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सोमवार, 5 मार्च 2018

??? ॐ doha shatak: om prakash shukla


मन को मन सौगात
दोहा शतक 
ओमप्रकाश शुक्ल 

चित्र में ये शामिल हो सकता है: ओम प्रकाश शुक्ल

जन्म: ९.५.१९७७, बरौंसा, सुलतानपुर, उत्तर प्रदेश
काव्य गुरु:
आत्मज: श्रीमती सरस्वती देवी-स्व. रामकिशोर शुक्ल
जीवन संगिनी: श्रीमती नीता शुक्ल
शिक्षा: स्नातक
लेखन विधा: दोहा, कविता, लेख आदि
प्रकाशन:गाँधी और उनके बाद (काव्य संग्रह)
उपलब्धि: 
सम्प्रति: उत्तर रेलवे परिचालन विभाग में कार्यरत, महासचिव युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच
संपर्क: १२२, गली क्रमांक ४/७ सी.आरपी. ऍफ़. कैम्प के सामने, बिहारी पुर विस्तार, दिल्ली ११००९४
चलभाष: ९७१७६३४६३१, ९६५४४७७११२, ईमेल: shuklaop07@gmail.com
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संविधान पर देश के, व्यर्थ करें अभिमान।
निर्धन पिसता- दिखाता, ठेंगा हँस धनवान।।
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लूटें दोनों हाथ से, मिलकर पक्ष-विपक्ष।
सगा देश का कौन है, प्रश्न न सुलझे यक्ष।।
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हिंदी गंगा हो गई, उर्दू यमुना रूप।
बँटवारा जो कर रहे, वें मेंढक बिन कूप।।
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कड़वे-कड़वे बोल ने, दूषित किए विचार।
निज मन में लो झाँक तुम, कर न गैर पर वार।।
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संझा फगुवा सी हुई, प्रातः हुआ बसंत।
देख छटा सुखदायनी, अंतर्मन है संत।।
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दिखे अलग अंदाज अब, बदल गए हैं भाव।
मित्र समझते हम जिन्हें, रखते वे अलगाव।।
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मन से मन में झाँककर, कर लो मन की बात।
मिल जाएगा प्रेम दो, मन को मन सौगात।।
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राजनीति में व्यर्थ ही, होते वाद-विवाद।
नेता गलबहियाँ करें, जनता में अवसाद।।
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भरें खजाना टैक्स दे, सज्जन है संयोग।
निर्धन हित त्यागें- धनिक, लूट कर रहे भोग।।
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अपनी कहकर चल दिये, ज्ञानी जी हर बात।
औरों की सुन लें न हों, तब घायल जज्बात।।
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मै, मेरा, मुझको हुई, जीवन की पहचान
अगल-बगल मैं देखता, साथ खड़े भगवान
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वाह-वाह का दौर है, वाह-वाह बस वाह।
झूठ-मूठ की आह है, झूठ-मूठ की चाह।।
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व्यस्त हुआ कुछ इस तरह, हुए प्रभावित काज।
रूखा-रूखा सा लगे, गृह-मन देह-समाज।।
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शिव भजने का दम भरे, राम न कर स्वीकार।
यह दो तरफा आचरण, शिव ने दिया नकार।।
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भक्त न होना किसी के, नहीं किसी के दास।
सत बोले कवि-लेखनी, यह मन की अरदास।।
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ऐसे लोगों से बचो, जिनके मन में चोर।
औरों को दोषी कहें, कब देखें निज ओर।।
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कड़वे-कड़वे बोल हैं, दूषित उग्र विचार।
निज मन में झाँके बिना, करें गैर पर वार।।
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कारण कोई हो न हो, करना मात्र विरोध।
चाटुकारिता ओढ़ना, राजनीति का बोध।।
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कविता करती कल्पना, मैं मेरा संसार।
प्रिय! तुम होती क्यों खफा, यह कवि का अधिकार।।
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धाक जमाए बैठते, संसद में जा चोर।
आना चाहे साधु यदि, करें श्वान सम शोर।।
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भारत की कर दुर्दशा, ठठा रहा शैतान।
रहे ताकता जो कहो, कैसा वो इंसान।।
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मस्जिद में होती रहे, पाँचों वक्त नमाज।
मंदिर-पूजन पर कहो, बदले क्यों अल्फाज।।
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मन में रखकर द्रोह वे, करते नित्य हलाल।
मित्र बने बस स्वार्थवश, साथ रहें बन काल।।
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बाबा साहेब रच गए, ऐसा मस्त विधान।
पैसा हो तो आप भी, रखो जेब श्रीमान।।
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कब तक सहता दाब की, बातों को सरकार। हाँ मैं भी इंसान हूँ, कुछ तो हैं अधिकार।।
* निज हित साधो शौक से, जब तक निज परिवेश। निज हित पर यदि चोट हो, तुरत छोड़ दो देश।।
* लूट रहे हैं देश को, सब मिल कर्णाधार। किस-किस पर विश्वास हो, किसे कहें गद्दार।।
* जिसने मन से कर लिया, श्री हरि को स्वीकार। करते हैं श्री हरि उसे, पल में अंगीकार।।
* औरों को क्या दोष दूँ, लगा व्यर्थ आरोप।
कृत्य स्वयं के हैं बुरे, कहे ईश का कोप।।
* होना अब यह चाहिए, सख्त बने कानून। कम से कम सबको मिले, हक से मकुनी नून।।
* मन से मन में झाँक कर, कर लो मन की बात। मिल जाएगी आपको, पुनः प्रेम सौगात।।
* जिए-मरे जो शान से, जन-जन करता याद। किया सार्थक नाम को, रहे सदा आज़ाद।।
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राजनीति के कृत्य अब, हुए कोढ़ में खाज। वक्त करे जाया उसे, मूरख कहे समाज।।
* मठाधीश साहित्य का, दें मुझको उपहार। सब मिलकर करते रहें, मेरी जय-जयकार।।
* साथ रामद्रोही लिए, चाहे शिव हों तुष्ट। मूरख को समझाइए, शिव जी होंगे रुष्ट।।
* राजा-मंत्री बन गए, चोर-सिपाही खेल। देश जा रहा भाड़ में, करते ठेलमठेल।।
* राजनीति की दुर्दशा, गर्दभ-काग भतार। चले नीति पर जो हुई, तुरत सुनिश्चित हार।।
* मन क्यों हर पल खोजता, है औरों के दोष। भीतर अवगुण छिपाए, बैठा कर संतोष।।
* राजनीति के दायरे, में मजदूर-किसान। पैसा हो तो आप भी, लो खरीद श्रीमान।।
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कडुए-कडुए बोल हैं, दूषित-मलिन विचार। निज मन में मत झाँकिए, करें अन्य पर वार।।
* शंभु राममय देखिए, राम शंभुमय जान। तन-मन-धन अर्पित करो, कष्ट हरें हनुमान।।
* नहीं किसी के भक्त हो, नहीं किसी के दास। सत-शिव-सुंदर लिख सदा, हो पूरी अरदास।।
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दोहे में दंगल कहाँ, रस की पड़े फुहार। मन से मन का हो मिलन, झूम उठे संसार।।
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निज पुरखों के कृत्य का, करते हो परिहास। किया भला क्या आपने, पूछेगा इतिहास।।
* करता छल, चोरी-कपट, मन में नहीं मलाल। देख मनुज-दुष्कृत्य को, हँसते दीनदयाल।।
* मानव क्यों निर्णय करे, सही गलत है कौन। निर्णयकर्ता ईश्वर, देख रहा है मौन।।
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सूर्यवंश रघुकुल-हुए, मध्य दिवस श्री राम।
चंद्रवंश यदुकुल जने, मध्य रात्रि घनश्याम।
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शुभ दिन को साझा करो, करो न कोई भूल
नव वित्तीय बरस मना, कहते-बनते 'फूल'
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सबको सबका हक मिले, कदम-कदम हो न्याय
ऐसा हो कानून जो, रहे धर्म पर्याय
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कृषक-देश की दुर्दशा, करते कर्णाधार
धर्म-जाति को खा रहे, लेते नहीं डकार
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कुनबे-कुनबे में बँटा, आज देश का मान
राष्ट्र-विरोधी कृत्य कर, चाहें निज सम्मान
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अगला-पिछला जोड़कर देते फल भगवान्
इसीलिये गीता कहे, रखो कर्म का ध्यान
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'माँ' पुकारते बीतता, दुःख-पीड़ा का काल
उस माता को भुलाकर, खोज रहे सुख लाल
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उन्तालिस हिंदू मरे, नहीं किसी को दर्द
राजनीति में पड़ गई, नैतिकता पर गर्द
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स्वार्थ हेतु बाँटा गया, बार-बार संसार
जाति-धर्म-भाषा बनीं, नफरत का आधार
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सुख से रहने का नहीं, मानव करे प्रयास
जितना पाया कम लगा, बढ़ी और की प्यास
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सुख-दुःख दोनों बंधु सम, हरदम रहते साथ
दोनों को सम-मान दो, कृपा करेंगे नाथ
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राजा करता कर्म रख, निज मन में संतोष
पाया कम कह भिखारी, दे विधना को दोष
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भू-संसाधन का करें, कम-से कम उपभोग
पुरखों से पा दे सकें, बच्चों को कर योग
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पीड़ा हर सकते नहीं, तो क्यों देते मीत?
मानव होकर भूलते, मानवता की रीत
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अपना अनुभव बाँटिए, उन्नत हो संसार
ज्ञान न जो साझा हुआ, मिट जाता बेकार। ६१
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