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गुरुवार, 1 मार्च 2018

samiksha


कृति चर्चा:


‘दृगों में इक समंदर है’ समाहित गीतिकाव्य का निनादित प्रवाह  
-    आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
[कृति विवरण: दृगों में इक समंदर है, हिंदी गीतिका / मुक्तिका संग्रह, प्रो. विश्वंभर शुक्ल, प्रथम संस्करण, २०१७, ISBN ९७८-९३-८५४२८-३७-१, पृष्ठ ११६, मूल्य १२५/-, आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, उद्भावना प्रकाशन, एच ५५ सेक्टर २३, राज नगर गाज़ियाबाद, रचनाकार संपर्क ८४ ट्रांस गोमती, त्रिवेणी नगर–प्रथम, डालीगंज रेलवे क्रोसिंग, लखनऊ २२६०२०, चलभाष ९४१५३२५२४६, ईमेल vdshukla01@gmail.com]
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हिंदी गीति काव्य के जैसी  सरस, सहज, सरल काव्य माधुरी विश्व की अन्य किसी भी भाषा में नहीं है. संस्कृत से विरासत में प्राप्त हिंदी पिंगल शास्त्र में हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह अगणनीय छंद वैविध्य, अनगिनत शिल्प प्रकार तथा अकल्पनीय भाव भंगिमाएँ हैं. गीति-काव्य की चार पंक्तियों से अधिक लम्बी ऐसी काव्य रचनाएँ जिनमें तुकांत-पदांत प्रमुख लक्षण हो, मुक्तिका या गीतिका कही जा रही हैं. हिंदी के गढ़ लखनऊ के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यविद प्रो. विशम्भर शुक्ल रचित दृगों में इक समंदर को पढ़ना सम-सामयिक और आधुनिक गीति-काव्य की नवीन्तन और अद्यतन भावमुद्राओं से साक्षात करने की तरह है. प्रो. शुक्ल हिंदी काव्य ही नहीं अर्थशास्त्र के भी विद्वान हैं. अर्थशास्त्र में उन्होंने अधिकतम उपयोगिता, उपयोगिता ह्रास और मितव्ययिता छात्रों को तो पढ़ाया ही काव्यशास्त्र के क्षेत्र में उसका भरपूर उपयोग भी किया है. फलत: उनकी गीति रचनाओं में शब्दों का अपव्यय देखने नहीं मिलाता. वे उतना ही लिखते हैं जिससे पाठक में और पढ़ने की प्यास शेष रह जाए. उनकी रचनाएँ नपी-तुली, संतुलित अभिव्यक्ति की जीवंत बानगी प्रस्तुत करती हैं. 

अधुनातन दृष्टिकोण के साथ पारंपरिक सनातनता का सम्मिश्रण करने का नैपुण्य उनके शिक्षक ने उनके जीवन का अंग बना दिया है. अत: ‘दृगों में इक समंदर है’ का श्री गणेश माँ वाणी को नमन से होना स्वाभाविक है. इकतीस वर्णिक सरस्वती वंदना में मनहरण घनाक्षरी कवित्त का प्रयोगकर रचनाकार अपनी छांदस परिपक्वता का आभास करा देता है. इस छंद के विधान ८-८-८-७ पर लय को वरीयता देता कवि माँ शारदा आँगन की तुलसी से घर को महकाने की प्रार्थना करता है-
भोर मुसकाती आई संग  मुसकाइये                                                   
मातु वीणावादिनी की वीथिका सजाइए
खोलते प्रसून कहें जीवन में रंग भरें
लेखनी की तूलिका से चित्र तो बनाइये
आ गए मुंडेर पर विहाग विहान लिए
सूर्य को प्रणाम कर सृजन जगाइए
तन-मन शुद्ध है तो सारे सुख जगती के
आँगन की तुलसी से घर महकाइए
बेला है सृजन की तो भाव अलबेले हों
वाणी को नमन कर लेखनी उठाइये

रचना में पदांत में व्यवहृत क्रिया पद के अंत में ‘ए’ और ‘ये’ दोनों का प्रयोग चौंकाता है. केन्द्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा जारी ‘देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण’ के अनुसार जिन शब्दों में मूल रूप से ‘य’ और ‘व’ शब्द के अंग हों उनके साथ ‘ये’ का उपयोग आवश्यक है, शेष के साथ ‘ए’ का.

मानव जातीय हाकली छंद से सादृश्य रखता यौगिक जातीय विधाता छंद में रचित ‘आखर शब्द पराग लिखो’ में कवि ने अपेक्षाकृत छोटे छंद का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है-
जीवन में अनुराग लिखो
प्रतिदिन प्रखर विहाग लिखो
सुमन सुहाने मुस्काएं
आखर, शब्द, पराग लिखो
प्रकृति नटी के रँग निरखो
पर्वत, बादल, आग लिखो
धीर समंदर लहरें भी
नदिया, कूप, तड़ाग लिखो
मन में जो भी भाव जगें
उन सबको बेलाग लिखो
गहन तिमिर में चमके जो
धवल मनुज का भाग लिखो

राष्ट्रीय भावधारा के प्रबल समर्थक विशम्भर जी ‘मातु भारती अभिनन्दन’ शीर्षक रचना में माँ भारती का वंदन करते हैं. इस रचना में विधाता छंद का प्रयोग करते समय शुक्ल जी पदांत के ‘गुरु गुरु’ को ‘गुरु लघु लघु’ कर प्रयोग करते हैं. इस परिवर्तन से यह छंद यौगिक जातीय  होते हुए भी विधाता नहीं रह जाता. मैंने ऐसे लगभग ४०० छंदों का अन्वेषण कर लेखानाधीन ‘छ्न्द कोष’ में उन्हें स्थान दिया है किंतु इस कृति के प्रकाशन तक इस छंद का भिन्न नाम न होने से इसे संकर विधाता ही कहना होगा.

कृति के अभिकथन में भोपाल निवासिनी कवयित्री कांति शुक्ल जी ने विशम्भर की के काव्य लेखन में कथ्य की संक्षिप्तता, शिल्प की सांगीतिकता, छंदानुशासन के साथ भाव प्रवणता तथा सहज सम्प्रेषणीयता को उनका वैशिष्ट्य उचित ही बताया है. कांति जी ने इन रचनाओं में समाज के मर्म को समझने की सामर्थ्य, विद्रूपताओं और विसंगतियों को इंगित कर दिशा-दर्शन, अर्थ गाम्भीर्य, भाव सूक्ष्मता, रसोद्रेक, पारदर्शिता, सामयिकता आदि का सम्यक संकेत किया है.

हिंदी साहित्य के प्रखर अध्येता और विद्वान् डॉ. उमाशंकर शुक्ल ‘शितिकंठ’ ने इन रचनाओं को ‘’भावों और विचारों की सहज प्रवाही और बहुरंगी दीप्ति से उद्भासित’’ ठीक ही कहा है.

व्यंग्यकार-दोहाकार अरुण अर्णव खरे शुक्ल जी के सृजन में अन्तर्निहित जीवन-दृष्टि, गहन-समझ और सशक्त अभिव्यक्ति को सहज सोकोमल भावनाओं, मानवीय संवेदनाओं से संगुम्फित पाते हैं.

शुक्ल जी समाज की नब्ज़ पर अँगुली रखकर काव्य साधना करते हैं. वे भारतीयों द्वारा खुद के कर्तव्य की अवहेलना कर अन्यों को सुझाव देने की दुष्प्रवृत्ति से सुपरिचित हैं. पर्यावरण प्रदूषण, सामाजिक बिखराव तथा कर्तव्य बोध की कमी को एक ही रचना में गूंथकर वे परिवर्तन का आव्हान करते हैं-
आओ कुछ बात करें गति के ठहराव की
उफनाई नदी और बंधी हुई नाव की
अलग-अलग आँगन हैं, व्योम पृथक सबके
दंगों की क्यारी में फसलें सद्भाव की
दीवारें कब विवस्त्र हो जाएं क्या पता
बंद अभी रहने दो पुस्तिका सुझाब की.

शुक्ल जी भारतीय वांग्मय के मिथकों का वर्तमान सन्दर्भों में कुशलता से उपयोग कर पाते हैं-

हमने उंगली पे उठाये पर्वत / कृष्ण देखे हैं, पुरंदर देखे
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जन्मता नहीं न होता नष्ट / त्यागकर वसन, गहे आकार
कृष्ण ने दिया यहे संदेश / कर्म ही श्रेष्ठ, शेष निस्सार
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विष ही नहीं, अमिय पा जाते / करते कुछ दिन मंथन लोग
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बीस मात्रिक महादैशिक जातीय अरुण छंद में ‘छंद हैं प्यास के’ शीर्षक रचना कम शब्दों में अधिक बात कह सकने की सामर्थ्य की बानगी है-
छंद हैं प्यास के / मूक विश्वास के
रश्मियों ने लिखे / गीत मधुमास के
दिन सहेजे गए / हास-परिहास के
उम्र ने पल जिए / सिर्फ उल्लास के
व्यर्थ अनुबंध ये / दूर हैं पास के
शेष हैं कोष में / फल ये संत्रास के

सामान्यत: हिंदी छंदों से अनभिग्य युवा पीढ़ी और नव रचनाकारों के लिए शुक्ल जी का लेखन उन्हें उनकी जमीन से जोड़ने का सशक्त माध्यम हो सकता है. यदि रचनाओं के साथ पाद टिप्पणी में छंद का नाम और विधान इंगित हो तो अनुकरण आसन हो सकता है. प्रसाद गुण सम्पन्न भाषा सहज बोधगम्य है. शुक्ल जी शब्दों की सांझा विरासत के हिमायती हैं और अभिव्यक्ति की आवश्यकतानुसार शब्दों का प्रयोग करते हैं. ‘दृगों में इक समंदर है’ का स्वागत न केवल नवोदितों अपितु विद्वज्जनों द्वारा भी होगा. यह दरीचे से आटे ताज़ा हवा के झोंके की तरह है.

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com , web www.divyanarmada.in

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