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मंगलवार, 7 अगस्त 2012

समीक्षा : कविता को लगा कैंसर -- डॉ. दीप्ति गुप्ता

समीक्षा :                                                           
               
कविता को लगा कैंसर
                                       -- डॉ. दीप्ति गुप्ता 
      

शिक्षा: आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी) एम.ए. (संस्कृत), पी.एच-डी (हिन्दी),रुहेलखंड विश्वविद्यालय,बरेली, हिन्दी विभाग  में अध्यापन(१९७८–१९९६),हिन्दी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली में अध्यापन (१९९६ -१९९८) हिन्दी विभाग, पुणे विश्वविद्यालय में अध्यापन (१९९९ – २००१) विश्वविद्यालयी नौकरी के दौरान, भारत सरकार द्वारा, १९८९ में  मानव संसाधन विकास मंत्रालय’, नई दिल्ली में शिक्षा सलाहकार पद पर तीन वर्ष के  डेप्युटेशन पर नियुक्ति (१९८९- १९९२) गगनांचल, वागर्थ,साक्षात्कार, नया ज्ञानोदय, लमही, संबोधन, उदभावना, अनुवाद, कुतुबनुमा, उदंती, उत्तरा, संचेतना, नई धारा, प्रेरणा, अहिल्या आदि पत्रिकाओं,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, अमर उजाला, पंजाब केसरी, विश्वमानव, सन्मार्ग, मिलाप, जनसत्ता, जनवाणी,  संडेवाणी (मारीशस), Indian Express,  Maharashtra Herald,  Pune Times, Women’s Era,  Alive, Delhi  Press आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं, कहानियों, आलेख एवं  समीक्षाओं का प्रकाशन. नैट   की काव्यालय, कथा-व्यथा,  अनुभूति-अभिव्यक्ति, हिंदी नेस्ट, अर्गला, सृजनगाथा. ArticleBase.com, Fanstory.com, Muse.com आदि हिन्दी एवं अंग्रेजी की इ-पत्रिकाओं में नियमित रूप से विविध रचनाओं का प्रकाशन एवं ई-कवितायाहूग्रुप, ई-चिंतन याहू ग्रुप, हिन्दी-भारतयाहूग्रुप -साहित्यिक व वैचारिक मंचों  पर सक्रिय भागीदारी.
Fanstory.com – American   Literary  site   पर English Poems  ‘’All Time Best’  से  सम्मानित.

‘शेष प्रसंग’  कहानी संग्रह (2007)  की  हरिया काका  तथा  पातकनाशनम्  कहानियाँ पुणे विश्वविद्यालय के क्रमश: 2008 और 2009 से हिन्दी स्नातक पाठ्य क्रम में शामिल।
अन्तर्यात्रा  काव्य संग्रह  (2005)  की निश्छल भाव   काला चाँद   कविताएं दुबई, शारजा, आबू धबी, आदि विभिन्न स्थानों में स्थापित मॉडर्न स्कूल की सभी शाखाओँ के पाठ्यक्रम में (2008) शामिल।

   प्रकाशित कृतियाँ :
1) महाकाल से मानस का हंससामाजिक मूल्यों और आदर्शों की एक यात्रा, (शोधपरक - 2000)
2) महाकाल से मानस का हंसतत्कालीन इतिहास और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में, (शोधपरक -2001)
       3) महाकाल से मानस का हंसजीवन दर्शन, (शोधपरक 200)
       4) अन्तर्यात्रा ( काव्य संग्रह 2005),
5) Ocean In The Eyes ( Collection of Poems 2005)
6) शेष प्रसंग (कहानी संग्रह -2007),
      7)समाज और सँस्कृति के चितेरे अमृतलाल नागर, (शोधपरक - 2007) 
      8)  सरहद से घर तक   (कहानी संग्रह,   2011),
      9)  लेखक के आईने में लेखक संस्मरण संग्रह शीघ्र प्रकाश्य
 
राजभाषा विभाग, हिन्दी संस्थान, शिक्षा निदेशालय, शिक्षा मंत्रालय, नई दिल्ली, McGrow Hill Publications, New Delhi,  ICSSR, New Delhi,  अनुवाद संस्थान, नई दिल्ली, CASP  Pune, MIT  Pune,    Multiversity  Software  Company   Pune,    Knowledge   Corporation  Pune,   Unicef,  Airlines,  Schlumberger   (Oil based) Company, Pune   के लिए अंग्रज़ी-हिन्दी अनुवाद  कार्य !

अगस्त, २०११ में  साकेत, दिल्ली से १४ भाषाओं में प्रकाशित ‘द संडे इंडियन’ पाक्षिक पत्रिका द्वारा  भारत और विदेश में बसी हिन्दी साहित्य के उत्थान और विकास में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली सर्वश्रेष्ठ लेखिकाओं में चयनित !

सम्प्रति: पूर्णतया रचनात्मक लेखन को समर्पित  और पूना में स्थायी निवास!मोबाइल:098906 33582



              एक लंबे समय से मैं साहित्य की वह विधा, जिसे साहित्य  का प्राण कहा जाता है; पढती आई हूँ और विश्वविद्यालय में पढाती भी आई हूँ! जी हाँ, मैं ‘कविता’ की ही बात कर रही हूँ! कम से कम शब्दों में यदि इसे  व्याख्यायित करें तो– ‘ह्रदय के कोमलतम  भावों की सौन्दर्यपरक अभिव्यक्ति कविता कहलाती है’- कोमलतम भाव यानी सौंदर्य, प्रेम, सुख-दुःख संबंधी वे शाश्वत भाव जो जीवन की हर अनुभूति में  समाए होते हैं! साहित्य के प्रणेताओं द्वारा कविता  के सदियों से प्रतिष्ठित इस कालजयी रूप को दिलो-दिमाग में संजोकर, आज कविता के नाम पर, जब हम अश्लील, फूहड़ और बेतुक बंदी को झेलते हैं तो दिमाग में  एक ऐसा बवंडर उठ खडा होता है जिसे रोकने के लिए स्वयं से जंग  लड़नी पडती है! आज कुछ खास कवि, कविताएं लिख रहे है या इस विधा की आड़ में अपने रुग्ण भावों का जखीरा पेश कर रहे हैं, समझ  नहीं  आता?
        
            कविता– छंद-बद्ध और छंद-मुक्त दोनों तरह की हो सकती है किन्तु भावों और संवेदनाओं की प्रधानता दोनों तरह की कविताओं की पहली शर्त है! यदि छंद की लयात्मकता कविता में नहीं है तो निश्चित रूप से भावों की लयात्मकता तो मिलेगी ही! महाकवि निराला की तमाम कवितायेँ छंद से अधिक भावात्मक लयबद्धता का सुन्दर उदाहरण हैं लेकिन इस सबसे से भी एक महत्वपूर्ण बात जो कविता को कविता बनाती है, वह है– उसमें तैरते भावों का पाठक के साथ ऐसा अपनत्वपूर्ण  संवाद जो पाठक के उदात्त भावों को स्पर्श कर, उन्हें स्पंदित करे! उस उदात्त मनस्थिति में कविता, पाठक के ह्रदय को अपनी गिरफ्त में इस तरह ले लेती है कि कुछ देर बाद सामान्य स्थिति में आने पर भी, उसकी  छाप  अंतर्मन पे लंबे समय के लिए अंकित हो जाती है ! सच्ची  और अच्छी कविता का यह एक सहज  गुण है लेकिन तमाम  सहजताओं से भरी, निर्मल-निश्छल कविता आज, पवनकरण और अनामिका जैसे रचनाकारों  के कारण इतनी असहज और विकृत हो गई है कि रुग्ण और विकलांग नज़र आती है
         
              इन दोनों कवियों की ‘ब्रेस्ट कैंसर’ जैसे गंभीर और संवेदनशील विषय पर इतनी अश्लील और उथली कवितायेँ सामने आई कि उन्हें पढ़ते हुए भी शर्म आती है! उनकी आलोचना में कलम चलाने में भी दिल पर जोर पड़ता है किन्तु साहित्य सेवी और साहित्य प्रेमी होने के नाते, कविता जैसी सुकोमल और संवेदनशील विधा की रक्षा करना अपना फ़र्ज़ बनता है तो कितना भी दिल पर जोर पड़े, उसके रूप को नष्ट-भ्रष्ट करने वालों की कलम पर रोक तो लगानी ही पड़ेगी तदहेतु आलोचना अपेक्षित है! आज ज़माना कितना बदल गया है कि गलत बात कहने वाले सीना तानकर अभद्र बातें कहते नहीं हिचकते और सही बात के पक्षधर, दूसरों की गलती पर शर्म से गड़े हुए, लंबे समय तक संज्ञा शून्य से,  उसके बारे सोचते  बैठे रहकर, तब मन ही  मन उन अभद्र बातों के उल्लेख के प्रति संकोच से भरे हुए, गलत का विरोध  कर पाते हैं!
         
          एक कविता संग्रह में पवनकरण जी की कविता ‘स्तन’ और फरवरी २०१२ के ‘पाखी’ के स्त्री- लेखन विशेषांक में अनामिका जी की ब्रेस्ट कैंसर’ पर कविता पढ़ी और पढ़कर मेरे दिलो-दिमाग का  ज़ायका बिगाड़ गया क्योंकि उनमें कैसरपीड़ित महिला के प्रति करुणा, सहानुभूति, या उसकी पीड़ा का उल्लेख या कैंसर जैसे भयंकर रोग से मुक्ति दिलाने के लिए दुआ और प्रार्थना जैसा कोई कोमल भाव नहीं था अगर कुछ था तो बस अश्लीलता, कामुकता का अजस्र  बहाव तथा थोथी और छिछली बातों का भंडार!

             ब्रेस्ट कैंसर हो या किसी अन्य अंग का कैंसर, उससे पीड़ित व्यक्ति जीवन-मरण की जिस उहापोह, पल-पल जिस भावनात्मक दारुण पीड़ा तथा एक निर्मम शून्य और सन्नाटे से गुज़रता है, उसे बड़ी शिद्दत के साथ कविता में इस तरह उतारा जा सकता है कि वह पाठक की संवेदनाओं को स्पर्श करता हुआ, उसे भोगनेवाले की पीड़ा का एहसास कराए लेकिन इन दोनों कवियों की कवितायेँ जिस बेदर्दी से पाठक की और ब्रेस्ट कैंसर पीड़ित की आशाओं पर पानी फेरती हुई, कुत्सित भावों का तमाशा पेश करती हैं, उसे पढकर वितृष्णा होती है! ब्रेस्ट कैसर एक ऐसा शब्द है, ऐसा विषय है, ऐसा रोग है जिससे पीड़ित इंसान के बारे में सुनकर मन में संवेदना जागती है! अधिकतर लोग संवेदना को जानते तो हैं पर ‘समझते’ नहीं ! संवेदना  यानी  ‘दूसरे की वेदना को समान रूप से अनुभूत करना’ और जब वह कविता में उतरे तो– उसे पढ़कर पाठक संवेदना के माध्यम से, मानसिक और भावनात्मक रूप से– कैंसरग्रस्त इंसान की वेदना से तादाम्य स्थापित कर सके! खेद है कि पवनकरण जी और अनामिका जी जैसे संवेदनशील  कवियों ने इस विषय पर, बड़े ही स्थूल स्तर पर कवितायेँ लिखी! वे कवितायेँ इतनी विरूप और कुरूप हैं कि पाठक  को संज्ञा शून्य सा कर देती है! उन्हें पढ़कर मैंने तो अपने को बीमार सा महसूस किया! उनमें उदारता से उड़ेले गए अभद्र विचारों और अभिव्यक्ति के बोझ तले  मेरा जैसे सांस लेना मुहाल हो गया! ये कवितायेँ हैं या कि औघड़ता का नग्न तांडव?

            हिन्दी साहित्य का इतिहास उठाकर देखें तो कविता  क्रमश: छायावाद , हालावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, प्रतीकवाद, अभिव्यंजनावाद (इटली के दार्शनिक क्रोशे की देन) से होती हुई  ‘नई कविता ’ के रूप में ढली  और  तदनंतर  ‘अकविता’ बनती गई, जिसमें नए भावों, नए तथ्यों, नए विषयों को ‘यथार्थ’ की भूमि पर प्रतिष्ठित किया गया ! यथार्थ चिंतन ने आधुनिक काल के कवियों को  नवीन विषयों की परिकल्पना  की विशेष प्रेरणा दी! कवियों ने आस-पास की परिस्थितियों से प्रेरित होकर व्यक्ति सत्यों को इस ‘नई कविता  और ‘अकविता’ में प्रस्तुत किया! इसका  परिणाम यह  हुआ कि उनका सोच, उनका चिंतन, उनकी अभिव्यक्ति, चित्र सभी यथार्थ से अनुस्यूत हो गए! तदनंतर यथार्थ का विकृतिकरण होने लगा और  यथार्थवाद का यह दर्पण अतियथार्थता से ही किरच-किरच हो गया! कविता अपशब्दों की सीमा तक पहुँच गई! अज्ञेय जी ने जिन आदर्शों की प्रतिष्ठा की थी, ‘नई कविता’ और ‘अकविता’ उनको छिन्न-भिन्न कर उग्रता से फूट निकली! आज २१ वीं सदी में वही उग्रता और अपशब्द पवनकरण जी और अनामिका जी की कविताओं में  और भी भयंकर रूप से अश्लील और अभद्र होकर मुखर हुए हैं और ‘ब्रेस्ट कैंसर’ पर कविता के रूप में हमारे सामने आए ! ये तो थोड़े से ही उदाहरण हैं !

             कविता में शास्त्रीय दृष्टि से रस  हो न हो, लय हो ना हो, लेकिन रस का मूल उत्स ‘बिम्ब’  ज़रूर होना चाहिए! अनुभूति जितनी जीवंत, तीव्र और सजीव होगी, बिम्ब उतना ही स्वच्छ और प्रभावशाली होगा! कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कविता में छंद नही हैं; भावनात्मक लय भी नहीं है, तो कम से कम बिम्ब तो हो! लेकिन पवनकरण और अनामिका जो परिपक्व कवि हैं, उनकी कविताओं में बिम्ब तक नहीं है! क्यों? जब अनुभूति की तीव्रता, प्राणवत्ता ही इन कविताओं में नहीं है, तो बिम्ब कहाँ से उभरेगा?  इन दोनों ही कवियों की इस समानता की दाद देनी पड़ेगी कि दोनों में किसी को भी कैंसर रोग से पीड़ित इंसान के मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक कष्ट व पीड़ा से कोई सरोकार नहीं अपितु उरोजों का कामुक, अश्लील चित्रण करना, उनसे ओछा वार्तालाप करना ही, उनका  ध्येय प्रतीत  होता है! ब्रेस्ट कैंसर के बहाने कविता में शुरू से अंत तक  ब्रेस्ट यानि स्तन  पर ही उनकी दृष्टि करुणा या चिंतन के तहत नहीं अपितु वासना और विकृति के तहत गडी नज़र आती है! मुझे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं, उनके तो शब्द बोल रहे हैं, उनकी अभिव्यक्ति तरह तरह के फूहड उपमानों के साथ उरोजों  को प्रस्तुत कर रही हैं जिससे उनकी कविताएँ, एक पोर्न चित्रावली आँखों के सामने चलाने लगती है! जब बोल्ड मूवीज बनती हैं तो कम से कम सेंसर बोर्ड उन्हें  एडल्ट मूवीज की श्रेणी में रख कर ‘ए’ सर्टिफिकेट तो देता है परंतु यहाँ तो इन कविताओं के लिए न तो कोई सेंसर बोर्ड बना है और न किसी तरह का ‘ए’ सर्टिफिकेट है! सिनेमा जैसी विधा में तो खुली अश्लीलता एकबारगी ‘ए’ सर्टिफिकेट के तले चल भी जाती है जबकि आलोचना उसकी भी खूब होती यहाँ तक कि  सेंसर बोर्ड की मति पर भी सवाल उठाए जाते हैं, लेकिन कविता जैसी  सुकोमल, भावप्रधान उदात्त विधा में अश्लीलता न तो अनुमित होती  है, न स्वीकार्य! फिर भी कुछ जांबाज़ कवि कविता का चीरहरण करते रहते है और वरिष्ठ कवि वर्ग सहनशील बने देखते रहते हैं! अच्छाई राम की तरह रावण का यानी बुराई का सामना करने को तैनात क्यों नहीं हो जाती? क्या बात आड़े आती है? मुझे तो यह बात आज तक समझ नहीं आई? एक आदमी सामने खड़ा भद्दी गालियाँ दे रहा है, आप उसे उसके ही जोड़ की गालियाँ मत दीजिए परंतु साहस से उसका मुँह कम से कम इस दबंगई से तो बंद कीजिए कि गाली देने की बात तो बहुत दूर, मुँह खोलना भी भूल जाए!

            अब दोनों कविताओं  की स्कैनिंग कर, उन पर अलग-अलग थोड़ा विस्तार से  सोच-विचार करना होगा! पवनकरण नारी के वक्षस्थल को शहद का छत्ता और दशहरी आमों की ऐसी जोड़ी बताते हैं जिनके बीच वे जब-तब अपना सर धंसा लेते हैं या फिर उन्हें कामुक की तरह आँखें गड़ा कर देखते रहते हैं– ये  कैसर रोग को, स्तन पर झेल रही महिला के लिए उनकी सम्वेदनशील नज़र है.. वाह! क्या नज़र है? क्या  संवेदनशीलता है? उन्हें कैसर रोग से ग्रस्त महिला के दुःख औरअवसाद से कुछ लेना-देना नहीं– वे तो उरोजों के आकार और आकृति को देख रहे हैं- उन की उपमा शहद के छत्ते और आम से दे रहे हैं! ‘रोगी स्तनों’ की इस तरह की उपमाएँ हमने तो पहली बार पढ़ीं! फिर उनसे खेलने की बात करते हैं! इससे अमानवीय और निकृष्ट बात और क्या हो सकती है? यदि वे अपने बचाव में अब यह दलील देने लगें कि वे श्रृंगार काल के कवियों की तरह श्रृंगार रस से ओत-प्रोत कविता लिख रहे हैं, तो मैं उन्हें बताना चाहूँगी कि  श्रृंगार काल के बिहारी, केशव, आदि कवियों अथवा संस्कृत के कालिदास ने श्रृंगार रस का बड़ा ही शालीन और भद्र चित्रण किया है- पवन जी  की तरह वितृष्णा पैदा करने वाला नहीं! उसे पढ़कर सौंदर्यपरक श्रृंगार  की अनुभूति होती है ना कि पोर्न साहित्य की! सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यहाँ ये है कि श्रृंगार काल के कवियों ने उन कमनीय नायिकाओं का वर्णन किया जो कैंसर जैसे जानलेवा रोग से ग्रस्त नहीं थीं और जीवन की जंग नहीं लड़ रही थीं! वरना वे संवेदनशील कवि, ऎसी पीड़ित नारी का, जो ऐसे रोग के कारण भावनात्मक और मानसिक अवसाद व हताशा से गुजर रही होती है, उसका कभी श्रृंगारपरक वर्णन न करते – कामुकता भरी अभिव्यक्ति तो बहुत दूर की बात है! उसकी  वेदना, पीड़ा पर  ही उनकी दृष्टि केंद्रित होती! यहाँ हमारे परम आधुनिक बिंदास कवि ब्रेस्ट कैंसर से पीड़ित नारी के रोग की व्यथा-कथा कहने के बजाय,  उसे खिलौना कहकर नारी का मखौल उड़ा रहे हैं! उसके प्रति सहानुभूति, करुणा या सम्वेदना से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है!               आज नारी विमर्श के समर्थक रचनाकार यदि  नारी पर, इस तरह की अश्लील रचनाएँ समाज और साहित्य को भेंट चढ़ाने लगेंगे तो शीघ्र ही समाज और साहित्य में भी कैंसर के जाले झूलते नज़र आयेगें! ‘साहित्य’ सदियों से - समाज और मानव-जाति  को स्वस्थ दिशा, स्वच्छ  दृष्टि देता आया है– उनका ‘हित’ करता आया है, तभी ‘साहित्य’ नाम से  जाना गया! ऐसा नहीं कि साहित्य ने जीवन में घट रहे यथार्थ  को नकारा, साहित्य ने उसका भी चित्रण किया,लेकिन जीवन में वरेण्य क्या है?, समाज को होना कैसा चाहिए? वह आदर्श प्रस्तुत करके सदैव सद् मार्ग  का संदेश पाठकों को दिया, सही सोच दी, दिशा दी लेकिन आज साहित्य के कुछ सर्जक समाज को सही दिशा देने के बजाय सही दिशा से भटका रहे हैं!  सत्यम, शिवम, सुन्दरम देने के बजाय असत्यम, अशिवम और असुन्दरम दे रहे हैं! तभी तो पवनकरण और अनामिका चिंता उपजानेवाले, हँसी-खुशी छीन लेनेवाले, शरीर को क्षत-विक्षत कर देनेवाले जानलेवा रोग – ‘कैंसर’ से  ग्रस्त नारी पर, एक बेढब कविता, नारी-विमर्श का मन्त्र गुनगुनाते हुए, शान के साथ परोस रहे हैं! आकाश की ओर सर उठाकर, जैसे कोई विजय गीत गा रहे हो!  ऎसी कविता लिखने का क्या औचित्य है?  वे इस बात का ज़रा खुलासा करें ! उनका संवेदनशील कवि-मनस कहाँ खो गया है जो  एक बार भी उन्हें उस नारी की पीड़ा, उसकी मानसिक यंत्रणा और भावनात्मक खालीपन की याद  नहीं दिलाता, जो शरीर के किसी भी अंग के अलग  कर दिए जाने पर उपजता है और दिल में घर करके बैठ जात्ता है! दूसरे की जान पर बनी है और इन दोनों रचनाकारों को हँसी मजाक सूझ रहा है तभी पवनकरण के लिए उरोज एक खिलौना हैं, खुशी का  साधन हैं और अनामिका उनके शरीर से विलग हो जाने के बाद– उन्हें मानो पछाड़ देकर, खुश होती हुई, उन पर व्यंग कस रही हैं– ‘कहो कैसी रही...?’

             एक हिस्से  को गँवा देने के बाद कैंसर रोग पीड़ित नारी के जीवन में  हमेशा के लिए जो ‘कमी’ आ जाती है– पवन जी उस कष्ट का कोई उल्लेख न करके, अपने उस नारी के साथ रिश्ते में आई ‘कमी’  का  रोना रो रहे हैं! उनका  उस नारी के साथ रिश्ता कितना  उथला था कि एक अंग का उच्छेद होते ही– रिश्ता भी उच्छिन्न हो गया! बहुत खूब!

            पवन करण जी  की ‘स्तन’ कविता, सीधी सीधी एक पोर्न कविता है जिसका भावों, संवेदना और (सह) अनुभूति आदि से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं! अचरज मिश्रित बात यह है कि पवन करण जी की यह  कविता  ‘ब्रेस्ट कैंसर’ को झेलने वाली ‘संगीता रंजन’ को समर्पित  है! पहले  भयंकर ‘ब्रेस्ट कैंसर’ को झेलना, फिर इस भयंकर कविता को झेलना– कैसा लगा होगा उनको? उनकी भावनात्मक और मानसिक वेदना का तो कविता में कहीं  छींटा भी  नहीं  महसूस हुआ उलटे एक  खिलंदड़ी के से भाव से यह कविता लिख कर उन्हें समर्पित कर दी गई! उनकी  आतंरिक पीड़ा और वेदना को महसूसते हुए यदि इस  कविता को लिखते तो, इसी कविता की बात ही कुछ और होती! पवनकरण जी ने अपनी स्थूल सोच कविता में इस बेदर्दी से थोपी है कि उस में चित्रित नारी को अपनी तरह स्थूल दृष्टिवाला बना दिया है! तभी तो वह  पुरुषवादी  नज़र से अपने अंगों देख कर, परवर्ट बनी हर्षित होती दीखती है और बाद में एक हिस्से के कट जाने पर उसका दुःख भी उसी स्थूलता के साथ पाठक के सामने आता है– भावनात्मक तल पर नहीं! कहा गया है कि– 'Our any creation reflects our thoughts, our sensitivity,our insight and much much more.' जैसे- यदि हम नारी-विमर्श पर उद्भ्रांत जी की कवितायेँ पढ़ें तो पायेंगे कि उन्होंने नारी-ह्रदय को, उसके स्वभाव, उसकी मानसिकता  को जिस संवेदनशीलता और  बारीकी से समझा हैं और अपनी कविताओं में चित्रित किया है, वह बेहद भाव-प्रवण, मनोवैज्ञानिक और मनमोहक है तथा पाठक मन पर अमिट छाप छोड़ता है! उनकी कविता ‘एक औरत’ की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं– 'एक माँ का / एक पत्नी का / दायित्व निबाहते, / कष्ट उठाते / रोते, झींकते / इसके भीतर भी / प्यार से लबरेज एक दिल था / वक्त ने और / ज़िंदगी की विद्रूपताओं ने  / उसे कहाँ छुपा लिया?' 

इसी तरह एक अन्य कविता :

             'समुद्र तट पर खडी / एक स्त्री को देखा मैंने / तो हैरान रह गया / क्योंकि अगले ही क्षण / स्त्री परिवर्तित हो गई समुद्र में ..'

           उद्भ्रांत जी की  ये पंक्तियाँ और अभिव्यक्तियाँ नारी में छुपी असीम क्षमताओं की बात करती हैं, उसके मन की पीड़ा, खीझ, निराशा और प्यार की  बात करती हैं! 

           इस दृष्टि से यदि हम पवनकरण जी की कविता का जायजा ले तो, उसमें संवेदना, चिंतन और अंतर्दृष्टि जैसी किसी चीज़ के दर्शन नहीं होते! होते भी कैसे, उस सोच, उस  कुत्सित भावना के ही तो दर्शन होगें जो उनके अंतर्जगत में तैर रही है! रचनाकर जैसा हैं, रचना के आईने में उसका वैसा ही तो अक्स दिखेगा! सोच अच्छी और बुरी कैसी भी हो सकती है! उस पर किसी तरह की पाबंदी न कभी लगी है, न लगेगी- मनोवैज्ञानिक, मनोविश्लेषक, समाजशास्त्री, साहित्यशास्त्री  सभी इस बात पर एकमत हैं ! जब कायनात में अच्छे  और बुरे का द्वन्द्व है तो मानव स्वभाव में भी होगा! इसलिए ऐसा नहीं हैं कि अच्छे इंसान में सब अच्छा ही भरा होगा और बुरे में सब बुरा ही होगा लेकिन देखा यह जाता है कि इंसान में  कौन से भाव और विचार– सकारात्मक या नकारात्मक– बहुतायत से स्पंदित रहते हैं, मुखर रहते हैं! भावों के प्रकार की इस मुखरता से ही उसके और उसकी गतिविधियों, क्रिया-कलापों का  सकारात्मक व उत्तम होना सिद्ध होता है! यहाँ वर्त्तमान सन्दर्भ में विचारणीय यह है कि रचनाकार का सृजन के प्रति, समाज के प्रति, जीवन के प्रति एक उत्तरदायित्व बनता है, उसका  एक नैतिक कर्तव्य होता है कि जो भी सकारात्मक, स्वस्थ, शिव और सुन्दर है, उसे जीवन और समाज के मद्दे नज़र, सबसे पहले सृजन में उतारना, फिर सृजन के माध्यम से समाज और जीवन में उतारना तथा इस तरह, अस्वस्थ और नकारात्मक का निराकरण करना! हमारे आसपास समाज में, जीवन में जो भी नकारात्मक रात और दिन की  तरह आता है, जाता है, उसको नज़रंदाज़ नहीं करना, वरन उसका भी उल्लेख करना, उसके विषाक्त प्रभावों  को दर्शाना और उसके साथ-साथ कदम-दर- कदम सकारात्मक व स्वच्छ सन्देश पर सृजन की इति करना जिससे मानव जीवन और उससे रचा हुआ समाज भटके नहीं वरन बेहतर से बेहतर बने! हमारे धर्मशास्त्रों  में हमारे हर छोटे से छोटे और बड़े से बड़े कार्य का उद्देश्य सुख और शांति की उपलब्धि बताया गया है! इसलिए लेखक जो समाज का प्राणी है, उसका यह नैतिक और रचनात्मक कर्तव्य बनता है कि वह अपनी लेखनी से जो भी ‘सकारात्मक’ है, वह पाठकों को, समाज को दे– न कि नकारात्मक, अश्लील और भौंडी चीजें इधर-उधर छितराकर वातावरण खराब करे! इसलिए यदि कोई  लेखक मात्र एकांगी रूप से कुत्सित और अभद्र बिंदुओं पर केंद्रित होकर, उनका यशगान करे, उनकी महिमा गाए, तो समझिए कि उसकी लेखनी अस्वस्थ है! ऐसे रचनाकारों की जमात एक दिन साहित्य और समाज को ले डूबेगी! इस सन्दर्भ में पवनकरण की कविता ‘स्तन’ जिस ठंडेपन से स्त्री मांसलता  को पेश करती है, वह निहायत ही खेद का विषय है! कोई भी विचारशील ‘सहृदय’– जिसमें लेखक, पाठक, तथा अन्य  संवेदनशील सामजिक आते हैं– इस तरह के अपसंस्कृत लेखन का स्वागत नहीं करेगा! ऐसे लेखन का अपनी-अपनी कलम चला कर कड़ाई से विरोध होना चाहिए! स्त्री और उसकी देह को  एक ‘आब्जेक्ट’ के रूप में खिलौने की तरह देखना, उसके सारे अंग बरकार हो, सुन्दर  हो तो उसे ‘उपयोगी’ करार देना और उसका  कोई अंग कैंसर रोग के कारण छिन्न हो कर छीन जाए तो उसे अनुपयोगी  घोषित कर देना– और उस नारी से दूरी जताना, नारी जाति  का सरासर अपमान है ...?  नारी मात्र एक देह ही क्यों– वह ‘भावना’ और ‘संवेदना’ पहले है ! नारी भावना के तल पर अधिक जीती है न कि शरीर के तल पर! शरीर के तल पर तो वह पुरुष के द्वारा ही लाई जाती है– उसमें भी उसके  भाव उभर-उभर आते हैं! पवनकरण जी द्वारा नारी पर अपनी स्थूल मांसल दृष्टि को थोपना और उसके सुकोमल शरीर से अपनी  सोच जैसी एक संवेदनाहीन, लज्जाविहीन स्त्री की सर्जना करना और फिर कैंसर की सर्जरी के बाद, जब वह एक अंग खो बैठे तो उससे ढाढस बँधाने के बजाय, उसकी उपेक्षा  करना और इन सब बातों को निर्ममता से कविता के रूप में पन्नों पर घसीटना... कहाँ तक उचित  और मानवीय है? क्या यह भावनात्मक नृशंसता नहीं है? या यह पवन जी पर आज की उपभोक्ता संस्कृति  का प्रभाव है ‘यूज एंड थ्रो’! 

             पवनकरण जी की तरह ही अनामिका जी की कविता ‘ब्रेस्ट कैंसर ‘ की शुरुआत इस तरह होती है : 'दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया मैंने / दूध  पिलाया मैंने / हाँ, बहा दी दूध की नदियाँ / तब जाकर  मेरे  इन उन्नत पहाड़ों की गहरी गुफाओं में जाले लगे '

              इन पक्तियों से दूध के साथ ममता और स्त्रीत्व कम, दंभ ज्यादा उमड़ता नज़र आता है ! बार-बार ‘दूध पिलाया मैंने, दूध पिलाया मैंने,‘ की उद्घोषणा करके, वे क्या कहना या समझाना चाहती हैं– यह समझ नहीं आया! कम से कम मुझ मंदमति को तो स्पष्ट नहीं हुआ! उन्हें भी स्पष्ट है या नहीं, वे ही जानें! फिर यह अभिव्यक्ति ‘तब जाकर मेरे इन उन्नत पहाड़ों में जाले लगे ‘– इससे तो ऐसा अर्थ ध्वनित  हो रहा है कि वे कैंसर रूपी जाले को गले लगाने के लिए कब से प्रयासरत थी और प्रतीक्षा में थी, तब कहीं जाकर एक दिन उनकी मेहनत रंग लाई और  उन्नत पहाड़ों में कैंसर घर कर पाया! यह कैसी कामना है? कौन स्त्री चाहेगी कि उसके वक्षस्थल जो कि ममता का उत्स माना जाता है वह कैंसर जैसे रोग से ग्रस्त हो जाए! यह विक्षिप्तता की निशानी है या ज़बरदस्ती शहीद  होने का भाव? कैसर को इस तरह निमंत्रण? अनामिका जी की ये पंक्तियाँ तो यह ही संवाद करती नज़र आईं! इसके आगे वे लिखती हैं: ‘कहते हैं महावैद्य / खा रहे हैं मुझको ये जाले / और मौत की चुहिया मेरे पहाड़ों में इस तरह छिपकर बैठी है / कि यह निकलेगी तभी / जब पहाड़ खोदेगा कोई....’

            हिंदी में एक बड़ा पुराना  और प्रसिद्ध मुहावरा है– ‘खोदा पहाड़  निकला चूहा / निकली चुहिया‘ उस मुहावरे का कविता में प्रकारांतर से अनामिका जी ने प्रयोग करके जो व्यंजना भाव लाना चाहा है, वह तो कहीं खो गया और अभिधा अर्थ ही चुहिया की तरह फुदक-फुदक कर सामने आया! ‘खोदा पहाड़  निकला चूहा’ में चूहे को एक अमहत्वपूर्ण, निरर्थक वस्तु के अर्थ  में प्रयोग किया जाता है! जब कि  अनामिका जी द्वारा मुहावरे के तहत चुहिया को कैंसर जैसे  भारी भरकम गंभीर रोग के उपमान के रूप में प्रयुक्त करना एक तरह का विरोधाभास पैदा करता है! पहाड़ जब खुदे और कैंसर रोग ना निकले, तब यह मुहावरानुमा अभिव्यक्ति अधिक समीचीन लगती लेकिन यहाँ तो वह बहुत ही अटपटी और अप्रासंगिक लगती है! फिर अनामिका जी ने जो यह लिखा है कि  महाववैद्य यानी ‘कैंसर स्पेशलिस्ट’ जब  पहाड़ खोदेगा.. जैसे एक डाक्टर / वैद्य हाथ में कुदाल लिए खोदने के लिए तैयार खड़ा हो– ऐसा हास्यास्पद बिम्ब ज़ेहन में बनता है– डाक्टर न हुआ बेचारा  खुदाई करने वाला मज़दूर हो गया.....! खैर आगे वे अपनी तमन्ना का दूसरा फलक उघाड़ती हैं और लिखती हैं– ‘निकलेगी चुहिया तो देखूंगी मैं भी’... इससे वीभत्स और रुग्ण मनोकामना क्या होगी कि शल्य चिकित्सा के बाद चीर-फाड़ के कारण खून से सने उरोजों को वे सर्जरी प्लेट में देखने को बेताब होगीं! उनके शब्दों में- ‘खुदे-फुदे नन्हे पहाड़ों को ‘..... मतलब कि जो उन्नत से नत बने सर्जरी प्लेट में पड़े होगें... कितनी अमानवीय कल्पना और कामना है कवयित्री की! आगे उरोजों से संवाद की बात लिखती हुई कहती वे हैं– कि वे हँसकर, चिहुककर उन निर्जीव स्तनों को मुँह चिढ़ाती हुई पूछेंगी– 

             ‘हेलो, कहो, कैसी रही??’ 

            ‘कैसी रही’ यह अभिव्यक्ति कितनी ओछी और छिछोरी  है ! अपने शरीर के अंग को क्या इस  तरह -  पहले चुनौती और फिर मुँह चिढाना–किया जाता है? उन ममता के स्रोतों से क्या अनामिका जी की कोई शर्त लगी थी कि पहले वे उनमें जाले लगने की कामना  करती हैं; जब जाले  लग जाते हैं तो उन्हें चीर-फाड़कर खोदने की चुनौती देती हैं और जब वे शरीर से अलग कर दिए गए  तो उनसे ‘हैलो, हाय’ कहती हुई तंज से बात करती हैं कि देखो मैंने तुम्हें कैसी पछाड़ दी और तुम्हें खुदवा कर, उन्नत से नत, क्षत-विक्षत कर दिया! ‘अंतत: मैंने तुमसे छुट्टी पा ली ‘–इस पंक्ति  तक आते आते कवयित्री की इन ममता के स्रोतों के प्रति वो गर्वोक्ति / दम्भोक्ति छूमंतर हो गई जो पहली दो पंक्तियों में उन्होंने जताने की कोशिश  की थी– ‘दूध की नदियाँ बहा दी मैंने, दूध पिलाया मैंने’ आदि आदि ! जिन्होंने ‘प्राणतत्व’ दुग्ध की नदियाँ बहाई, ज़ाहिर हैं नन्हे शिशुओं को जीवनदान दिया, उनकी भूख तृप्त की – अब उन  ममता के स्रोतों के लिए कोई कृतज्ञता  नहीं, उन्हें खोदने का कोई गम नहीं, पीड़ा नहीं, जो नारी के  सत्रीत्व और ममता का प्रतीक माने गए हैं, उन्हें वे कुछ पंक्तियों में ‘आफत और बला’ के रूप में देखती हैं; वे  जो ‘दस वर्ष की उम्र से उनके पीछे पड़े थे’ / जिनकी वजह से दूभर हुआ सड़क पर चलना...’ ये कैसी  कुत्सित भाव उकसाने वाली अभिव्यक्तियाँ हैं? ये तो  पाठक के दिमाग में जान-बूझकर कामुक बिम्बों को उभारना हुआ! फिर लिखती है ‘बुलबुले अच्छा हुआ फूटे’!  बुलबुले फोड़ने के बजाय यदि  वे चुहिया के मरने, निर्जीव होने की बात पर कलम अधिक  केंद्रित  करतीं– तब तो कैंसर से मुक्ति  पाने की बात पाठक तक  पहुँच सकती थी! पर वे तो पवनकरण जी की  तरह ही, उन्नत पहाड़ों पर शुरू से आखिर तक दृष्टि गड़ाए हुए हैं, उन्हीं से उनका तल्ख़ और तुर्श संवाद चल  रहा है! कभी उन्हें पहाड़ तो, कभी धराशायी खुदे- फुदे पहाड़, तो कभी बुलबुले बना रही हैं! इतना ही नहीं, अंत तक पहुँचते-पहुँचते वे ‘ब्लाउज में छिपे तकलीफों के हीरे' बन जाते हैं, तकलीफ अनामिका जी को कैंसर से होनी चाहिए थी न कि  वक्षस्थल से! कोसना ही था तो तरह -तरह से वक्षस्थल को कोसने के बजाए, रोग को कोसना चाहिए था!  इस हीरे की परिकल्पना ने मुझे चौंकाया कि– यह नवीन इतना कीमती आरोपण किसलिए! शीघ्र ही आगे  की पंक्तियों से खुलासा हुआ– कि स्मगलर और हीरे के माध्यम से स्तनों को हीरा ज़रूर कहा गया लेकिन ‘अवैध हीरे’ जिन्हें रखना खतरे से खाली नहीं, जो अवैध व्यापार द्वारा हासिल किए जाते हैं! अब आप ही सोचिए यह क्रिमिनल टाइप की उपमा– शरीर  में सहज रूप से विकसित ‘ममता के, स्त्रीत्व के प्रतीक’ के लिए शोभनीय है? वे जो शिशु और माँ के बीच प्रगाढ़ रिश्ते का आधार होते हैं, जीवन स्रोत होते हैं– ‘दूध का क़र्ज़ चुकाना है, माँ के दूध की कसम,  माँ का दूध पिया है तो सामने आ (ताकत और चुनौती का प्रतीक)  इन उक्तियों  के उत्स हैं, उन्हें ये इस तरह हिकारत की नज़रों से देख रही हैं कि जैसे वे सच में स्मगल्ड हों! जिन्हें वे इतने वर्षों तक धरोहर  की तरह सहेजती रहीं! लेकिन कैंसर लगे चमक खो देनेवाले हीरों को तो  ‘स्मगलर डान’ भी नहीं लेगा– जिसकी वो अमानत थे! वो इनसे लगे हाथ अगर यह पूछ ले कि इन्हें कैंसर कैसे लगा, इन  हीरों  की चमक कहाँ उड़ा दी गई?  सम्हाल कर नहीं रखा गया इस धरोहर को, तब क्या  होता? अनामिका जी नारी होकर इतनी संवेदनाहीन करुणाविहीन कविता ‘ब्रेस्ट कैंसर जैसे गंभीर विषय पर कैसे लिख सकीं, मैं तो यह सोचकर हैरत में हूँ! उनकी कविता में न तो कैंसर के प्रति क्षोभ, न रोगग्रस्त अंग के प्रति  ममता,  अपनेपन का भाव, कैसर द्वारा उसे छीन लिए जाने पर, न अवसाद, न  निराशा, उलटे उत्सव का भाव, हँसी, ठिठोली है! समूची कविता में नज़र आती है तो पुरुषवादी मांसल नज़र,  स्थूल दृष्टि , वैसी ही शब्दावलि, अंत की पंक्ति  में वे कहती हैं- मेरी स्मृतियाँ‘ वे किन स्मृतियों की बात कर रही हैं– जो दस वर्ष की उम्र से उनके ज़ेहन में उरोजों के साथ –साथ उभरी थीं और तब से वे उनसे पीछा छुडाने को आतुर थीं, सिस्टम से बाहर करने को बेचैन थीं? क्योंकि विकसित होने पर उरोज स्मगल्ड हीरे बन गए थे जिन्हें छुपाना  मुश्किल हो रहा था– कितनी बेतुकी उपमा है यह! दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया- इससे कवयित्री  का क्या तात्पर्य  है? इसका ज़रा खुलासा करें वें !  ममता की स्मृतियों को दूध पिलाया कहा होता; तो एकबारगी बात गले उतरती, एक सलोना सुंदर बिंब भी बनकर आता! इसी तरह दूध की नदियाँ बहा दी...यह भी बड़ी उग्रवादी सी अभिव्यक्ति लगी!  जैसे दुश्मन का सर, हाथ-पैर काटकर कोई खून की नदियाँ बहा दे और फिर गर्व से कहे कि मैंने दुनिया के लिए खून की नदियाँ बहा दीं और सबका भला  किया! इस तरह की उक्तियाँ-अभिव्यक्तियाँ तो वीर रस, रौद्र रस  की कविताओं में शोभा देती हैं  लेकिन वक्ष स्थल से दूध की नदियाँ  बहा दीं– इससे एक विचित्र  सा विरोधी बिम्ब बनता है बल्कि बनता भी नहीं, बनते-बनते पीछे लौट जाता है!
 
           ऐसा है कि कविता जब उचित बिंब न बना सके, भावों को न जगा सके, सकारात्मक  सोच स्पंदित न कर सके, शीर्षक के साथ तालमेल में न हो– ‘ब्रेस्ट कैंसर इन दो शब्दों में से ब्रेस्ट के ही ऊपर अधिक नज़र हो,  कैंसर के ऊपर नाम मात्र की पंक्तियाँ हों– रोगी के अवसाद, दुःख, कष्ट, पीड़ा की तस्वीर दिल में  न बना सके, तो  वह कविता नही अपितु अनर्गल, अर्थहीन प्रलाप होता है! पवनकरण और अनामिका जी  की कविताएँ इसी श्रेणी  में आती हैं! 

              पवन करण और अनामिका जी की  एक गंभीर विषय पर ऎसी उथली, छिछली और भोंडी कविताओं को पढ़कर मेरा दिल अवसाद और चिंता से भर गया कि यह कैंसर रोग अब शीघ्र ही साहित्य को लगने वाला है और साहित्य में भी इसने सबसे पहले कविता-कामिनी को बेदर्दी से धर दबोचा है! साहित्य के महावैद्यों से अपील है कि वे अविलंब कविता में लगने वाले इन जालों की रोक-थाम के उपाय करें;  वरना  धीरे-धीरे यह कैंसर रोग कविता से होता हुआ सम्पूर्ण साहित्य में लग जाएगा! 

-दीप्ति  गुप्ता,  मोबाइल : ९८९०६ ३३५८२


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