हेतु                                                                                                               क्या सखि साजन, ना सखि सेतु। 
२०११ में प्रकाशित योगराज प्रभाकर रचित एक मुकरी देखें -
इस बिन तो वन उपवन सूना,
सच बोलूँ तो सावन सूना,
सूनी सांझ है सूनी भोर,
ए सखि साजन ? ना सखि मोर ! 
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