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मंगलवार, 31 जुलाई 2012

लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश : संजीव 'सलिल'

लोकभाषा-काव्य में श्री गणेश :



संजीव 'सलिल'
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पारंपरिक ब्याहुलों (विवाह गीत) से दोहा : संकलित

पूरब की पारबती, पच्छिम के जय गनेस.
दक्खिन के षडानन, उत्तर के जय महेस..

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बुन्देली पारंपरिक तर्ज:



मँड़वा भीतर लगी अथाई के बोल मेरे भाई.

रिद्धि-सिद्धि ने मेंदी रचाई के बोल मेरे भाई.

बैठे गनेश जी सूरत सुहाई के बोल मेरे भाई.

ब्याव लाओ बहुएँ कहें मताई के बोल मेरे भाई.

दुलहन दुलहां खों देख सरमाई के बोल मेरे भाई.

'सलिल' झूमकर गम्मत गाई के बोल मेरे भाई.

नेह नर्मदा झूम नहाई के बोल मेरे भाई.
*

अवधी मुक्तक:



गणपति कै जनम भवा जबहीं, अमरावति सूनि परी तबहीं.

सुर-सिद्ध कैलास सुवास करें, अनुराग-उछाह भरे सबहीं..

गौर की गोद मा लाल लगैं, जनु मोती 'सलिल' उर मा बसही.

जग-छेम नरमदा-'सलिल' बहा, कछु सेस असेस न जात कही..

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Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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