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बुधवार, 15 अप्रैल 2020

संस्मरण - कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा

संस्मरण 

कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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मुझे एक चुनाव में पीठासीन अधिकारी बनाया गया आज से ४५ साल पहले, तब ईवीएम नहीं होती थी, न वाहन मिलते थे। मैं लोक निर्माण विभाग मध्य प्रदेश अभियंता था, पीठासीन अधिकारी बनाया गया था। पहले भी कई चुनाव करा चूका था इसलिए प्रशिक्षण में कोई कठिनाई नहीं हुई। मुख्यालय जबलपुर से ९९ कि मी दूर रेल से- तहसील मुख्यालय कटनी पहुँचा। अपने दल के किसी सदस्य को जानता नहीं था। माइक से बार-बार घोषणा कराने पर सहायक पीठासीन अधिकारी साथी मिले जो शिक्षक थे। उन्हें लेकर सामग्री लेने पहुँचा। घंटों बाद हमें लोहे की चार भारी पेटियाँ (गोदरेज टाइप) मिलीं। लगभग साढे़ चार हजार मतपत्र मिले जिनका आकार टेब्लॉयड अखबार के बराबर था। अन्य सामग्री और खुद के कपड़े, बिस्तर और खाने नाश्ते का सामान भी था। शामियाना के एक किनारे बैठकर सूची से सामान का मिलान करने और मतपत्रों को गिनकर गलत मतपत्र बदलवाए। तब तक बाकी दो सहायक आए। एक-एक मतपेटी उन्हें थमाई। अब बस पकड़ना थी। दल में दो पुलिस सिपाही भी थे पर गायब, उनके नाम से मुनादी कराई, जब बस में बैठते समय पुलिसकर्मी गैर होने की मुनादी करा दी, तब वे प्रकट हुए। सामान ढोेने से बचने के लिए, आस-पास होते हुए भी नहीं मिले थे। मैं समझ गया घुटे पीर हैं। डाल-डाल और पात-पात का नीति अपनाना ठीक लगा। बस चलते समय वे उपस्थिति प्रमाण पत्र पर हस्ताक्षर कराने आए। मैंने इंकार कर दिया कि मैं आपकी गैर हाजिरी रिपोर्ट कर चुका हूँ। मैं मतदान केंद्र पर दो कर्मचारी नियुक्त कर चुनाव करा लूँगा, आप वापिस जाएँ और एस. पी. से निलंबन आदेश लेकर जाँच का सामना करें। उनके पैरों तले से जमीन सरकने लगी, बाजी उलटती देख माफी माँगने लगे। मैंने बेरुखी बनाए रखी।

बस से ४५ कि मी दूर ब्लॉक मुख्यालय मैहर तक जाना था। वहाँ सिपाहियों ने आगे बढ़कर मतपेटियाँ और मतपत्र सम्हाले जिसके लिए उनकी ड्यूटी लगाई गई थी। अब हमें ८ कि मी बैलगाड़ी से जाना था । कोटवार २ बैलगाड़ी लेकर राह देख रहा था। बैलगाड़ी ने नदी किनारे उतारा। यहाँ डोंगी (पेड़ का तना खोखला कर बनाई छोटी नाव) मिलीं। दल के मुखिया के नाते सबको नियंत्रण में रखकर सब काम समय पर कराना था। मैं २२ साल का, शेष सब मेरे पिता की उम्र के। पहली डोंगी पर मतपत्र, मतपेटी लेकर एक सिपाही को साथ मैं खुद बैठा। दोपहर २ बज रहे थे। सबको भूख सता रही थी, खाने के लिए रुकते तो एक घंटा लगता। मैंने तय किया कि मतदान केंद्र पहुँच कर वहाँ जो कमी हो उसके ठीक कराने की व्यवस्था कराकर भोजन करूँ। बाकी लोग पहले खाना चाहते थे। अँधेरा होने पर गाँव में कुछ मिलना संभव न होता। कहावत है बुरे वक्त में खोटा सिक्का काम आता है। मैंने वरिष्ठ सिपाही को किनारे ले जाकर पट्टी पढ़ाई कि सीधे बिना रुके मतदान केंद्र चलोगे और पूरे समय मेरे कहे अनुसार काम करोगे तो शिकायत वापिस लेकर कर्तव्य प्रमाणपत्र दे दूँगा। अंधा क्या चाहे?, दो आँखें। उसने जान बचते देखी तो मेरे साथ आगे बढ़कर मतपेटी लेकर डोंगी में जा बैठा। उसे बढ़ता देख उसका साथी दूसरी डोंगी में जा बैठा। एक डोंगी में दो सवारी, एक मतपेटी और डोंगी चालक, लहर के थपेड़ों को साथ डोंगी डोलती, हमारी जान साँसत में थी। मुझे तो तैरना भी नहीं आता था पर हौसला रखकर बढ़ते रहे।

राम-राम करते दूसरे किनारे पहुँच चैन की साँस ली। सब सामान की जाँच कर रंगों पर वादा और शुरू हुई पदयात्रा, ४ किलोमीटर पैदल कच्चे रास्ते, पगडंडी और नदियों से होते हुए मतदान स्थान पहुँचे। प्राथमिक शाला एक कमरा, परछी, देशी खपरैल का छप्पर, शौचालय या अन्य सुविधा का प्रश्न ही नहीं उठता था। कमरे में सुरक्षित स्थान पर मतदान सामग्री रखवाई। ४ बज चुके थे, भूखे और थके तो थे ही, दल के सदस्य खाने पर टूट पड़े। मैंने पटवारी और कोटवार को लेकर व्यवस्था देखी। सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर था। बिजली गाँव में नहीं थी। केंद्र में दो मेजें, दो बेंचे एक की टाँग टूटी, दो कुर्सियाँ, एक स्टूल, एक बाल्टी, एक लोटा, दो गिलास, एक मटका, एक चिमनी, एक फटी-मैली दरी कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा का तर्ज पर जुटाई गई थी। लालटेन तक नहीं, रात को सांप-बिच्छू निकल आये तो? कोटवार को बुलवाया.... डाँट लगाई तो कहीं से एक लालटेन ले आया। बोले सर! चिंता न करें, आपके सोने और खाने की व्यवस्था ठाकुर साब की बखरी पर है। बाकी लोग यहाँ रह लेंगे। मुझे मतपत्र छोड़कर जाना और किसी के घर मतपत्र ले जाना दोनों स्थितियां स्वीकार्य नहीं हुईं। दल के अन्य सदस्यों की चिंता भी थी। कोटवार से तुरंत कह दिया मैं कहीं नहीं जाऊँगा, जो व्यवस्था हो सकती हो यहीं करो। कुछ देर बाद ठाकुर साहब आते दिखे, मुझे जैसे ही पता चला मैं स्कूल के बाहर मैदान में जाकर उनसे मिला। उनका अब तक पता लगा चूका था वे राजनैतिक दल से जुड़े थे, दूसरे दल से एक पंडित जी थे। पता यह भी लगा कि यहाँ हर चनाव में झगड़े होते हैं औरचुनाव के बाद चुनाव अधिकारी की शिकायत होती थी कि चुनाव निष्पक्ष नहीं कराया गया। दोनों चुनाव अधिकारी को अपनी बाखर में ठहराकर यह संदेश देना चाहते कि उसका पलड़ा भारी है, जिसके घर अधिकारी नहीं ठहरता वही बखेड़ा खड़ा करता।

मैंने ठाकुर से पूर्ण विनम्रता से बात की। गाँव के विकास में उसके पिता और उसके द्वारा रूचि लिए जाने की (झूठी) सराहना की, पंडित की बिना नाम लिए संकेतों में आलोचना की। यह भी कहा कि चुनाव दल उनका मेहमान है। सवाल उनकी प्रतिष्ठा का है कि इसे कष्ट न हो। ठाकुर ने तैश में कहा किसकी मजाल है जो कुछ गड़बड़ करे। कोटवार को पहले समझा चूका था, उसने कहा- मालगुजार! साब जमीन पे पौढ़ रहे हैं, का हुजूर बखरी से खाट लै आऊँ? ठाकुर की आन का सवाल था डपट कर बोले 'पलगा, बिस्तर, लालटेन लाकर ठीक व्यवस्था करो, कछू सिकायत नई होय का चाही नई तो खाल में भूसा भरा देई।' कोटवार ''हौ हुजूर'' कह के बखरी की तरफ दौड़ गया। मेरे पास खाद्य सामग्री पर्याप्त थी पर शिक्षक और सिपाही के पास पर्याप्त नहीं थी। सिपाही तो जुगाड़ जमा भी लेते, शिक्षकों को कौन देता?
- क्रमश:

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