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मंगलवार, 7 जुलाई 2020

रचना -प्रति रचना राकेश खडेलवाल - संजीव

रचना -प्रति रचना
राकेश खडेलवाल - संजीव
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गीत
कोई सन्दर्भ तो था नहीं जोड़ता, रतजगे पर सभी याद आते रहे
*
नैन के गांव से नींद को ले गई रात जब भी उतर आई अंगनाई में
चिह्न हम परिचयों के रहे ढूँढते थरथराती हुई एक परछाईं में
दृष्टि के व्योम पर आ के उभरे थे जो, थे अधूरे सभी बिम्ब आकार के
भोर आई बुहारी लगा ले गई बान्ध प्राची की चूनरिया अरुणाई में
राग तो रागिनी भाँपते रह गये और पाखी हँसे चहचहाते रहे
*
अधखुले नैन की खिड़कियों पे खड़ी थी थिरकती रही धूप की इक किरण
एक झोंका हवा का जगाता रहा धमनियों मे पुनः एक बासी थकन
राह पाथेय पूरा चुरा ले गई पांव चुन न सके थे दिशाएं अभी
और फिर से धधक कर भड़कने लगी साँझ जो सो गई थी हदय की अगन
खूंटियों से बंधे एक ही वृत्त मे हम सुबह शाम चक्कर लगाते रहे
*
यों लगा कोई अवाज है दे रहा किंतु पगडंडियां शेष सुनी रही
मंत्र स्वर न मिले जो जगाते इसे सोई मन में रमी एक धूनी रही
याद के पृष्ठ जितने खुले सामने बिन इबारत के कोरे के कोरे मिले
एक पागल प्रतीक्षा उबासी लिए कोई आधार बिन होती दूनी रही
उम्र की इस बही में जुड़ा कुछ नहीं पल गुजरते हुए बस घटाते रहे
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प्रतिगीत
कोई सन्दर्भ तो था नहीं जोड़ता, रतजगे पर सभी याद आते रहे
*
'हार की जीत' में, 'ताई' की प्रीत में, मन भटकता रहा मौन 'कुड़माई' में
कुछ कहा अनकहा, कुछ सुना अनसुना, छवि न धूमिल हुई किंतु तनहाई में
मन-पटल पर लिखा, फिर मिटाया गया, याद साकार थी पल निराकार में
मति चकित कुछ भ्रमित, बावली खो गयी, चन्द्रमा देख पूनम की जुनहाई में
भाव लय ताल स्वर हाँफते रह गये, बिम्ब गीतों का दर खटखटाते रहे
*
नित्य 'चंदन' 'सुधा' बिन अधूरा रहा, श्वास ने आस तज, त्रास का कर वरण
मुँह प्रथा का सिला, रीतियाँ चुप रहीं, पीर ओढ़े रही, शांति का आवरण
भ्रांति पलती रही, क्रांति टलती रही, कर्ण से जा मिला था सुयोधन तभी
चंद पाँसे फिंके, चंद आहें उठीं, चीर खिंचते बचा, रह गयी लट खुली
बाँसुरी-शंख भी, गांडिवी तीर भी, मिट गए पर न बदला तनिक आचरण
आदमी आदमी को परेशान कर, आदमीयत की जय ही मनाते रहे
*
इंकलाबी जुनूँ, मजहबी जोश बन, बिजलियों सा गिरा, आह कर अनसुनी
मुक्त पंजे से करना कमल चाहता, हाथियों की दिशाहीन माया धुनी
लालटेनें बुझीं, साइकिल रुक गयी, हाथ हँसिया हथौड़ा रहे अनमिले
तृण न वटवृक्ष हो हाय! मुरझा रहा, मैं गुणी शेष दुनिया सभी अवगुणी
स्वार्थ-सत्ता सियासत ने साधे 'सलिल', हाथ अपनों के जनगण ठगाते रहे
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७-७-२०१६

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