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गुरुवार, 22 मार्च 2018

दोहा शतक सुरेश कुशवाहा 'तन्मय'

ॐ 
दोहा शतक 
सुरेश तन्मय 




















जन्म: प्रदेश।
आत्मजा: ।
जीवन साथ: ।
शिक्षा: ।
लेखन विधा: दोहा, गीत, नवगीत, कविता, , लघुकथा, ग़ज़ल, नज़्म, पोएट्री आदि।
प्रकाशित: । 
उपलब्धि: । 
संप्रति: । 
संपर्क:  
चलभाष:  
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दोहा शतक 

अभिलाषाएँ अनगिनत, सपने कई हजार। 
भ्रमित मनुज भूला हुआ, कालचक्र की मार।। 
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दोहरा जीवन जी रहे, सुविधाभोगी लोग। 
स्वांग संत का दिवस में, रैन अनेकों भोग।। 
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पानी पीते छानकर, जब हों बीच समाज। 
सुरापान एकांत में, बड़े-बड़ों के राज।। 
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योगी बन पाए नहीं, उपयोगी बन आप। 
दायित्वों के साथ कर, परहित तजिए पाप।। 
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करता अभिनय राम का, लीला में वह ख़ास। 
मात-पिता को दे दिया, बिन सोचे वनवास।। 
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सभी मुसाफिर है यहाँ, जाना है किस ओर। 
ज्ञात नहीं है किसी को, मंत्री संत्री चोर।। 
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लगा रहे हैं कहकहे, कर के नित दातौन। 
मटमैली सी देहरी, सकुचाहट में मौन।। 
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मोहपाश में है घिरा, अर्जुन सम जनतंत्र। 
कौरव दल के बढ़ रहे, मायावी षडयंत्र।। 
*   
ठहर गई है जिंदगी, मौन हो गए ओंट । 
रूके पाँव उम्मीद के, गुमसुम-गुमसुम चोट।। 

भूल गए सरकार जी, आना अपने गाँव।  
छीन ले गए थे कभी, मेलजोल की छाँव।। 
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शकुनी से पाँसे चलें, ये सरकारी लोग। 
तब तक खुश होते नहीं, जब तक चढ़े न भोग।। 
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जबसे मेरे गाँव में, पड़े शहर के पाँव। 
भाई-चारे हारता, जीते नफरत दाँव।। 
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लिखते पढ़ते सीखते, बढ़े आत्मविश्वास। 
मंजिल पर पहुँचे वही, जिसने किए प्रयास।। 
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रिश्तों की संवेदना, संबंधों की भाप। 
उम्मीदों की बर्फ से, कौन सका है नाप।। 
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पलँग बिछौने सुस्त है, कुर्सी पूछे कौन?
टेबल पर अखबार है, पड़ा बिनपढ़ा मौन।। 
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लगे चिढ़ाने वे सभी, अभिनंदन-सम्मान। 
जिनके दम पर हम कभी, दिखलाते थे शान।। 
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आँगन धमकाने लगा, गली-सड़क सुनसान। 
परछी-कमरे अजनबी , भूल गए पहचान।। 
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ताने मारे देहरी, हँसता रोशनदान। 
दरवाजे बूढ़े हुए, जर्जर हुआ मकान।। 
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सिसक रही हैखिड़कियाँ, दीवारें हैं मौन।  
ढीठ फर्श की बेरुखी, छत पूछे: 'तुम कौन?'  
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अलमारी आलस भरी, किंचित नहीं उछाह। 
हुई अनमनी पुस्तकें, किसको है परवाह।। 
*   
पर्दे बेपर्दे हुए, चौखट चतुर सुजान। 
साँकल-कुंदे दे रहे, हमें विरागी ज्ञान।। 
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लगा डराने आईना, म्लान हुई मुस्कान। 
बालकनी ने कह दिया, कुछ दिन के मेहमान।। 
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दीवारें बहरी हुई, अंधे हुए किवाड़। 
गूंगा गुल्लक है व्यथित, पल-छिन हुए पहाड़।। 
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जीवन-चादर में हुए, छोटे-बड़े सुराख। 
छिपा न पाए बढ़ रहे, कोशिश कर ली लाख।। 
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खुद को जब धो-माँज लें, तब करिए प्रभु-जाप। 
बाहर-भीतर एक हो, मिटे सकल संताप।। 
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स्वयं हाशिये पर चले, नियत उम्र के बाद। 
बना रहेगा अंत तक, परिजन-सुख-संवाद।। 
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रखें भरोसा स्वयं पर, है सब कुछ आसान। 
पढ़ें-लिखें, सीखें-सुनें, बने अलग पहचान।। 
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जब जीवन की जंग में, लगे टूटने आस। 
इसके पहले जीत लें, हम सबके विश्वास।। 
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चलते-चलते एक दिन, रूक जाएगी श्वास। 
लेखे-जोखे कर्म के, होंगे प्रभु के पास।। 
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जन्म हुआ तो मृत्यु भी, होना ही है सत्य। 
बना रहें संकल्प यह, करते रहें सुकृत्य।। 
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पन्ना-पन्ना लिख दिया, चुकता किया हिसाब। 
अब पढ़ना है ध्यान से, खुद की लिखी किताब।। 
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ओढ़ रजाई मखमली, जाग रहे बेचैन।
स्वेद-गंध, श्रम के बिना, करवट-करवट रैन।। 
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बनी रहीं पगडंडियाँ, जीवन भर अवरोध। 
इनमें ही उलझे रहे, रहा न खुद का बोध।। 
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शहर जागते रैन-दिन, क्र न सकें विश्राम। 
सरपट दौड़े जिंदगी, घोडा बिना लगाम।। 
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आते-जाते भीड़ में, अनजानी मुस्कान। 
प्रमुदित मन ठंडक मिले, अनुपमेय यह दान।। 
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हँसी-ठिठोली-दिल्लगी, तब ही बढ़ती मीत । 
जब न कहीं अवमानना, दस दिश मिलती प्रीत।। 
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संबंधों की राह में, आते कितने मोड़। 
कहीं प्रीत पगडंडियाँ, मार्ग कहीं दे छोड़।। 
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चौके-चूल्हे बँट गये, बाग बगीचे खेत। 
दीवारें उठने लगी, घर में फैली रेत।। 
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बूढ़ा बरगद ले रहा, है अब अंतिम श्वास। 
फिर होगा नव अंकुरण, पाले मन में आस।। 
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पढ़-लिखकर अफसर बना, भूल गया माँ-बाप। 
पेट काट सहते रहे, जो जीवन भर ताप।। 
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दर्पण में दिखने लगे, चेहरे विविध अनेक। 
खुद के भीतर झाँक सच, देख एक से एक।। 

चिन्ह समय के रेत पर, बनते-मिटते मौन। 
पल-पल परिवर्तन करे, मत पूछो कब-कौन।। 
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बुद्धि विलास बहुत हुआ, तजो कागजी ज्ञान। 
कुछ पल साधे मौन को, हो यथार्थ पर ध्यान।। 
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खुद ही खुद को छल रहे, खुद बनकर अनजान। 
भटक रहे हो भूलकर, खुद की ही पहचान।। 
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बदल रही हैं बोलियाँ, बदल रहे हैं ढंग। 
बौराये से फिर रहे, ज्यों खाए सब भंग।। 
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अनुत्तरित हम ही रहे, जब भी किया सवाल। 
हमें मिली अवमानना, उनको रंग-गुलाल।। 
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चमकदार संवेदना, रहें चमत्कृत शब्द। 
अधुनातन गायन-रुदन, तकनीकें उपलब्ध।। 
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हुआ अजीरण बुद्धि का, बढ़े घमंडी बोल। 
लौट शून्य पर आएगी, यह दुनिया है गोल।। 
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तृष्णाओं के जाल में, उलझे हैं दिन-रैन
सुख पाने की चाह में, और-और बेचैन।। 
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जीवन से गायब हुआ, शब्द एक संतोष
यश पद धन के लोभ में, किसको है अब होश।। 
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यश-अपयश के बीच में, बहती जीवन-धार
निश्छल मन करता रहे, जीव मात्र से प्यार।। 
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अति वर्जित हर क्षेत्र में, अति का नशा विचित्र। 
अति से दुर्गति ही सदा, छिटके सभी सुमित्र।। 

कब बैठे सुख-चैन से, नहीं किसी को याद। 
कल के सुख की चाह में, आज हुआ बर्बाद।। 
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फुर्सत मिलती है कहाँ, सबके मुख ये बोल। 
बीते समय प्रमाद में, खुद से करे मखौल।। 
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फैल रही चारों तरफ, यश की मुदित बयार। 
पेड़ सहेगा कब तलक, खिले पुष्प का भार।। 
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ज्यों-ज्यों खिलता पुष्प त्यों, बढ़े सुगंध अमंद। 
रसिक भ्रमर मोहित हुए, पीने को मकरंद।। 
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कागज के संग कलम का, है अलिखित अनुबंध। 
प्रीत पगी स्याही मिले, रचें मधुरतम छंद।। 
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आदर्शों की बात अब, करना है बेकार। 
छल-छद्मों से घिर गये, हैं आचार-विचार।। 
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सजा मिले सच बोलते, झूठों की जयकार। 
हवा भाँपकर जो चले, उसका बेड़ा पार।। 
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जाति-धर्म, दल -पंथ के, भेदभाव दे त्याग। 
समता भावों से मिले, जीवन में अनुराग।। 
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पथरीली पगडंडियाँ, उस पर नंगे पाँव। 
चिंताओं के बोझ से, गुमसुम सारा गाँव।। 
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बारिश में कीचड़ लगे, गर्मी जले अलाव। 
ठंडी ठिठुराती यहाँ, फसल बिके बेभाव।। 
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गाँव ताकता शहर को, शहर गाँव की ओर। 
इधर-उधर का सिलसिला, देख चकित है भोर।। 
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गाँव ताकता शहर को, शहर ताकता गाँव। 
लगे केक्टस घेरने, अब तुलसी के ठाँव।। 
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नव विकास की आँधियाँ, उड़ा ले गयी गाँव।
आँगन में बाकी नहीं, कहीं नीम की छाँव।। 
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पड़ी दरारें खेत में, आया सूखा साल। 
भूख प्यास संत्रास से, पशु-धन है बेहाल।। 
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पेड़ सभी कटने लगे, जो थे चौकीदार। 
कौन नियंत्रित अब करे, मौसम के व्यवहार।। 
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कलप रही है कल्पना, कुढ़ता रहा समाज। 
साहुकार की डायरी, चढ़ा ब्याज पर ब्याज।। 
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ऊब गयी है जिंदगी, गिने माह दिन साल। 
रीता मन कृशकाय तन, खोजे पंछी डाल।। 
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नव संस्कृति के दौर में, संस्कृति विकल उदास। 
रंग-ढंग बदले सभी, बदले वस्त्र लिबास।।   
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देह दिखाते चल रहे, भीड़ भरे बाजार। 
बदन उघाड़े घूमते, अधुनातन परिवार।। 
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बदले घर-बाजार में, क्रय-विक्रय संबंध। 
विज्ञापन भ्रमजाल में, उलझे है मतिमंद।। 
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कभी हँसे, रोए कभी, हो बाजारू नैन। 
भाग-दौड़ की जिंदगी, पल भर मिले न चैन।। 
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भूल रहे निज बोलियाँ, भूले निज पहचान। 
नव विकास की दौड़ में, भटक गया इंसान।। 
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नव विकास की दौड़ में, मची हुई है होड़। 
अपना अपनापन रहे, हम ही पीछे छोड़।। 
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हो जाने पर गल्तियाँ, या कोई अपराध। 
आत्म-ग्लानि होती नहीं, होता नहीं विषाद।। 
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प्रगतिवाद के दौर में, संस्कृति का उपहास। 
निजता पर भी अतिक्रमण, भस्मासुरी विकास।। 
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रहा न पानी आँख में, हुई निर्वसन लाज। 
उच्छृंखल वातावरण, निडर विचरते बाज।। 
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टूटे अब दिल फूल से, पैसे हुए दिमाग। 
दिल-दिमाग गाने लगे, हँस दरबारी राग।। 
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सम्मानों की चाह में, भटकें कितना और। 
क्रय-विक्रय तुक-तान का, यह साहित्यिक दौर।। 
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पाल कीर्ति-सम्मान की, मन में चाह अथाह।
करूणा सेवा प्रेम से, हम हैं बेपरवाह।। 
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अखबारों में छप रहे, प्रतिदिन फोटो-नाम। 
सम्मानों के मोह में, चुका रहे हैं दाम।। 
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बेशर्मी से कर रहे, खुद ही खुद का गान। 
बजा रहे हैं तालियाँ, अग्रगण्य मेहमान।। 
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आत्मप्रशंसा में निपुण, ज्ञान ध्यान के बोल। 
ओढ़ मुखौटे सर्वदा, बने रहे अनमोल।। 
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गीत-गज़ल में गिनतियाँ, ह्रस्व-दीर्घ के खेल। 
भाव हाशिये पर पड़े, बिन इंजन की रेल।। 
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छंद मुक्त के नाम पर, कविताओं के ढेर। 
एक शब्द कर्नाटका, एक शब्द अजमेर।। 
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भीतर की बेचैनियाँ, अर्थहीन संवाद। 
फीकी मुस्कानें लगे, बातचीत बेस्वाद।।  
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बरगद पीपल नीम का, है पावन संयोग। 
त्रिविध ताप से मुक्त कर, हरे कष्ट भय रोग।। 
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पेड़ों से छनकर हवा, करती हमें निरोग। 
घनी छाँह आश्रय बने, सुख पाते सब लोग।। 
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खेत कटे जंगल कटे, तनते भवन विशाल। 
अपने ही विध्वंस को, आमंत्रित है काल।। 
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सूर्य ताप बढ़ने लगा, बादल करे विलाप। 
अस्त -व्यस्त ऋतुएँ हुईं, उन्नति का अभिशाप।। 
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जल जंगल की शुद्धता, रखें सर्वजन ध्यान। 
बचें प्रदूषण से सदा, हो सबका कल्याण।।  
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जंगल में मंगल रहे, शहर गाँव गौठान। 
हँसी-खुशी गाते रहे, जन-जन मंगलगान।। 
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निश्छल सेवा भाव से, मिले परम संतोष। 
मिटे ताप मन के सभी, संचित सारे दोष।। 
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बीजगणित के सूत्र सम, जटिल जगत संबंध। 
उत्तर संशयग्रस्त है, प्रश्न हुए स्वच्छंद।। 

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चार बरस की जिंदगी, पल-पल क्षरण विधान। 
श्वास-श्वास नित मर रहे, मूल्य समय का जान।। 
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शुभ संकल्पों की सदा, गागर भरले मीत। 
जितना बाँटे भुला दे, बढ़ा सभी से प्रीत।।   
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कर्म अशुभ करते रहे, दुआ न आए काम। 
मन की निर्मलता बिना, नहीं मिलेंगे राम।। 
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जब-जब सोचा स्वार्थ-हित, तब-तब हुए उदास। 
जब भूले हित स्वयं के, हुआ सुखद अहसास।। 
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यह जीवन फिर हो न हो, आगे सब अज्ञात। 
भेदभाव की बेड़ियाँ, भूलो जात-कुजात।। 
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मिल-बैठें सब प्रेम से, यदि हो भिन्न विचार। 
कहें-सुनें सम्मान दें, बढ़े परस्पर प्यार।। १०१  
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शिकवे तो हमसे रहे, उनसे क्यों बतियाय
आओ मित्र हमें कहो, आपस में सुलझाय
शांतचित्त सोचें सभी, खोजें नये उपाय
छलनी छाने जो मिले, सारतत्व अपनाय
रंग-रूप छोटे-बड़े, अलग-अलग सब लोग
भिन्न-भिन्न मत-धर्म है, यही सुखद संयोग
सत्कर्मों के पेड़ पर, यश-कीर्ति फल-फूल
ध्यान रहे यह सर्वदा, रहें सींचते मूल
धैर्य धर्म का मूल है, सच इसके सोपान
पकड़ मूल सच जो पढ़े, वे ही हुए महान
बंजारों सा दिन ढला, मेहमानों सी रात
रैन-दिवस में कब-कहां, काल करेगा घात
रोज रात मरते रहे, प्रात: जीवन दान
फिर भी हैं भूले हुए, खुद से ही अनजान
सोते ही रह जाएंगे, एक दिन अंतिम बार
प्राण हंस उड़ जाएगा, इस दुनिया से पार
कांकरीट सीमेंट संग, दिल भी हुए कठोर
मीठे वचनों की जगह, तू-तू मैं-मैं शोर
जब-जब श्रीफल शॉल संग, पड़े गले में हार
तब-तब गर्वित हो बढ़ा, अहंकार का भार
शब्दों की चौपाल में, मची हुई हुड़दंग
सबके अपने तर्क हैं, सबके अपने ढंग
जब होता बेचैन मन, सब कुछ लगे उदास
करे कोई परिहास तो, लगे वही उपहास
एक-दूजे का कर रहे, आपस में गुणगान
गिरगिटियों के रंग से, जनता है हैरान
रंग-बिरंगी झंडियां, शुरू हो गये स्वांग
समय-बेसमय दे रहे, शहरी मुर्गे बांग
परजीवी काई अगर, नहीं हटायी जाय
निज स्वरूप ढंक जाएगा, ज्ञान ध्यान भरमाय
कौन भरे जल नारियल, सरस संतरे आम
एक बीज हो सौ गुना, है यह किसका काम
देहरी मंगलदीप हो, संध्या वंदनगान
आपस में सद्भावना, वह घर तीर्थ समान
सच को सच समझें तभी, साहस का संचार
तन-मन नित हर्षित रहे, उपजे निश्छल प्यार
भीतर-बाहर एक से, है जिनके व्यवहार
जीवन में उनके सदा, रहती सुखद बयार
दुख के दरवाजे घुसी, आशाओं की बेल
लिपटी हरित बबूल से, दूध-छांछ का खेल
कुछ पद पैसों से बिके, कुछ रिश्तों के लोग
शेष सिफारिश में गये, लोकतंत्र उद्योग
सीप पिये मोती बने, स्वाति जल की बूंद
भीतर उतरें मौन हो, देखे आंखें मूंद
मिटा दिए अपने किये, लिखे कहे सब बोल
जो न लिखे न कह गये, वे ही हैं अनमोल

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