दोहा मुक्तिका (दोहा ग़ज़ल):
होरी-फागें गा रहे, हर मतभेद बिसार..
*
तन-मन पुलकित हुआ जब, पड़ी रंग की धार.
मूँछें रंगें गुलाल से, मेंहदी कर इसरार..
*
यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
*
नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
*
दिलवर को दिलरुबा ने, तरसाया इस बार.
सखियों बीच छिपी रही, पिचकारी से मार..
*
बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
*
रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
*
मन्मथ मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
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'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मानता रहे, होली का त्यौहार..
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दोहा का रंग होली के संग :
संजीव वर्मा 'सलिल'
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होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार.
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
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अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार.. * आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
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ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
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कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
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जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार.
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
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गुझिया खाते-खिलाते, गले मिलें नर-नार.होरी-फागें गा रहे, हर मतभेद बिसार..
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तन-मन पुलकित हुआ जब, पड़ी रंग की धार.
मूँछें रंगें गुलाल से, मेंहदी कर इसरार..
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यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
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नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
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दिलवर को दिलरुबा ने, तरसाया इस बार.
सखियों बीच छिपी रही, पिचकारी से मार..
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बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
*
रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
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मन्मथ मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
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'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मानता रहे, होली का त्यौहार..
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26 टिप्पणियां:
होली का पूरा मंज़र आपकी मुक्तिका से आँखों के सामने आ गया आचार्य जी, साधुवाद स्वीकार करें !
धन्यवाद.
योगराज जब प्रीत का, छेड़ रहे हों राग.
समझो फागुन आ गया, नैना गंग-प्रयाग..
saamyik aur dil ko cho lene waale dohe naman achaary jee |
अभिनव निज चेहरा लगे, अनजाने निज नैन.
भाँग भवानी बस हुए, तन-मन के संग बैन..
sundar rachnaa hai,,,,,,,,,,,badhayee,,,,,,,,,,,,,
राज बुन्देली पर भओ, बुन्देलिन खों आज.
होली खेलन बे गईं, जे करते हैं काज..
सलिल जी, बहुत बहुत बधाई,एक -एक दोहा रंगों की बौछार जैसा लगा.
शरमाकर राजेश ने, झपकाए जब नैन.
शर्माइन का हो गया, मनुआ तब बेचैन..
वाह वाह आचार्य जी अद्भुत छटा बिखेरी है आपने , चारो तरफ होली के रंग उसपर यह कहना कि...
आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
बहुत खूब सभी दोहे एक से बढ़कर एक, बधाई स्वीकार करे आदरणीय |
ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार.. ( शायद हुरियार के जगह हुशियार या होशियार लिखना चाह रहे है ? )
बागी भैया हुरियार सही शब्द है ..हुरियार=होली खेलने वाला
बागी रागी हो गये, ले गुलाल औ' रंग.
बागिन ने जब रंग दिया, भगे भुला सत्संग..
bahu bani huriyar vah achary ji,@bagi ji ye huriyar hi hai braj ke holi khelane wale aanchalik bahut pyara shabd hai
हुरियार का अर्थ,, मैं लिखने ही जा रहा था की देखा आपने पहले ही लिख दिया है :)
हा हा हा हा वीनस भाई मैंने तो लिख दिया फिर नीचे देखा..मिस्टेक हो गया|
:-)
बहुत बहुत धन्यवाद साथियों, मुझे हुरियार शब्द की जानकारी नहीं थी, आप लोगो से एक नया शब्द सिखा | एक बार फिर से शुक्रिया अदा करता हूँ | :-)
अदा शुक्रिया मत करो. गुझिया लाओ मीत.
खाओ-खिलाओ खुशी से, यह होली की रीत..
टेक न मिस संग रख सके, कैसी की मिस्टेक.
जे सड़कों पर टहलते, उनको भाती लेक..
केश नोचते केशरी, होकर घर में बंद.
गईं केसरिन सखिन संग, ले गुलाल औ' रंग..
सच ...रंग सारे ही बिखेर दिए आपने अब होली लगेगी होली :)
ओझा फूँके मंत्र यों, एक न बिखरे रंग.
चेतन कर जड़ वृक्ष को, लता कर सके दंग..
हुरयारन खों देखकर काँप रहे हुरियार.
बिन शर्माए मारतीं लट्ठ-रंग की धार..
ताहिर का जाहिर हुआ, होली पर गुण एक.
भाँग भवानी की कसम,पल में खाएँ अनेक..
वाह-वाह. टिप्पणी और वह भी दोहों के रूप में... मान गए गुरुदेव. ऐसा प्रयोग तो आप जैसा ही कोई कर सकता है. जय हो!
वाह!!!!! मज़ा आ गया...सभी दोहे पूरी होली के दृश्य को आँखों के समक्ष ले आये है| यह कमाल आचार्य जी आप ही कर सकते है| बेहतरीन|
मानें तभी प्रताप जब, राणा पीकर भंग.
फागुन की बारात में, नाचें लेकर चंग..
सलिल जी की रचनाओं को पढना हमेशा ही सुख प्रद होता है| इस बार होली के रंग में सराबोर ये दोहे बहुत ही सुन्दर लगे|
यादव गौ दुहने चले, लिये बाल्टी संग.
दूध न पाया तनिक भी, रंग देख हैं दंग..
bahut hi badhiya prastuti acharya jee ki.........dhanybaad admin jee is prastuti ko yahan prastut karne ke liye
वाह वाह सुंदर दोहों के साथ इस साहित्यिक होली में रंग भरने के लिए आचार्य जी का आभार एवं बधाई।
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