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शुक्रवार, 25 मार्च 2011

तैत्तरीय उपनिषद- काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति

 
तैत्तरीय उपनिषद- काव्यानुवाद : मृदुल कीर्ति  
ॐ श्री परमात्मने नमः

शांति पाठ

मम हेतु शुभ हों, इन्द्र, मित्र, वरुण, बृहस्पति, अर्यमा,
प्रत्यक्ष ब्रह्म हो, प्राण वायु देव, तुम, तुमको नमः।
प्रभो ग्रहण भाषण आचरण हो, सत्य का हमसे सदा,
ऋत रूप, ऋत के अधिष्ठाता, होवें हम रक्षित सदा।

 
 
प्रथम अनुवाक
मम हेतु शुभ हों, इन्द्र, मित्र, वरुण, बृहस्पति, अर्यमा,
प्रत्यक्ष ब्रह्म हो, प्राण वायु देव, तुम, तुमको नमः,
प्रभो! ग्रहण, भाषण, आचरण हो सत्य का हमसे सदा,
ऋत रूप, ऋत के अधिष्ठाता, होवें हम रक्षित सदा॥ [ १ ]

द्वितीय अनुवाक

ऋत भाषा की शिक्षा, विधा और व्याकरण का ज्ञान हो।
सब, वर्ण, स्वर, मात्राएँ, संधि, शुद्ध ज्ञान प्रधान हों।
वर्णों का समवृति उच्चरण हो, गान रीति महान हो,
अथ वेद उच्चारण की शिक्षा कथित, इसका ज्ञान हो॥ [ १ ]

तृतीय अनुवाक

यश ब्रह्म वर्चस वृद्धि हो, सह शिष्य और आचार्य की,
हम लोक ज्योति प्रजा विद्या, अध्यात्म पाँच प्रकार की।
अथ संहिता, महा संहिता, उपनिषद व्याख्या कथित है,
भू पूर्व द्यौ नभ संधि उत्तर, वायु संयोजक अथ रचित है॥ [ १ ]


अग्नि महे अति पूर्व रूप है,आदित्य उत्तर रूप है,
जल मेघ का अस्तित्व दोनों का ही संधि स्वरुप है।
विद्युत् है इनका संधि सेतु व् संधि संघानं महा,
यही ज्योति विषयक संहिता का तथ्य है जाता कहा॥ [ २ ]


गुरु वर्ण पहला पूर्व एवं शिष्य वर्ण है दूसरा,
दोनों के सामंजस्य से, विद्या प्रकाशित है परा।
यह ज्ञान ही यहॉं संधि है, अस्तित्व मय संधान है,
यही विद्या विषयक संहिता, उपनिषद कथित विधान है॥ [ ३ ]


अथ पूर्व माता रूप है और पिता उत्तर रूप है,
उन दोनों की ही संधि से, संतान लेती स्वरुप है।
इस संधि के कारण ही प्रजनन प्रजा का अस्तित्व है,
अथ प्रजा विषयक संहिता, उपनिषद कथयति तत्व है॥ [ ४ ]


नीचे का जबड़ा पूर्व व् ऊपर का उत्तर रूप है,
जब दोनों की हो संधि, तब ही बनता वाक् स्वरुप है।
वाणी ही ब्रह्म स्वरुप है, वाणी विलक्षण शक्ति है,
अथ आत्म विषयक तथ्य की, उपनिषद में अभिव्यक्ति है॥ [ ५ ]


पाँचों महा यह संहिताएँ, उपनिषद में कथित हैं,
जो जानता जीवन उसे, श्री शान्ति मय सुख सहित है।
संतान, पशुधन, ब्रह्म वर्चस, अन्य भोग व् अन्न से,
परिपूर्ण जीवन, पूर्ण श्री एश्वर्य होवें प्रसन्न से॥ [ ६ ]


चतुर्थ अनुवाक

ओंकार वेदों से निःसृत अति श्रेष्ठ अमृत सिद्ध है,
संपन्न मेघा से करे , प्रभु, इन्द्र नाम प्रसिद्ध है।
मृदु भाषी स्वस्थ शरीर हो, कल्याण मय वाणी सुनूँ,
शुभ श्रुतम की स्मृति रहे, सब भाँति कल्याणी बनूँ॥ [ १ ]


मेरे लिए गौएं व् खाद्य पदार्थ, सुख साधन रहे,
बहु वस्त्र , आभूषण, विविध पशु, श्री व् संवर्धन रहे।
हे! अधिष्ठाता अग्नि के परमेश प्रभु सर्वज्ञ से,
श्री संपदा सुख ऋद्धि को, आहुति समर्पित यज्ञ से॥ [ २ ]


सब ब्रह्मचारी कपट शून्य व् हों पिपासु ज्ञान को,
मन दमन की सामर्थ्य समझें, शमन के भी विधान को।
इस लक्ष्य से आहुति, हे प्रभुवर ! स्वाहा की स्वीकार हो,
स्वीकार, अंगीकार हो तो ब्रह्म एकाकार हो॥ [ ३ ]


मम कीर्ति सौरभ हे प्रभो! सर्वत्र व्यापे समष्टि में,
धनवानों से धनवान अति मैं, बनूँ सबकी दृष्टि में।
अब तुझमें मैं और मुझमें तू, होवें समाहित हे प्रभो!
इस लक्ष्य से यह आहुतियों, स्वीकार करना हे विभो! [ ४ ]


यथा जल नदियों के अंत में, करते जलधि प्रवेश हैं,
यथा काले मास संवत्सर, समय के गर्भ करते निवेश हैं।
वैसे ही सब ब्रह्म चारी , स्वस्ति शुभ उपदेश को
अथ ग्रहण कर दैदीप्य हों, वही पाये ब्रह्म महेश को॥ [ ५ ]

पंचम अनुवाक

ॐ भूः, भुर्वः, स्वः, तीन चौथी महः व्याहृतियों यथा,
इसे महाचमस के पुत्र ने, अति प्रथम जाना यह कथा।
वह चौथी व्याहृति ब्रह्म भू व् भुवः स्वः की आत्मा,
यह सूर्य जिससे जग प्रकाशित करता है परमात्मा॥ [ १ ]


भूः अग्नि व्याहृति, भुवः वायु और स्वः आदित्य है,
यह चन्द्रमा जो मन का देव है ज्योति देता सत्य है।
ऋग्वेद भूः व् भुवः साम व् यजुः स्वः महः ब्रह्म है,
परमेश प्रभु का तत्व तात्विक , वेदों से ही गम्य है॥ [ २ ]


भूः प्राण व्याहृति, भुवः अपान व् स्वः व्याहृति व्यान है,
महः अन्न, अथ इस अन्न से ही प्राण होते प्राण हैं।
इन चारों व्याहृतियों की सोलह व्याहृति व् भेद है,
इन्हें तत्व से जो जानता उसे देव देते भेंट हैं॥ [ ३ ]

षष्ठ अनुवाक

इस हृदय के अन्तर अनंतर जो भी यह आकाश है,
वह ज्योतिरूप विशुद्ध प्रभु परमेश का ही प्रकाश है.
उसमें विशुद्ध प्रकाश रूपी, ब्रह्म अविनाशी रहे,
वह मनोमय महिमा महिम है,अमित अविनाशी अहे॥ [ १ ]


दो तालुओं के मध्य में जो कंठ है , स्थित वहॉं,
पर ब्रह्मरंध्र व् सर कपालों के मध्य से निःसृत जहों
नाड़ी सुषुम्ना मूल ब्रह्मा का, अंत काले प्राणी को ,
अग्नि वायु सूर्य में , फ़िर ब्रह्म गति कल्याणी को॥ [ २ ]


जो ब्रह्म में स्थित प्रतिष्ठित, बनता स्वामी स्वयं का,
फ़िर तो अहंता मुक्त हो, बन जाता शासक अहम का .
वह मन के स्वामी ब्रह्म का, ज्ञाता विजेता बन सके,
मन वाणी, चक्षु, श्रोत्र, इन्द्रियों का भी ज्ञाता बन सके॥ [ ३ ]


उस ब्रह्म का आकाश के सम , बृहद व्यापी शरीर है,
एक मात्र सत्ता मय तथापि , सूक्ष्म अति अशरीर है.
सब इन्द्रियाँ उस शान्ति निधि में , शान्ति पाती हैं जहाँ,
हे ब्रह्म वेत्ता !अति पुरातन , अमृत गमय तू हो वहाँ॥ [ ४ ]

सप्तम अनुवाक

भू , द्यौ, दिशाएँ, अन्तरिक्षम और आवंतर दिशाएँ ,
नक्षत्र, अग्नि, वायु, रवि, शशि, व्योम, जल सब, दवाएँ.
अथ प्राण पाँचों इन्द्रियाँ सब और शरीरी धातु भी,
पांदाक्त हैं निश्चय जिन्हें, करे पूर्ण क्रम से साधु भी॥ [ १ ]

अष्टम अनुवाक

यही ॐ ब्रह्म है , ॐ विश्व है, ॐ अनुकृति सिद्ध है,
शुभ कर्म, अध्धयन यक्ष आदि में, ॐ रिद्धि प्रसिद्ध है.
कह ॐ ही ऋत्विक अध्वर्युः , मंत्र प्रतिगर का कहें.
वेदों के अध्ययन से प्रथम , ओंकार ही ब्राह्मण कहे.॥ [ १ ]

नवं अनुवाक

स्वाध्याय और वेदादि अध्ययन , मानवोचित धर्म भी ,
शम, दम, नियम, तप, अग्निहोत्र , कुटुंब प्रजनन कर्म भी.
धर्माचरण और सत्य भाषण , तप ही अतिशय श्रेष्ठ है,
मुनि तपोनित्य, पुरुशिष्टि सत्यम, "नाक" मत यही श्रेष्ठ है.॥ [ १ ]

दशम अनुवाक

संसार वृक्ष का मैं हूँ उच्छेदक , त्रिशंकु ने कहा,
अन्नोत्पादक शक्ति रवि सम , कीर्ति मम पर्वत महा .
मैं अमिय सम अतिशय हूँ पावन , ज्योति मय धन मूल हूँ,
है अमिय अभिसिंचित सुमेधा, ज्ञान स्रोत्र समूल हूँ॥ [ १ ]

एकादश अनुवाक
शिक्षित करें आचार्य स्व आश्रम निवासी शिष्य को,
दी सत्य वद, स्वाध्याय, धर्मं चर की शिक्षा समष्टि को.
तुम देव पितृ आचार्य , धर्म के पंथ पर चलना सदा,
तुम्हें वेदों के पड़ने पढाने में रूचि हो सर्वदा॥ [ १ ]

तुम्हें मातु - पितु , आचार्य अतिथि, देवो भव का भान हो ,
निर्दोष सात्विक आचरण और श्रेष्ठ कर्मों का ज्ञान हो,
उन सबके प्रति अति दान श्रद्धा, सेवा शुभ का विधान हो,
और दंभ हीन विनम्र शुभ निष्काम वृतियां प्रधान हों॥ [ २ ]

यदि हो कदाचित कोई दुविधा मार्ग में कर्तव्य के,
लो मार्ग दर्शन युक्ति विधि से, जो कुशल गंतव्य के.
यदि दोष से लांछित कोई तो उससे क्या व्यवहार हो,
निर्देश लो यदि कोई दुविधा , श्रेष्ठ जो आचार्य हो॥ [ ३ ]

द्वादश अनुवाक
विष्णु , बृहस्पति , वरुण, इन्द्र, व् अर्यमा शुभ हो हमें,
आध्यात्मिक , दैविक व् भौतिक, शक्तियां शुभ हों हमें .
हे वायु ! मम परमेश प्राणाधार, पुनि -पुनि नमन है,
प्रत्यक्ष ब्रह्म को ऋतं सत्यम अणु में सम्भव गमन है॥ [ १ ]

ब्रह्मानंद वल्ली / तैत्तिरीयोपनिषद / मृदुल कीर्ति

शान्ति पाठपरिपूर्ण प्रभु परमात्मन, गुरु शिष्य की एक साथ ही ,
दोनों की ही रक्षा करें , पालन करें ,एक साथ ही.
तुम दोनों की शिक्षा व् अध्ययन शुद्ध और विशेष हों,
सब द्वेष शेष हों, स्नेह सूत्र में, त्रिविध ताप निषेध हों.

प्रथम अनुवाक

ऋत ब्रह्म ज्ञानी प्राप्त कर लेता है उस परब्रह्म को,
सत्यस्वरूपी ज्ञान रूपी , अनादि ब्रह्म अगम्य को.
स्थित हृदय रूपी गुफा में, व्योम व्यापी तथापि है,
तत्वज्ञ से ज्ञातव्य महिमा, अन्य से न कदापि है॥ [ १ ]


अति -अति प्रथम परब्रह्म से , नभ तत्व अथ निःसृत हुआ,
उससे ही अग्नि, वायु, क्रमशः, जल पृथा आकृत हुआ.
फ़िर उससे औषधि, अन्न, मानव, अन्न रसमय मूल हैं,
पक्षी के सम मानव शरीरी, प्रत्यंग अंग समूल है॥ [ २ ]

द्वितीय अनुवाक

भू लोक वासी प्राणी सब, इस अन्न से ही निष्पन्न हैं
अन्न से ही जीते, अंत में, अन्न में ही निमग्न हैं.
सर्वोषधम , यह ब्रह्म रूपी, अन्न जो आद्यंत है,
अथ प्राणी अन्न को , अन्न प्राणि को , खाते अन्न अनंत हैं॥ [ १ ]


इस अन्नमय स्थूल देह से, सूक्ष्म देह तो भिन्न है,
अनुगत पुरूष आकृति अतः अनुरूप भी है अभिन्न है.
यदि कल्पना खग रूप में तो , प्राण सिर पुच्छं धरा,
व्यान दांयाँ , अपान बायाँ , पंख नभ आत्मा करा॥ [ २ ]

तृतीय अनुवाक

विश्वानि मानव, देव, पशु के, प्राण ही आधार हैं,
यही प्राण जीवन, प्राण आयु, प्राण प्राणाधार हैं.
परब्रह्म रूप में , प्राण को ही , जानते जो उपासते,
तत्वज्ञ वे ही अमर प्राण के ब्रह्म रूप को जानते॥ [ १ ]


प्राणमय उस पुरूष से तो मनोमय अति भिन्न है,
मनोमय ही प्राणमय में व्याप्त है व् अभिन्न है.
खग कल्पना में यजुः सिर , ऋग, साम दोनों दो पंख हैं,
सम पूँछ मंत्र अथर्व के , आधार सौख्य असंख्य हैं॥ [ २ ]

चतुर्थ अनुवाक

मन सहित, वाणी, इन्द्रियाँ भी, जा नहीं सकतीं वहाँ,
परब्रह्म का ब्रह्मत्व स्थित वास्तविकता में जहों.
उस ब्रह्म का ज्ञाता , कदाचित न कभी भयभीत हो,
मन, देह दोनों की आत्मा , परमात्मा से प्रणीत हो॥ [ १ ]


मन प्राण में जो आत्मा, विज्ञानमय है, सदैव है,
अनुगत पुरूष आकृति अतः यह आत्मा भी तथैव है
सत्याचरण , ऋत पंख दो , श्रद्धा है सिर खग रूप में,
मध्य भाग है आत्मा, आधार महः यह अनूप में॥ [ २ ]

पंचम अनुवाक

विज्ञान ही सब यज्ञों का, कर्मों का विस्तारक महे,
सब देवता, बहु रूप में, विज्ञान के साधक रहे.
जो प्रमाद पाप विहीन हो, विज्ञान का ज्ञाता बने,
वही दिव्यता भोगाधिकारी का अधिष्ठाता बने॥ [ १ ]


विज्ञानमय जीवात्मा, परमात्मा से तो भिन्न है,
अनुगत पुरूष आकृति अतः अनुरूप है व् अभिन्न है.
खग रूप में आनंद सिर, पुच्छं प्रतिष्ठा ब्रह्म का,
और मोद दायाँ, प्रमोद बायाँ पंख, ब्रह्म अगम्य का॥ [ २ ]

षष्ठ अनुवाक

यदि ब्रह्म नास्ति, असत है,यह भाव जिसमें प्रधान हो,
अनुसार वृति व् आचरण के उसके कर्म विधान हों .
यदि ब्रह्म आस्ति, सत्य है , यह भाव आस्तिक है महे,
निश्चित किसी दिन ब्रह्म मिलते, ज्ञानी जन ऐसा कहें॥ [ १ ]


वह है आत्म भू आनंदमय , आनंद अंतर्रात्मा,
हैं ब्रह्म के वे तो स्वयं ही , शरीरान्तर्वर्ती आत्मा .
उनमें शरीरी व् शरीर का भेद लय,यह विशेष है,
अपने की अन्तर्यामी वे अथ तुलना क्रम भी शेष है॥ [ २ ]


अथ यहाँ से अनु प्रश्न , कतिपय ब्रह्म है अथवा नहीं,
परलोक में विज्ञाता ब्रह्म का जाता है अथवा नहीं.
अविज्ञाता को भी क्या, परलोक अथ प्राप्तव्य है ,
हैं तथ्य सत्य -असत्य कितने तथ्य यह ज्ञातव्य है॥ [ ३ ]


है ब्रह्म एक , अनेक रूपों में, प्रकट विस्तृत हुआ ,
संकल्प तप, इस रूप में, कर सृष्टि संवर्द्धित किया.
रचना अनंतर स्वयं सृष्टि , में ही बसता अगम्य है ,
जड़ , चेतना, आश्रय, अनाश्रय, ऋत, अनृत सब ब्रह्म है॥ [ ४ ]

सप्तम अनुवाक

जड़ चेतनात्मक यह जगत सब प्रगत पूर्व अव्यक्त था,
उस अव्यक्तावस्था में, यह सृष्टि जन्मी है यथा.
जड़ चेतनात्मक रूप में अथ ब्रह्म ने स्व को रचा,
इसलिए ही " सुकृत " नाम यथार्थ सार्थक है रुचा॥ [ १ ]


वह 'सुकृत' ब्रह्म यथार्थ रस आनंदमय रसरूप है,
इससे ही यह जीवात्मा , आनंद पाटा अनूप है.
यदि व्योम सम विस्तृत मुदितमय, ब्रह्म न होता यहाँ ,
तो कौन प्राणों की क्रिया को संचरित करता कहाँ॥ [ २ ]


जब -जब कभी जीवात्मा व्याकुल हो ब्रह्म अगम्य को,
अनुपम, अगोचर, और विदेही परम आश्रय ब्रह्म को,
तब-तब हो निर्भय , ब्रह्म स्थिति लाभ करता जीव है,
बहु शोक भय से हीन अभयम , पद को पाता जीव है॥ [ ३ ]


जीवात्मा यदि ब्रह्म से, किंचित भी रहता दूर है,
तो जन्म -मृत्यु रूपी भय उस जीव को भरपूर है.
एक मात्र अज्ञानी ही उस भय से न केवल ग्रसित है,
ज्ञानाभिमानी में भी भय तो जन्म-मृत्यु का निहित है॥ [ ४ ]

अष्टम अनुवाक

अथ जन्म-मृत्यु के मूल भय से पवन चलता सूर्य भी
होता उदित और अस्त , अग्नि व् इन्द्र संचालित सभी,
इसी भय से ही मृत्यु होती, प्रवृत अपने कर्म में,
अथ ब्रह्म संचालक नियम का, रखता सब स्व धर्म में॥ [ १ ]


यदि कोई असाधारण युवक और आचरण भी श्रेष्ठ हो,
वेदज्ञ शासन में कुशल , धन धान्य श्री भी यथेष्ट हो.
दृढ़ इन्द्रियों और अंग सब बलवान ओजस्वी रहे.
आनंद की मीमांसा में, तो श्रेष्ठतम उसको कहें॥ [ २ ]


जो भी मनुज के लोक संबन्धी शतं आनंद हैं,
समकक्ष उसके तो एक मनु गन्धर्वों का आनंद है.
मनुलोक और गन्धर्व लोकों के तो सुख वेदज्ञ को,
हैं सहज प्राप्त स्वभाव से, संभाव्य सब श्रुति विज्ञ को॥ [ ३ ]


जो भी मनुज गन्धर्वों के सब एक सौ आनंद हैं ,
वह देव गन्धर्वों के केवल एक सुख मानिंद हैं .
निःस्पृह विमल सुख राशि मिलती सात्विक श्रुति विज्ञ को,
हो सहज ही संभाव्य अथ प्राप्तव्य है वेदज्ञ को॥ [ ४ ]


जो भी शतं सुख देव गन्धर्वों के कतिपय कथित हैं ,
वे चिरस्थायी पितृ लोक के पितरों के सुख विदित हैं ,
समकक्ष सौ सुख भी विरक्त को, करते न आसक्त हैं,
वे विज्ञ को आनंद , वे सब स्वतः प्राप्त हैं , व्यक्त हैं॥ [ ५ ]


अथ चिरस्थायी लोक पितरों के, जो भी आनंद हैं,
वह आजानज नाम सुख का, देवों का आनंद है .
उस लोक तक के भोगों की इच्छा नहीं , जिसकी कभी,
आनंद सिद्ध स्वभाव श्रोत्रिय , विज्ञ ऋत् निस्पृह सभी॥ [ ६ ]


जो नाम आजानज विदित वे देवों के आनंद हैं,
सम कर्म नामक देवों के वे तो शतं मानिंद हैं.
ऐसे शतं आनंद निधि की कामना से रहित जो,
वेदज्ञ श्रोत्रिय को वही आनंद मिलता , विरत जो॥ [ ७ ]


जो कर्म देवानां देवों के शतं आनंद हैं ,
समकक्ष सौ सुख राशि की तुलना में एक आनंद है.
अमरों की भी सुखराशी की नहीं चाहना वेदज्ञ को,
सब सहज ही प्राप्तव्य उनको, चाहते जो अज्ञ को॥ [ ८ ]


जो देवताओं के शतं आनंद हैं वर्णित यथा,
समकक्ष सौ आनंद की , सुखराशि इन्द्र का सुख तथा.
किंचित कदाचित भी न विचलित , कर सके वेदज्ञ को,
मिलता स्वतः ही सहज सुख , जो जानते सर्वज्ञ को॥ [ ९ ]


यह जो शतं आनंद इन्द्र के उससे भी अतिशय महे,
आनंद बढ़ कर सौ गुना, यह सुख बृहस्पति का अहे.
पर जो बृहस्पति तक के भोगों में भी निःस्पृह विरल है,
उस वेद वेत्ता को स्वतः ही प्राप्त सुख सब सरल हैं॥ [ १० ]


ये जो बृहस्पति के शतं आनंद हैं अतिशय महे,
उससे भी बढ़ कर प्रजापति के , सुख विरल अद्भुत अहे.
पर जो प्रजापति तक के भोगों , में भी निःस्पृह विरल हो,
उस परम श्रोत्रिय को स्वतः सुख प्राप्त है और सरल हो॥ [ ११ ]


यह जो प्रजापति के शतं सुख राशि हैं आनंद हैं,
वह ब्रह्मा के तो एक सुख समकक्ष का आनंद है.
ऐसे परम आनंद से वेदज्ञ जो भी विरत है ,
निष्कामी को आनंद ऐसा , सहज मिलता सतत है॥ [ १२ ]


परमात्मा जो है मनुष्यों में वही आदित्य में,
एकमेव अन्तर्यामी ब्रह्म ही बसता नित्य अनित्य में.
वह अन्न, प्राण मनोमय, विज्ञानमय , आनंद को,
तत्वज्ञ क्रमशः प्राप्त हो, अथ ब्रह्म सच्चिदानंद को॥ [ १३ ]

नवम अनुवाक

मन सहित वाणी इन्द्रियां भी लौटती जाकर जहों,
उस ब्रह्म के आनंद ज्ञाता को भला भय हो कहों.
वह सर्वथा निर्भय सभी, संताप से भी मुक्त हो,
उसको अभय अनुदान हो, यदि ब्रह्म से संयुक्त हो॥ [ १ ]


तत्वज्ञ सात्विक वृतियों से ही दुःख सुख सम्यक करे,
अथ पाप पुण्यों का आचरण, सीमा से हो जाता परे .
उसे लोभ, भय जीवन मरण संताप, मोह भी शेष है,
तत्वज्ञ इस विधि आत्मा की, रक्षा करता विशेष है॥ [ २ ]

भृगु वल्ली / तैत्तिरीयोपनिषद / मृदुल कीर्ति

प्रथम अनुवाक

की वरुण पुत्र भृगु ने उत्कट चाहना ब्रह्मत्व की,
वरुण बोले तात ! इन्द्रियां द्वार हैं गंतव्य की.
जिसके सहारे जीते प्राणी, सृजित करते प्रयाण हैं
जिज्ञासु बन वही ब्रह्म टाप से जानो, ब्रह्म ही प्राण हैं॥ [ १ ]

द्वितीय अनुवाक

है अन्न जीवन प्राण , प्राणी का प्रयाण भी अन्न से,
हो पुनि प्रवेश भी अन्न में, पुनि पायें जीवन अन्न से.
इति अन्न ब्रह्म है तथ्य यह , भृगु ने पिटा से अथ कहा,
बोले पिता कि ब्रह्म को , पुनि तप से जानो जो महा॥ [ १ ]

तृतीय अनुवाक

इस प्राण से भी प्राणी सब उत्पन्न और जीवंत हैं,
और प्राण में ही प्रविष्ट पुनि -पुनि फ़िर प्रयाण व् अंत है.
इति प्राण को ही ब्रह्म जान कर भृगु वरुण से पूछते,
कहा भृगु ने, विज्ञ तप से ही ब्रह्म होता, ऋत मते॥ [ १ ]

चतुर्थ अनुवाक

इस मन से ही तो प्राणी सब उत्पन्न और जीवंत हैं.
मन में ही होता प्रवेश पुनि -पुनि फ़िर प्रयाण व् अंत है.
इति मन को तत्व से ब्र्श्म जाना, भृगु वरुण से पूछते,
कहा भृगु ने ब्रह्म तप से विज्ञ होगा ऋत मते॥ [ १ ]

पंचम अनुवाक

विज्ञानं से ही प्राणी सब जीवंत और उत्पन्न हैं,
विज्ञान में ही प्रवेश पुनि-पुनि फ़िर प्रयाण व् अंत है.
अथ मान कर, विज्ञान ब्रह्म है, भृगु वरुण से पूछते ,
तब कहा भृगु ने ब्रह्म केवल विज्ञ तप से हो ऋत मते॥ [ १ ]

षष्ठ अनुवाक

आनंद रूप है ब्रह्म जिससे ही प्राणी सब उत्पन्न हैं ,
आनंद में ही प्रवेश पुनि-पुनि , फ़िर प्रयाण व् अंत है.
अथ वरुण से उपदिष्ट भृगु से , विदित विद्या ही ब्रह्म है,
जो प्राण, अन्न, समस्त लोकों का ज्ञाता, पाता अगम्य है॥ [ १ ]

सप्तम अनुवाक

यही प्राण अन्न है, अन्न प्राण है, जिससे शक्ति है जीवनी,
नहीं अन्न की निंदा करें , यही अन्न है संजीवनी.
इस अन्न में ही अन्न स्थित, अन्न प्राणाधार हैं,
ब्रह्म वर्चस प्रजा पशु व् कीर्ति का, तो अन्न ही आधार है॥ [ १ ]

अष्टम अनुवाक

ज्योति व् जल में भी प्रतिष्ठित , अन्न का ही रूप है,
जल में तेज है, तेज में जल, आनन्योश्राय स्वरुप है.
न हो अन्न की अवहेलना , सम्मान हो व्रत साधना,
संतान, पशु, धन, धान्य कीर्ति से बहु प्रतिष्ठित वह बना॥ [ १ ]

नवम अनुवाक

आकाश में पृथ्वी प्रतिष्ठित और धरा है व्योम में,
अथ अन्न में ही अन्न स्थित, प्रकृति सार्वभौम में.
हो अन्न का विस्तार जिस मानव का व्रत संकल्प हो,
वह ब्रह्म वर्चस , प्रजा , पशुओं से युक्त काया कल्प हो॥ [ १ ]

दशम अनुवाक

हैं अतिथि देवो भव की वृतियां , संचरित जिस प्राणी में,
पाता स्वयम समृद्धि होता , स्वागतम जिस वाणी में .
जो मध्य निम्न का भव हो तो तथैव उसको भी मिले,
जो अतिथि सेवा का मार्ग जाने , ऋद्धि श्री वृद्धि मिले॥ [ १ ]


अपां प्राण में प्राप्ति रक्षा , वाणी में कल्याण की,
पैरों में गति, हाथों में कर्म की शक्ति , ब्रह्म महान की.
बिजली में बल , वृष्टि में तृप्ति , नक्षत्र नभ में प्रकाश हैं,
शक्ति विभूति प्रजा वीर्य में, ब्रह्म तेज विकास है॥ [ २ ]


जिस रूप में करता उपासक ब्रह्म की अभ्यर्थना ,
उस रूप में ही ब्रह्म अथ स्वीकार करता प्रार्थना .
जो भाव रूप हो प्रार्थना का स्वयम भी तद्रूप हो,
हो ब्रह्म जिनका लक्ष्य केवल , वे भी भक्त अनूप हों॥ [ ३ ]


परमात्मा जो है मनुष्यों में वही आदित्य में,
है ब्रह्म अन्तर्यामी एक ही, बसता नित्य अनित्य में.
क्रम अन्न , प्राण, मनोमय, विज्ञानं माया आनंद को,
जो जानता इच्छित गमन ,करे साम गायन छंद को॥ [ ४ ]


आश्चर्य ! ब्रह्म ही अन्न ,भोक्ता, अन्न संयोजक महे,
उस अन्नमय अन्न स्वरुप को व्यक्त क्या कैसे कहें?
अति आदि देवों से प्रथम और है सुधा का केन्द्र भी,
आद्यंत है वह अन्नमय, रवि ज्योति पुंज रवींद्र भी॥ [ ५ ]

कृष्णा यजुर्वेदीय तैत्तरीयोपनिषद समाप्त

शान्ति पाठ
मम हेतु शुभ हो इन्द्र मित्र, वरुण , बृहस्पति, अर्यमा,
प्रत्यक्ष ब्रह्म हो,प्राण वायु देव तुम तुमको नमः
प्रभो ग्रहण , भाषण, आचरण हो,सत्य का हमसे सदा.
ऋतू रूप ऋतू के अधिष्ठाता, होवें हम रक्षित सदा.

1 टिप्पणी:

Divya Narmada ने कहा…

तैत्तिरीयोपनिषद

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