कविता:
पराकाष्ठा
-- विजय निकोर
उपयुक्त उपहार।
और न सुनो मेरी पुकार तो क्या??
कुछ पता नहीं,
----------
पराकाष्ठा
-- विजय निकोर
लगता है मुझको कि जन्म-जन्मान्तर से तुम
मेरे जीवन की दिव्य आद्यन्त ‘खोज’ रही हो,
अथवा, शायद तुमको भी लगता हो कि अपनी
सांसों के तारों में कहीं तुम मुझको खोज रही हो।
कि जैसे कोई विशाल महासागर के तट पर
बिता दे अपनी सारी स्वर्णिम अवधि आजीवन,
करता अनायास, असफ़ल प्रांजल प्रयास,
कि जाने कब किस दिन कोई सुन ले वहाँ
विद्रोही मन की करुण पुकार दूर उस पार।
अनन्त अनिश्चितता के झंझावात में भी
मख़मल-से मेरे खयाल सोच में तुम्हारी
सौंप देते हैं मुझको इन लहरों की क्रीड़ा में
और मैं गोते खाता, हाथ-पैर मारता
कभी-कभी डूब भी जाता हूँ-
कि मैंने इस संसार की सांसारिकता में
खेलना नहीं सीखा, तैरना नहीं सीखा।
काश कि मेरे मन में न होता तुम्हारे लिए
स्नेह इतना, इस महासागर में है पानी जितना,
कड़क धूप, तूफ़ान, यह प्रलय-सी बारिश
सह लेता, मैं सब सह लेता, और
रहता मेरे स्नेह का तल सदैव समतल सागर-सा।
उछलती, मचलती, दीवानी लहरें मतवाली
गाती मृदुल गीत दूर उस छोर से मिलन का
पर मुझको तो दिखता नहीं है कुछ कहीं उस पार,
तुम .... तुम इतनी अदृश्य क्यों हो ?
तुम हो मेरे जीवन के उपसंहार में
मेरी कल्पना का, मेरी यंत्रणा का
इस जीवन में तुम मिलो न मिलो तो क्या?
जो न देखो मे्रा दुख-दर्द, न सुनो मेरी कसक
कुछ भी कहो, नहीं, नहीं, मैं नहीं मानूंगा हार,
कि तुम हो मेरे जन्म-जन्मांतर की साध,
कि मेरे अंतरमन में जलता है तुम्हारे लिए
केवल तुम्हारे लिए, दिव्य दीपक की लौ-सा,
मेरे जीवन के कंटकित बयाबानों के बीच
सांसों की माला में है पलता, हँसता अनुराग
केवल, केवल तुम्हारे लिए,
और जो कोई पूछे मुझसे कि कौन हो तुम?
या,क्या है कल्पनातीत महासागर के उस पार??
तो कह दूंगा सच कि इसका मुझको
क्योंकि मैं आज तक कभी उससे मिला नहीं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें