चित्र पर कविता: ६
पद-चिन्ह
इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से
बढ़कर एक रचनाएँ अब तक प्रकाशित चित्रों में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य के विविध अयामोमं को हम तक तक पहुँचाने
में सफल रहीं. संभवतः हममें से कोई भी किसी चित्र के उतने पहलुओं पर नहीं लिख पाता जितने पहलुओं पर हमने रचनाएँ पढ़ीं.
चित्र और कविता की प्रथम कड़ी में शेर-शेरनी संवाद, कड़ी २ में पर्थ दही मिर्च-कॉफी, कड़ी ३ में दिल -दौलत, चित्र ४ में रमणीक प्राकृतिक दृश्य, चित्र ५ हिरनी की बिल्ली शिशु पर ममता के पश्चात चित्र ६ में देखिये एक नया चित्र और रच दीजिये एक अनमोल कविता.
मुक्तिका :
छोड़ दो पद चिन्ह
संजीव 'सलिल'
*
छोड़ दो पद चिन्ह अपने, रास्ते बन जायेंगे।
लक्ष्य खुद ही कोशिशों के, गीत गा तर जायेंगे।।
*
मुश्किलों का क्या है? आयीं आज, कल मिट जायेंगी।
स्वेद, श्रम, तकनीक के ध्वज, गगन में फहरायेंगे।
*
परख कर हमको कसौटी, सराहेगी भाग्य निज।
हैं खरे सोने, परीक्षाओं से क्यों घबरायेंगे?
*
हौसलों की कसम हमको, फासलों को जीतकर-
हासिलों के हाशिये पर, फासले कर जायेंगे।
*
पाँव के छाले न काँटों से, मिलेंगे ईद गर-
किस तरह ईदी सफलता की, 'सलिल' घर लायेंगे?
*
***********
2.
:) मंजु महिमा भटनागर
---मंजु महिमा
- manjumahimab8@gmail.com सम्पर्क-+91 9925220177
******
चित्र ६ पर कविता
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in>
आ० आचार्य जी द्वारा प्रस्तुत चित्र छः पर कविता -
पद-चिन्ह
ढूंढता हूँ पद-चिन्ह वे
कदम की छैंया तले
यमुना किनारे
शरद-पूर्णिमा की
महारास लीला में
पड़े थे जो तुम्हारे
वे पदचिन्ह जो
कुरुक्षेत्र के महाभारत में
रथ छोड़ भूमि पर
घुटने टेके पार्थ को
तुमने खड़े खड़े
गीता में उतारे
वे पदचिन्ह जो
ग्राह-ग्रस्त गज की
रक्षा के लिये
सुदर्शन-चक्र ले कर दौड़े
बनाए तुमने
जलाशय के किनारे
वे चरण-चिन्ह जो
क्षत-विक्षत मरणासन्न
जटायू की पीड़ा-हरण को
उसे उठाने में
ह्रदय से लगाने में
वन-भूमि पर पड़े थे
वे पद-चिन्ह जो
शबरी के जूठे बेर खाने
उसके आँगन में जाने पर अड़े थे
वे पद-चिन्ह जो
अंगद ने
रावण के दरबार में
ललकार कर जड़े थे
वे पद-चिन्ह जो
ध्रतराष्ट्र की द्यूत-सभा में
पांचाली के चीर-हरण पर
उसके स्मरण पर
दुःशासन के दस हज़ार गज-बल को
पराजित करने हेतु
अदृश्य रह धरे थे
ढूँढ़ता हूँ कि
आज भी कुशासन दुःशासन का
जनता का चीर-हरण कर रहा
भ्रष्टाचारी शासन प्रशासन
स्वार्थी सत्ता-सिंहासन
अन्याय का वरण कर रहा
धर्म की ग्लानि का पारा चढ़ रहा
" तदात्मानं सृजाम्यहम "
का आश्वासन कहाँ अटक रहा
ढूंढ़ता हूँ
वे श्यामल गौर चरण-चिन्ह
कब किस वेष में
पड़ेंगे इस देश में
तुम्हारी प्रतिछाया की
वही गन्ध ढूँढ़ता हूँ
*
*
प्रणव भारती
दोराहे से चौराहे तक, कितने नन्हे, लंबे पाँव ,
दीप्ति गुप्ता
नन्हे डग, लंबी डगर,
deepti gupta ✆ drdeepti25@yahoo.co.in
पद-चिन्ह
चित्र और कविता की प्रथम कड़ी में शेर-शेरनी संवाद, कड़ी २ में पर्थ दही मिर्च-कॉफी, कड़ी ३ में दिल -दौलत, चित्र ४ में रमणीक प्राकृतिक दृश्य, चित्र ५ हिरनी की बिल्ली शिशु पर ममता के पश्चात चित्र ६ में देखिये एक नया चित्र और रच दीजिये एक अनमोल कविता.
मुक्तिका :
छोड़ दो पद चिन्ह
संजीव 'सलिल'
*
छोड़ दो पद चिन्ह अपने, रास्ते बन जायेंगे।
लक्ष्य खुद ही कोशिशों के, गीत गा तर जायेंगे।।
*
मुश्किलों का क्या है? आयीं आज, कल मिट जायेंगी।
स्वेद, श्रम, तकनीक के ध्वज, गगन में फहरायेंगे।
*
परख कर हमको कसौटी, सराहेगी भाग्य निज।
हैं खरे सोने, परीक्षाओं से क्यों घबरायेंगे?
*
हौसलों की कसम हमको, फासलों को जीतकर-
हासिलों के हाशिये पर, फासले कर जायेंगे।
*
पाँव के छाले न काँटों से, मिलेंगे ईद गर-
किस तरह ईदी सफलता की, 'सलिल' घर लायेंगे?
*
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2.
:) मंजु महिमा भटनागर
सिलसिले कदमों के कुछ इस तरह चलते रहें,
बढ़ते रहे चरण निरंतर ,पीछे निशां बनाते रहें ||
...........
'तुलसी क्यारे सी हिन्दी को,
हर आँगन में रोपना है.
यह वह पौधा है जिसे हमें,
नई पीढ़ी को सौंपना है. '
******
चित्र ६ पर कविता
इंदिरा प्रताप
एक तपस्वी छोड़ सुखों के राजमहल को ,
चला गया था दूर कहीं एकाकी वन में ,
गहन अँधेरे |
धर्म दृष्टि से जो आलोकित ,
चरण अकेले ही बढ़ते हैं |
जो चलते हैं राह धर्म की ,
पीछे कभी नहीं मुड़ते हैं |
चमक रहे ये चिह्न अकेले,
शून्य धरा पर |
मुझे लगा ये बोल रहे हैं ,
शून्यवाद की करके व्याक्खा
कानों में अमृत घोल रहे हैं |
कहते है ये चरण चिह्न अब ,
बुद्धं शरणम् गच्छामि,
संघं शरणम् गच्छामि,
धर्मं शरणम् गच्छामि |
*Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in>
Always say thanks to GOD because he knows our needs better than us before we say.......
*
| ||||
पद-चिन्ह
ढूंढता हूँ पद-चिन्ह वे
कदम की छैंया तले
यमुना किनारे
शरद-पूर्णिमा की
महारास लीला में
पड़े थे जो तुम्हारे
वे पदचिन्ह जो
कुरुक्षेत्र के महाभारत में
रथ छोड़ भूमि पर
घुटने टेके पार्थ को
तुमने खड़े खड़े
गीता में उतारे
वे पदचिन्ह जो
ग्राह-ग्रस्त गज की
रक्षा के लिये
सुदर्शन-चक्र ले कर दौड़े
बनाए तुमने
जलाशय के किनारे
वे चरण-चिन्ह जो
क्षत-विक्षत मरणासन्न
जटायू की पीड़ा-हरण को
उसे उठाने में
ह्रदय से लगाने में
वन-भूमि पर पड़े थे
वे पद-चिन्ह जो
शबरी के जूठे बेर खाने
उसके आँगन में जाने पर अड़े थे
वे पद-चिन्ह जो
अंगद ने
रावण के दरबार में
ललकार कर जड़े थे
वे पद-चिन्ह जो
ध्रतराष्ट्र की द्यूत-सभा में
पांचाली के चीर-हरण पर
उसके स्मरण पर
दुःशासन के दस हज़ार गज-बल को
पराजित करने हेतु
अदृश्य रह धरे थे
ढूँढ़ता हूँ कि
आज भी कुशासन दुःशासन का
जनता का चीर-हरण कर रहा
भ्रष्टाचारी शासन प्रशासन
स्वार्थी सत्ता-सिंहासन
अन्याय का वरण कर रहा
धर्म की ग्लानि का पारा चढ़ रहा
" तदात्मानं सृजाम्यहम "
का आश्वासन कहाँ अटक रहा
ढूंढ़ता हूँ
वे श्यामल गौर चरण-चिन्ह
कब किस वेष में
पड़ेंगे इस देश में
तुम्हारी प्रतिछाया की
वही गन्ध ढूँढ़ता हूँ
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com
**
इंदिरा प्रताप |
एक तपस्वी
छोड़ सुखों के राजमहल को,
चला गया था
दूर कहीं एकाकी वन में,
गहन अँधेरे|
धर्म दृष्टि से जो आलोकित,
चरण अकेले ही बढ़ते हैं|
जो चलते हैं राह धर्म की,
पीछे कभी नहीं मुड़ते हैं|
चमक रहे ये चिह्न अकेले,
शून्य धरा पर|
मुझे लगा ये बोल रहे हैं,
शून्यवाद की करके व्याख्या
कानों में अमृत घोल रहे हैं|
कहते है ये चरण चिह्न अब,
बुद्धं शरणम् गच्छामि,
संघं शरणम् गच्छामि,
धर्मं शरणम् गच्छामि|
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in> Always say thanks to GOD because he knows our needs better than us before we say....... |
प्रणव भारती
दोराहे से चौराहे तक, कितने नन्हे, लंबे पाँव ,
कभी धूप में, कभी छाँव में सदा ही चलते पाँव|
थककर न बैठे हैं, न बैठेंगे कभी ये पाँव,
जीवन है, चलना ही होगा, यही जानते पाँव|
धूप घनी हो या हो छाया या फिर हों एकाकी,
थकना नहीं रास आएगा, चाहे मन बैरागी|
नहीं अमीरी,नहीं गरीबी से बंधते ये पाँव,
जाति-धर्म को नहीं जानते, हों या न हों त्यागी|
आसमान को छूने की कोशिश करते ये पाँव,
कभी थमककर पल भर को, खोजा करते ठाँव|
कौन, कहाँ, कैसे पहुंचेगा, सोचा करते पाँव,
जीवनभर चलना है इनसे, मन-मन भर के पाँव|
आदम-हव्वा से चलते आये हैं ये ही पाँव,
मिले विरासत में हम सबको हल्के-भारी पाँव|
सोच-समझकर रखने में ही सदा भलाई रहती,
चलो, सभी मिलकर ढूढेंगे ,किस जमीन के पाँव||
*
प्राण शर्मा
चल के अकेला इस दुनिया में करना सब कुछ हासिल साहिब
मैं ही जानूँ कितना ज़्यादा होता है ये मुश्किल साहिब
मोह नहीं जीवन का तुझको मान लिया है मैंने लेकिन
दरिया में हर डूबने वाला चिल्लाता है साहिल साहिब
कुछ तो कर महसूस खुशी को कुछ तो कर महसूस तसल्ली
कुछ तो आये मुख पे रौनक कुछ तो हो दिल झिलमिल साहिब
सब की बातें सुनने वाले अपने दिल की बात कभी सुन
तेरी खैर मनाने वाला तेरा अपना है दिल साहिब
तेरे - मेरे रिश्ते - नाते ` प्राण ` भला क्यों सारे टूटें
माना , तू मेरे नाक़ाबिल मैं तेरे नाक़ाबिल साहिब
- prans69@gmail.com
*
दीप्ति गुप्ता
नन्हे डग, लंबी डगर,
एक कदम रखो
तुम
एक कदम रखे हम
हँसते-हँसाते कट जाए
ज़िंदगी का ये सफर
*
41 टिप्पणियां:
- binu.bhatnagar@gmail.com
अति सुन्दर प्रेरणा देने वाली कविता
कवि के कथन में कविता सजीव नज़र आती है संजीव की कविता अखिल लोक के लिए संजिवनी है
- sosimadhu@gmail.com
वाह मंजु!
थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कह डाला
मधु
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ गढ़ी हैं, मंजु जी !
क्षमा मंगाते हुए एक जगह नन्हा सा संशोधन करने का दुस्साहस किया है ! ......... बनते रहे
आप पर सराहना की बरसात...
सस्नेह,
दीप्ति
- manjumahimab8@gmail.com
धन्यवाद दीप्ति जी वर्तनी ठीक करने के लिए , अक्सर टंकण में ऐसा हो जाता है. कृपया क्षमा मांग कर मुझे शर्मिंदा न करें. आपका पूरा हक़ बनता है....
sosimadhu@gmail.com yahoogroups.com
- sosimadhu@gmail.com
प्रेरिक करतीं पंक्तिया तथा ईद व इदी का मिलना विशेष सुन्दर लगा . नमन
मधु
drdeepti25@yahoo.co.inyahoogroups.com
अनुपम सृजन संजीव जी !
ढेर साधुवाद !
सादर,
दीप्ति
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
आ० इंदिरा जी,
प्रतीकात्मक और सशक्त कविता के लिये साधुवाद !
आपकी सहज कल्पना को नमन |
सादर
कमल
Indira Pratap ✆ yahoogroups.com
kavyadhara
अदभुद,,कमल दादा ,प्रशंसा के लिए शब्द ढूंढे नहीं मिल रहे हैं | आप लोग जिस रसमय धरातल पर ले आते हैं उससे निकलने का मन नहीं करता | संजो कर रखनें वाली कविता | अभी तो बस बार बार पढ़ लेने दीजिए |,स्नेह वंदन स्वीकार कीजिए | इन्दिरा
vijay ✆ vijay2@comcast.net द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
आ० इन्दिरा जी,
बहुत सुन्दर भाव हैं ।
मुझे लगा ये बोल रहे हैं ,
शून्यवाद की करके व्याक्खा
कानों में अमृत घोल रहे हैं |
बधाई ।
विजय
santosh.bhauwala@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
आदरणीय इंदिरा जी, बहुत सुंदर ब्याख्या और उसमे तड़का लगा.. दीप्ती जी आपकी डगर का .......
यूं ही कट जायेगा सफ़र साथ चलने से
कि मंजिल आएगी नजर साथ चलने से
संतोष भाऊवाला
- sosimadhu@gmail.com
आ. इंदिरा जी
"चला गया एक तपस्वी "
और आपने उनके पदचिह्नों को बोलते सुना , हमें भी सुनाया , अभूतपूर्व रचना ।
अभिवंदन आपकी प्रतिभा को
मधु
drdeepti25@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
अनुपम, निरुपम , अत्युत्तम .........!!! =D> applause =D> applause =D> applause
सस्नेह,
दीप्ति
drdeepti25@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
बहुत खूब !
मैं ही जानूँ कितना ज़्यादा
होता है ये मुश्किल साहिब ....
दर्द से, झंझावातों से भरा सच
ढेर सराहना के साथ ,
सादर,
दीप्ति
- binu.bhatnagar@gmail.com
wow
vijay ✆ vijay2@comcast.net द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
आ० प्रणव जी,
सदैव समान अच्छी लगी है यह कविता ।
विजय
vijay ✆ vijay2@comcast.net द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
आ० कमल जी,
बहुत आनन्द आया यह कविता पढ़ कर ।
वे पद-चिन्ह जो
शबरी के जूठे बेर खाने
उसके आँगन में जाने पर अड़े थे
साधुवाद !
विजय
pranavabharti@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
आ. दादा,
बहुत बहुत आदर के साथ आपका अभिनन्दन|
लौकिक से अलौकिक यात्रा का सुंदर चित्रण|
आप तो कुछ नहीं छोड़ते दादा........
हर विषय पर आपकी लेखनी सुंदर चित्र प्रस्तुत करती है|
बहुत सुंदर रचना !
सादर
प्रणव भारती
- sosimadhu@gmail.com
बहुत बहुत सुन्दर रचना पद चिन्हों के द्वारा आपने महापुरुषों के दर्शन करा दिये और हमें इन्तजार हैं वैसे पद चिन्हों का जो भारत भूमि पर पड़ें । और उबार ले । सशक्त रचना। चेतना को खँगालने वाली रचना को एनेको एनेक नमन ।
मधु
- manjumahimab8@gmail.com
अप्रतिम रचना दादा! रामायण-काल से महाभारत-काल और इनको जोड़ा है आपने बहुत ही चतुराई से वर्तमानकाल से...अद्भुत रचना...अभिनन्दन...
" तदात्मानं सृजाम्यहम "
का आश्वासन कहाँ अटक रहा ????????????????????
सादर
मंजु
- kiran5690472@yahoo.co.in
आ. कमल जी,
जितनी सुन्दर रचना है उतने ही सुन्दर भाव..
निम्न पंक्तियों ने लंबे समय तक सोचने के लिए मजबूर किया:
धर्म की ग्लानि का पारा चढ़ रहा
" तदात्मानं सृजाम्यहम "
का आश्वासन कहाँ अटक रहा
और यहाँ आ कर कुछ आशा जाग जाती है कि प्रभु फिर प्रकट होंगें :
santosh.bhauwala@gmail.com द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
आदरणीय भैया कमल जी ,
मै नमन करती हूँ उन पद चिन्हों को
जो साहित्य के मंच पर है सतत कार्यरत
काव्यकौशल से स्नेह के कमल खिला रहे
अमिट छाप हम सभी के दिलों में छोड़ रहे
सादर
संतोष भाऊवाला
Pranava Bharti ✆ yahoogroups.com kavyadhara
अति सुंदर भाव प्रधान रचना!
बधाई स्वीकार करें |
प्रणव भारती
deepti gupta ✆ द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
बहुत सुन्दर संतोष जी !
ढेर सराहना के साथ,
दीप्ति
- sosimadhu@gmail.com
चित्र एक उद्वेलनायें एनेक, संतोष जी आपने कदमों के निशान में भगवान के दर्शन करा दिये। प्रशंसा स्वीकार करें
मधु
- manjumahimab8@gmail.com
भगवान और भक्त के संबंधों को बड़ी खूबसूरती से पिरोया है अपने..बधाई.
सस्नेह
मंजु
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
प्रिय संतोष , और बीनू जी,
आप दोनों की ही पग-चिन्हों पर रचनाएं लाजवाब है |
ढेर सराहना के साथ ,
कमल
sn Sharma ✆ द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
आ० बीनू जी,
"ये पदचिन्ह " सचमुच श्रद्धा के पात्र हैं | इन्हें मेरा नमन |
कमल
vijay ✆ द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
आ० बीनू जी,
मार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए सादुवाद !
विजय
vijay ✆ द्वारा yahoogroups.com
kavyadhara
आ० संतोष जी,
वत्स,मै था साथ हरदम तेरे
वो क़दमों के निशाँ है मेरे
हर पल साथ था तुम्हारे मै
तुम्हे गोद में लिये चल रहा था मै
बहुत अच्छे ।
विजय
Santosh Bhauwala ✆ द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
आदरणीय ,
प्रणव जी ,दीप्ती जी ,मधु जी ,मंजू जी ,बीनू जी ,भैया कमल जी ,विजय जी
आप सभी ने रचना पसंद की, उसके लिये बहुत बहुत आभारी हूँ सधन्यवाद!!
संतोष भाऊवाला
- manjumahimab8@gmail.com
बड़ी ही सुंदर अभिव्यक्ति है बीनू जी,...
दुल्हन के पदचिह्नों की.......मुबारक हो..
तुलसीदास जी की पंक्तियाँ याद आ रही हैं---
जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तिन तैसी ....
सस्नेह
मंजु महिमा.
Pranava Bharti ✆ द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
वाह !बीनू जी ,
बहुत कोमल-सुकोमल भावना !
कोमल रिश्ता बंधा रहे,सुखमय हो संसार,
दुल्हिन सबका मन हरे,बजें नौबतें द्वार ||
सस्नेह एवं शुभकामनाओं सहित
प्रणव भारती
drdeepti25@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
बहुत खूब बीनू जी !
ढेर सराहना !
क्या बात... क्या बात... क्या बात.
वत्स मैं था साथ तेरे...
कदमों में भविष्य की झलक पानेवाली परखी नजर को सलाम...
अच्छी रचना. बधाई.
Pranava Bharti ✆ द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
आ. विजय जी,
आपको रचना पसंद आयी|
मैं तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ|
सादर
प्रणव भारती
Pranava Bharti ✆ द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
आ. प्राण शर्मा जी ,
बहुत सुंदर रचना |ढेर सी बधाई स्वीकार करें|
एक अकेले चलना होता ,जीवन की है रीत,
क्षण भर का ही साथ यहाँ पर ,पल भर की ही प्रीत|
सादर
प्रणव
- manjumahimab8@gmail.com
बेहद खूबसूरत गज़ल है..भेजते रही..ऐसे ही नई-नई...
मंजु
- manjumahimab8@gmail.com
क्या बात है..प्रणव ,
आपने तो पाँव का गाँव खड़ा कर दिया :)
बहुत खूबसूरती से आपने आदम-हव्वा के पाँव तक हमें पहुँचा दिया है..अब ज़मीन के पाँव कैसे ढूँढें? यह भी बता दीजिए..:) :) मज़ाक ...
दार्शनिक अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद....
सस्नेह
मंजु
drdeepti25@yahoo.co.in द्वारा yahoogroups.com kavyadhara
मरहबा, मरहबा, मरहबा !!
ढेर दाद कुबूलें !
सादर,
दीप्ति
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