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शनिवार, 24 अक्तूबर 2020

पुरोवाक बालगीत सुरेश तन्मय

पुरोवाक :
एक गीत गायें हम : देश नव बनायें हम 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
बच्चे मनुष्य का भविष्य और देश के निर्माता हैं। शिशु और बाल साहित्य बाल मन को संस्कारित कर आजीवन बच्चे के साथ रहकर कालजयी हो जाता है। यह बाल-मन की मिट्टी में सदाचार के बीज को सद्भाव से सींचकर, सहिष्णुता के बेल में सहयोग के पुष्प और सहकार के फल खिलाता है। भाषा संस्कार की वाहक है। बाल गीतों की भाषा सहज, सरल, स्पष्ट, संक्षिप्त, सरस तथा सारगर्भित होना आवश्यक है। मुहावरेदार भाषा में लिखे गए लयबद्ध गीत बालक को खेल-खेल में कंठस्थ हो जाते हैं। ऐसे गीतों को दोहराकर बच्चे सही उच्चारण करने, नए-नए शब्द सीखने, सही भाषा बोलने प्रस्तुत करने के साथ पारस्परिक सद्भाव स्थापित कर सद्भाव और सहिष्णुता के साथ जीना सीखते हैं। सुसंस्कारित बच्चे कठिन से कठिन परिस्थिति में भी गलत राह पर नहीं जाते। दीन-हीन ही नहीं, समृद्ध और संपन्न परिवारों के बच्चे भी गलत राह पर जाने लगें तो स्पष्ट है कि उन्हें बाल्यकाल में अच्छे संस्कार अर्थात  अच्छे गीत नहीं मिले। 
माँ की लोरियों में मिली ममता में पला-पूसा बच्चा चलना सीखते ही बाह्य जगत के संपर्क में आने लगता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बच्चा पाँच वर्ष की आयु तक इतना सीख लेता है जितना वह शेष पूरी उम्र में नहीं सीखता। स्पष्ट है कि शिशु गीतों और बाल्य गीतों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण और बच्चे के पूरे जीवन को प्रभावित करने वाली होती है। वर्तमान द्रुत वैज्ञानिक प्रगति और आर्थिक मारामारी के संक्रांति काल में मनुष्य का प्रकृति के साथ संबंध छिन्न-भिन्न हो रहा है। शहरों में मनुष्य एकाकी और आत्मकेंद्रित होता जा रहा है। सबके साथ घुलने-मिलने की प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है। शिशु गीत, बाल गीत आदि बच्चों में सामुदायिक दायित्व और पारस्परिक समझ का विकास करते हैं। 
हिंदी और निमाड़ी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' की ये रचनाएँ बालकों को गुदगुदाने, रिझाने, हँसाने, मन बहलाने, नई जानकारियाँ देने और एक साथ हिलमिलकर रहने का संस्कार उत्पन्न करने में समर्थ हैं। ये गीत बाल मन में उचित-अनुचित, सदासद, भले-बुरे का भेद सनझाने की प्रवृत्ति विकसित करने में समर्थ हैं। तन्मय जी परम्परा के नाम पर अंधानुकरण और आधुनिकता के नाम पर जड़ों से दूर होने की दुष्प्रवृत्ति से दूर रहते हुए, बाल-मनोभावों को हुलसित-पुलकित करते हुए सही दिशा में बढ़ाने के प्रति सजग हैं। इन गीतों में सहज खिलंदड़ापन, निश्छल जिज्ञासा, भोले प्रश्न, सम्यक समाधान, सतरंगे सपने और अनगिन अरमान यत्र-तत्र गुँथे हुए हैं। 
हिंदी बाल साहित्य दो मिथ्या धारणाओं का शिकार है। पहली यह कि इसकी विशेष उपादेयता नहीं है तथा दूसरे यह कि इसे लिखना बहुत आसान है। वस्तुत:, बाल साहित्य लिखना फिल्मों में फ्लैश बैक लिखने की तरह है। वयस्क-प्रौढ़ मस्तिष्क को बचपन में ले जाकर गत को वर्तमान में जीने और आगत से आँखें मिलाने की तरह है। मजे की बात यह है कि दो भिन्न काल खण्डों को तीसरे काल खंड में जीकर बाल साहित्य की सर्जना की जाती है। तन्मय जी रस्सी पर चलते हुए नट की तरह कथ्य, भाव, रस के मध्य दुष्कर संतुलन सहजतापूर्वक स्थापित करते हुए सोद्देश्यता, सहजता और सरलता की त्रिवेणी में अवगाहन करा देते हैं। बाल साहित्य के समक्ष 'बचकाना साहित्य' न होने की कड़ी चुनौती होती है। तैत्तिरीयोपनिषद में 'रसो वै स:' कहकर जिस काव्यानंद को इंगित किया गया है वह तन्मय जी के इन बालगीतों में सहज प्राप्य है। तन्मय जी की बाल कविताएँ पढ़ना कथ्य, भाषा, भाव, रस, छंद. अलंकार, बिम्ब, प्रतीक आदि की लहरियों से लबालब नर्मदा में स्नान करने की तरह सुखद है। 
 'लें आशीषें' शीर्षक गीत में बच्चों को संस्कारित कर बड़ों का सम्मान करने का मनोभाव विकसित किया गया है-
रोज सवेरे बिस्तर से उठते ही 
प्रभु का ध्यान करें 
सभी बड़ों के छूकर चरण 
ह्रदय से उन्हें प्रणाम करें। 
माँ-बच्चे का नाता संसार में सर्वाधिक निकट संबंध है।  कई शब्द चित्र माँ की विविध छवियाँ उकेरते हैं- 
मीठी वाणी से मन मोहे 
मिश्री प्रेम दुलारी माँ 
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खेले संग, तब जान-बूझकर 
खा जाती है गच्ची माँ 
*
हैं अनंत खुशियों की खान 
मेरी मम्मी बहुत महान 
*
नहीं भूलते हैं हम अब भी 
जो भी पाठ पढ़ाती मम्मी 
मम्मी के हाथों में रहता 
स्वाद है बड़ा कमाल 
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'मम्मी जी ने डाँट पिलाई', 'मुनिया रानी', 'मेरी नानी', 'दादा जी के साथ-साथ में', 'अखबार और दादाजी' आदि रचनाएँ पारिवारिक संबंधों के जीवंत चित्र उपस्थित करती हैं। 
'स्कूल की तैयारी है', 'हमको भी स्कूल जाना है', 'मैं भी लेखक बन जाऊँगी', 'आलस से लड़', अक्षर ज्ञान बढ़ाएं', 'चलो चलें स्कूल', 'मिलकर करें पढ़ाई', 'स्कूल चलें', 'पढ़ें पढ़ाएँ' आदि गीतों में बाल मन को शिक्षानुराग से संस्कारित किया गया है। 
हमको भी स्कूल है जाना पापा जी 
अक्षर ज्ञान हमें भी पाना पापाजी 
*
धंत ततड़ ततड़ ततड़ 
धंत ततड़ तड़ 
ले किताब जल्दी से 
और पाठ पढ़ 
*
बाल मन खेल-कूद में असीम आनंद पाता है। 'नाचें कूदें जी बहलायें', 'आओ! अगली सदी चलें', 'तबइक तुम भइ तबइक तुम', 'बाल आनंद', 'चलें गाँव पिकनिक मनाने', 'चलें मनाने को पिकनिक', 'उड़नखटोला', 'अगर मुझे उड़ना आता तो', 'बोल जमूरे!, हाँ उस्ताद', 'भालू जी का सूट',  आदि में खिलंदड़पन का उल्लास-उत्साह अभिव्यक्त हुआ है।  
बच्चो! बोलो छिपन छिपैया
छिपन छिपैया, छिपन छिपैया 
प्रगट हुए तब बंदर भैया 
खी खी करके हाथ हिलाया 
फिर थोड़ा मन में शरमाया
पूछा, तेरी कहाँ बंदरिया? 
छिपन छिपैया, छिपन छिपैया 
घूँघट ओढ़ बंदरिया आई
देख सभी को वह मुस्काई 
यह बंदर क्या तेरा सैंया? 
छिपन छिपैया, छिपन छिपैया 
*
'बाल मन की बातें', 'गाँव के बच्चे', हो जाऊं मैं शीघ्र बड़ा', 'होंगे उजले भावी दिन', 'नियम सड़क के', 'लहर-लहर लहराती नदिया', 'करें ज्ञान-विज्ञान की बातें', 'अच्छे दिन आनेवाले हैं', 'पुस्तक मेला', 'बरखा ऋतु आई 'बादल काले काले हैं', 'बादल आये', 'जब से नभ छाए बादल', 'मौसमी फल','गर्मी के मौसम में', 'धूप तेज है गर्म हवाएँ', 'गर्मी का मौसम आया', 'सर्दी आई', 'शुरू हुआ अप्रैल' 'दस दोहे मेला दर्शन', 'पेड़ों में भी प्राण हैं', 'सपने की सीख', 'कष्ट हरो मजदूर के', 'शिक्षक दिवस गुरु वंदन', 'उठो भोर में जल्दी' जैसे गीतों में पढ़ते-बढ़ते बालकों में परिवेश, पर्यावरण, मौसम, ऋतुचक्र आदि के प्रति सजगता उत्पन्न करने का सफल प्रयास हुआ है। 
बीती वर्षा, सर्दी आई 
निकले कंबल, शाल, रजाई
थर-थर लगी कांपने ठंडी 
इस बारिश में खूब नहाई 
*
सिकुड़ी सिमटी ठंड जा रही
मौसम गर्मी का आया 
आइसक्रीम के दौर, बर्फ के गोले 
श्री खंड याद आया 
जब से नभ में छाये बादल 
तन-मन को हर्षाये बादल 
रिमझिम रिमझिम पानी बरसे 
सब के मन को भाये बादल 
*
'दादा जी कहते हैं मेरे', 'शुरू हुआ अप्रैल', 'गोलू को पानी की सीख', जीवन जीना बहुत चाव से', 'सहयोग भावना', 'एक गीत 'गायें हम', 'आसमान के हैं ये तारे', 'अपनी हिंदी', 'हरी कैरियाँ पीले आम', 'सुनो कहानी आम की', 'सुबह की धूप मखमली', 'सुबह की धुप गुनगुनी', 'सुबह सवेरे', 'यह  कैसी बरसात?', 'मच्छरदानी में', 'बाल सुलभ संसार चाहिए', 'बोझ पढ़ाई का', 'अच्छे दिन आनेवाले हैं', 'कुर्सी दौड़', ' अधिकार न छीनो', 'मेरा सपना', 'मक्खी और मिठाई', 'कोरोना को मार भगाए', 'वंदे मातरम', 'नव वर्ष अभिनंदन', 'वरदायी चक्की और मेरी चाह', 'तथा लोरी कौन सुनाएगा अब' आदि गीतों में अपेक्षाकृत अधिक विकसित मस्तिष्क और चेतना संपन्न बालको के लिए ऐसा कथ्य रख गया है जो उनमें अधिकारों और कर्तव्यों की समझ, राष्ट्रीयता की भावना आदि करे। 
देश प्रेम के गाएँ मंगल गान 
वंदे  मातरम   
तन-मन से हम करें राष्ट्र सम्मान 
वंदे मातरम 
तन्मय जी के बाल गीतों का वैशिष्ट्य तोतले बोल, किलकारी, कल्पना की उड़ान, नन्हें प्रयास, धूप-छाँव, चिंता-मजा, गीत-संगीत  सम्यक अनुपात में यथास्थान उपस्थित होना है। वे किसी विचार को लेकर को लेकर सप्रयास गीत नहीं लिखते अपितु गीत को तारी होने देते हैं। इसलिए इन बाल गीतों  में कहीं भी छंद या कथ्य थोपा हुआ नहीं है, स्वाभाविक रूप  अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हुआ है. फलत: गीत सहज ग्राह्य, सुमधुर और उपयोगी बन गए हैं। 
" जब तुम बच्चों के लिए हो तो उस विशेष अवसर  विशेष शैली मत अपनाओ। अपनी पूरी क्षमता से लिखो  वस्तु को सजीव होकर आने दो।" अनातोले फ़्रांस के इस विचार को तन्मय जी ने अनजाने ही अपना लिया है। 
पॉल हेजार्ड ने है "बच्चे उन पुस्तकों को पसंद नहीं करते जिनमें उन्हें बराबर का दर्जा नहीं दिया जाता और उन्हें 'प्यारे नन्हें साथियों आदि शब्दों से संबोधित किया जाता है अथवा जो उनकी प्रकृति अनुरूप नहीं होतीं जिनके चित्र आँखों को और जिनकी सजीवता उनके ह्रदय को आकृष्ट नहीं कर पातीं अथवा उन्हें केवल वही चीजें सिखाती हैं जिन्हें वे स्कूल में सीखते हैं और जो उन्हें नींद की गोद में सुला सकती हैं किन्तु सपनों की दुनिया में नहीं ले जा सकतीं।' तन्मय जी ने  अपने बाल गीतों में विशेष ध्यान रखा है कि  बालगीत रोचक, उत्सुकताकरक और।  ये बाल गीत बच्चों और बड़ों दोनों को पसं आएँगे और तन्मय जी के अगले बाल गीत संग्रह के प्रति उत्सुक बनायेंगे। 
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संपर्क : विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com 

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