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गुरुवार, 31 मार्च 2011

पान बनारस वाला: - पूर्णिमा बर्मन.

पान बनारस वाला

पूर्णिमा बर्मन.  

१पूर्निम

खानपान हो, आनबान हो, जान पहचान हो और पान न हो तो ओंठों पर मुस्कान नहीं, पर यह पान बरसों से इमारात में सरकारी आदेश से बंद है। बंद इसलिए कि पान गंदगी फैलाता है। कोनों और स्तंभों के उस सारे सौंदर्य को मटियामेट कर देता है जिस पर यहाँ की सरकार पैसा पानी की तरह बहाती है।

सारी बंदी के बावजूद पान प्रेमी पान ढूँढ लेते हैं और गंदगी फैलाने से बाज़ नहीं आते। इस सबसे निबटने के लिए यहाँ के एक प्रमुख अखबार गल्फ़ न्यूज़ ने एक पूरा पन्ना पान के विषय में प्रकाशित किया। साथ ही मुखपृष्ठ पर भी इसका बड़ा बॉक्स और लिंक दिया। पान के लाभ-हानि, स्वास्थ्य पर प्रभाव, पान के तत्व और पान से जुड़ी सांस्कृतिक बातों को इसमें शामिल किया गया। कुछ ऐसे स्थानों के चित्र भी दिए गए जिन्हें पीक थूककर गंदा गया गया है। देखकर लगा जैसे पान सभ्यता का नहीं असभ्यता का परिचायक है।

एक समय था जब पान आभिजात्य का प्रतीक था। यह राज घरानों के दैनिक जीवन में रचा-बसा था। इसमें पड़ने वाले कत्थे, चूने, सुपारी और गुलुकंद स्वास्थ्यवर्धक समझे जाते थे। पान रचे ओंठ सौदर्य का प्रतीक थे एवं पानदान और सरौते का सौदर्य हमारी शिल्प कला की सुगढ़ता को प्रकट करता था। पान पर्वों, गोष्ठियों और विवाह जैसे धार्मिक कृत्यों का आवश्यक अंग होता था। यही नहीं कला और संस्कृति में पानदान और पान की तश्तरी तक का विशेष महत्व था।

अंग्रेजी सभ्यता के सांस्कृतिक हमले से जूझते-जूझते कब पान अपनी रौनक खो बैठा पता ही न चला। न उगालदान साथ लेकर चलने वाले नौकर का ज़माना रहा और न हम स्वास्थ्य और संस्कृति से इसे ठीक से जोड़े रख सके। वह आम आदमी का व्यसन भर बनकर रह गया। अनेक असावधानियों से बचाकर रखते हुए अगर हम पान का संयमित प्रयोग कर पाते तो इसकी शान के कारण विश्व में सम्मानित भी हो सकते थे। लेकिन अफसोस ऐसा हो न सका।

अखबार में प्रकाशित चित्रों के देखकर दुख हुआ पर उसके विषय में बात करना बेकार है क्यों कि उससे कहीं ज्यादा पीक भारतीय इमारतों के कोनों में देखी जा सकती है।

मज़ेदार बात यह थी कि लगे हुए पान का जो चित्र दिया गया वह उल्टा था- चिकना हिस्सा ऊपर और उभरा हिस्सा नीचे, चिकने हिस्से पर रखे थे- कत्था, चूना और सुपारी। यानी यह पान, पान की शान जानने वाले किसी उस्ताद पनवाड़ी हाथों में नहीं है बल्कि पान की शान से अनजान किसी फोटोग्राफर के नौसिखिये माडल के हाथ में है। इस चित्र को अखबार ने अपने पन्ने की शोभा बढ़ाने के लिये बनवाया होगा। आप भी देखें।
 
                                                                                              साभार: चोंच में आकाश. 

11 टिप्‍पणियां:

Blogger pukhraaj ... ने कहा…

पूर्णिमा जी ,
पान को महिमामंडित कर आपने दुनिया के सामने इसके उजले पक्षों को भी सामने रखा है .. यूँ ही किस्सागोई करते करते पान कहीं किस्सा बनकर न रह जाए ... कभी स्वागत की निशानी माने जाने वाला बेचारा पान आज अपने स्वागत को तरस रहा है .. इसके इन हालातों का जिम्मेदार पान नहीं बल्कि पान खाने वाले हैं जिन्होंने पान खाने का सलीका खो दिया .. खैर मुझे गुलकंद वाला पान पसंद है और मेरी तरफ से इस अच्छे लेखन के लिए एक मीठा मीठा पान आपको भी ....

Blogger पूर्णिमा वर्मन ... ने कहा…

धन्यवाद पारूल पान इतने प्यार से पेश किया जाए तो किसे न भाएगा। शुक्रिया मजा आ गया :)

Blogger प्रवीण पाण्डेय... ने कहा…

पान का आनन्द तो खाने में ही है।

Blogger cmpershad ... ने कहा…

दर असल लोग पान खाने का सलीका भूल गए हैं। जब आप पान खाते हैं तो पीकदान [उगालदान] भी साथ रखने का सलीका पैदा करें तो कहीं कोई गलाज़त नहीं होगी:(

Blogger डॉ० डंडा लखनवी ... ने कहा…

पूर्णिमा वर्मन जी!
पान से संबंधित इतने अच्छे आलेख के लिए-धन्यवाद!
इससे जुड़ी कुछ और जानकारियाँ आपसे साझा करना चाहता हूँ।
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पान को विभिन्न प्रकार के मसालों में लपेट कर पेश करने में जहाँ’ ’बनारस’ अव्वल है वहीं इसकी उत्तम प्रजाति उपजाने में ’महोबा’ का नाम है। हमारी सांस्कृतिक परंपरा में पान की प्रतिष्ठा सदियों पुरानी है। अनेक प्रकार के मसालों को पान के पत्ते में लपेटा जाता था। उसके ऊपर विशेष कौशल से चाँदी -सोने के वर्क लगाया जाता था। उसे बीड़ा कहा जाता था। बीड़ा उठाने की प्रथा सदियों पुरानी है। राज्य को चुनौती पूर्ण अभियानों को संपन्न करने के लिए कभी-कभी साहसी एवं पराक्रमी नायक की आवश्यकता पड़ती थी। अतः उसकी सूचना व्यापक रूप से राज्य में प्रचारित कर दी जाती थी और पान का बीड़ा दरबार में निर्धारित स्थान पर रख दिया जाता था। राज्य का जो नागरिक उक्त चुनौतीपूर्ण साहसिक अभियान को पूर्ण करने संकल्प लेकर आगे आता वह दरबारियों के सम्मुख ’बीड़े’ को उठा कर खाता था तत्पश्चात वह अभियान को पूरा करने के लिए प्रयाण कर जाता था। अभियान को सफल करके लौटने पर उस व्यक्ति का राजकीय सम्मान किया जाता था। यह राज्य और व्यक्ति दोनों के लिए गौरव की बात होती थी। भारतीय पौराणिक आख्यानों में बीड़ा उठाने का उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलता है। यह प्रथा कालांतर में ’बीड़ा उठाना’ मुहावरा बन गई।
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प्रवाहित रहे यह सतत भाव-धारा।
जिसे आपने इंटरनेट पर उतारा॥
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

Blogger sumeet "satya" ... ने कहा…

Badhiya article......

AAN + BAAN + SHAAN = PAAN

Blogger पूर्णिमा वर्मन... ने कहा…

प्रवीण जी, प्रसाद जी,सत्य जी, लेख पसंद करने के लिये धन्यवाद। डंडा लखनवी जी आपने जो महत्वपूर्ण जानकारी दी है वह सभी पाठकों के काम आएगी। आभार।

Blogger vandana ... ने कहा…

पूर्णिमा जी अभिव्यक्ति के माध्यम से तो आपसे परिचय था ब्लॉग पहली बार देखा अच्छा लगा आपके द्वारा परोसा गया पान !!!

Blogger रश्मि प्रभा... ने कहा…

सारी बंदी के बावजूद पान प्रेमी पान ढूँढ लेते हैं और गंदगी फैलाने से बाज़ नहीं आते।... is aalekh ka ek mahatwpurn paksh

Blogger डॉ॰ मोनिका शर्मा... ने कहा…

बडी रोचक पोस्ट...अच्छी लगी यह पान के बारे में विस्तृत जानकारी ...

Blogger मीनाक्षी... ने कहा…

प्रणाम पूर्णिमादी,
पान की इस कथा ने तो हमें पिछले दिनों के हादसे की याद दिला दी...
दिल्ली की एक शादी में मस्ती मस्ती में एक रिश्तेदार ने 420 नम्बर का पान दे दिया और साथ दे दिया एक प्लास्टिक का गिलास कि एक बूँद भी निगलना नहीं...
पूछिए नहीं क्या हाल हुआ ...