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शनिवार, 24 मार्च 2018

दोहा शतक श्यामल सिन्हा

दोहा शतक 
श्यामल सिन्हा















जन्म:
आत्मज:
जीवन संगिनी:
शिक्षा: 
प्रकाशन:
उपलब्धि:
सम्प्रति:
संपर्क: 


*
चित्रगुप्त मन में रहें, लग जाएगा पार। 
निराकार साकार हो, लेगा पार उतार।।
*
सागर हो तुम दया के, भरो सदा भंडार।
आशुतोष करिए कृपा, लें पूजा स्वीकार।।
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श्यामल कच्छप भले ही, करे आदि में देर।
कर प्रयास होता जयी, अगर न हो अंधेर।।
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माना बन सकता नहीं, तुलसी संत कबीर। 
क्यों ण माथ पर लगाऊँ, अक्षर-ब्रम्ह अबीर।।
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सपना बीता दुख भरा, आया मुदित प्रभात। 
आओ! दिन कर लें सुदिन, सार्थक कर लें बात।।
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प्यार पनपता प्रेम से, होते व्यर्थ अधीर। 
प्रेम बिना असफल सभी, राजा रंक वज़ीर।।
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श्यामाभित दोहा लिखें, श्यामल जैसे नीर।
धूप-छाँव सुख-चैनमय, हर लें आँसू-पीर।।
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दुख की तुरपाई करें, और रफू हो संग।
जब तन में हो हौसला, तब मन बने विहंग।।
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क्या कह दें गुरु आपसे, है मन में संताप। 
भाव-जाप नहीं जाने, तन करता है पाप ।।
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मन-बर्तन खाली हुआ, गरल भरा भंडार। 
ले आओ अमृत सुधा, बन कर तारनहार।।   
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भवसागर में डूबता, कौन लगाये पार। 
खोज रहा गुर-नाव को, पार लगे मझधार।।
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करता भूल सदा तभी, है खाली भंडार। 
सुपथ मिल गया सृजन का, शेष न रहा विकार।।
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आया था बाज़ार में, मन लेकर अविचार। 
शरण गही आचार्य की, अद्भुत हुआ सुधार।।
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भाल विराजे शशि जहाँ, शशिधर उनका नाम। 
नहीं मिले सबको कभी, उनका पावन धाम।।
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नहीं सोचता निष्कलुष, मन में है संताप। 
अंतर्मन में धधकती, ज्वाला अपने आप।।
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अहंकार मन में भरा,  तन-मन बहुत उदास। 
भटक रहा मन अकारण, मोती मिली न घास।।  
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कभी न भाया मन उसे, क्यों ललचाती हाय।
आस निराश न हो कहीं, बंद मिलन अध्याय।।
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मुझ सा अज्ञानी नहीं, रख पाता है सब्र।
हार न लेकिन मानता, भले रुला दे अब्र।।
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आ जाओ सब भूलकर, दिल में शेष न सब्र।
मौसम तुम्हें पुकारता, बीती यादें जब्र।।   
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आओ! मिलकर सँभालें, रिश्तों की दीवार।
बूँद-बूँद में समंदर, का कर लें दीदार।।
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तुरपाई दुख की करें, रफू शोक भी संग।  
मन में रखकर हौसला, तन हो सके विहंग।।
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तुम अनाथ के नाथ हो, रख दो सर पर हाथ। 
नहीं हाथ आते कभी, मेरे भोलेनाथ।।
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हर लो हर संकट-बला, आओ कृष्ण मुरार। 
भवसागर में नाव है, ले जाओ भव पार।।  
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धूप बुलाती सुबह की, बिखरी सुन्दर घाम। 
झूला झूले ओस भी, कर ले कुछ विश्राम।।
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मन का भेद न कह कभी, हाल न कर बेहाल। 
सुख जोड़ा तो खो गया, बाँटा मालामाल।।
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मन तन-साँचे में ढला, बढ़ता गया विकार। 
मिथ्या माया मोहती, भरमाता संसार।।
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न्याय कहा अन्याय दे, आनन-फानन हाल। 
जीवन कोल्हू बैल की, दुलकी- दुलकी चाल।।
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मेले में मन अकेला, भीड़ भरा संसार। 
मोहक माया जाल है, होते आर ना पार।।
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सरगम को जाने बिना, लगा रहे सुर आज। 
तबला डफली मूक हैं, ढोलक बेआवाज़।।  
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माया महाप्रपंचिनी, ठगती नर निरुपाय। 
नर औरों को ठग न खुद, बचने करे उपाय।।
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बासंती मौसम निरख, फागुन है बेहाल।
'श्यामल' गुझिया खा रहे, भूले रोटी-दाल।।
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कौन चाहता दर्द को, हँसी-खुशी की लूट।
मन आनंदित हो अगर, दुख से जाओ छूट।।
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प्यार परोसे आँख से, नेह दिखाये थाल। 
तीर चला चंचल-चिता, पूछ रही क्या हाल।।
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जिनको पाला प्यार से, वे भी हैं अब दूर। 
मजबूरी उनकी कहें, या वे हैं मगरूर।।
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कभी न श्यामल दूर था, हुआ नहीं मगरूर। 
कृपा आपकी हो सदा, सादर नमन हुजूर।।
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आँखें जब करने लगीं, आँखों से संवाद। 
आँखों में आँखें रखें, प्रेम-भवन बुनियाद।।
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मान रहे हैं स्वयं को, सारे गुण की खान। 
रिश्तों की कीमत नहीं, करें आप अपमान।। 
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आँखें जब करने लगीं, आँखों से संवाद। 
मन मुकुलित हो प्रीत से, डूब-डूब आबाद।।   
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नहीं कर सका साधना, जीवन हुआ मुहाल। 
सपना अपना नहीं है , फिर भी मालामाल।।
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कागज-कलम न वह रखे, अपने हाथ किताब।
सारी दुनिया का करे, पल-पल तुरंत हिसाब।।
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भुजा बढ़ा मिलते नहीं, उनको बहुत गुरूर। 
दिल से वो निकले नहीं, आँखों से हैं दूर।।
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नेह न अँखियों बरसता, कैसा आया फाग। 
हूक उठे डरता जिया, रात बिताई जाग।।
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नेह-तरसता मन सखी, आया देखो फाग। 
हूक उठे डरता जिया, हिया लग गई आग।।
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नैन हेरते पथ सखी, सूना-सूना फाग। 
लुक-छिपकर आए पिया, ननद न जाए।।   
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स्नेह जताया ह्रदय ने, ह्रदय कहे आभार। 
ह्रदय हँसा पाकर ह्रदय, कहा नमन साभार।।
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नहीं अश्रु है ज़िन्दगी, है मनहर मुस्कान। 
कभी ठिठकती शाम है,, मधुरिम कभी विहान।।
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औरों को छलते रहे, ले झूठी मुस्कान। 
नहीं लगे छलिया कभी, हो कैसे इंसान।। 
पा न सका तो क्या हुआ, पाली मन में चाह। 
चाहत फूलों की रही, किंचित रही न डाह।।
तार जुड़े रखना सदा, जीवन सके न हार।
सुन गुहार प्रभु! मान लूँ, तुमको तारणहार।।
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तेरे दर पर आ गया, लेकर कर में हार।
शुभाशीष पा मैं चला, चरणों में मन हार।।
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सीख रहा हूँ लिख सकूँ, समय लगे आचार्य।
पहला ख़त पा प्यार का, करें न अस्वीकार्य।। 
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हो काशी की सुबह या लखनऊ की हो शाम। 
मेरे संग चलती दुआ, सबको करूँ सलाम।।   
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श्यामल जी की कलम का, लोहा मानें छंद। 
नर तो नर खुश हो रहे, पढ-सुन आनंदकंद।।
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कितना भी टेढ़ा चले, जीत न सके वजीर। 
प्यादा बढ़कर भी नहीं, बनाता शाह अमीर।।
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महफ़िल में आ गए हैं, है कुछ बात ज़रूर। 
सबकी सुन ली आपने, हमसे सुनें हुज़ूर।।
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आलिंगन बस ख्वाब था, लगा नहीं कुछ हाथ। 
धागा कच्चा प्रीत का, बगिया बिना पराग।।  
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लाल गाल पर सज रहा, है गुलाल हो लाल। 
देख श्यामली को हुआ, चुप श्यामल बेहाल।।
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बहुत हुआ अब रूठ मत, चुका जा रहा सब्र।
आस टूटकर श्वास की, बना नहीं दे कब्र।।
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जीभ चिढ़ा ठेंगा दिखा, वह कर गई कमाल। 
नजर उठा देखा नहीं, मन में रहा मलाल।।
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आलिंगन के स्वप्न से, मन है मालामाल। 
धागे बुन कर प्रीत के, सचमुच हुआ निहाल।।
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प्रेम नगर तो खो गया, नीड़ नहीं है आज। 
शाहजहाँ कोई नहीं, कहीं नहीं मुमताज।।   
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पंख हुए बेहौसला, कैसे भरें उड़ान। 
औंधे मुँह सपने गिरे, नहीं बची पहचान।।
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प्यार परोसे हरि मिले, हरि-हर जोहे बाट। 
स्नेह बीज की खाद पर, फसल उगाए ठाट।।
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अविरल ही बहता रहा, इन आँखों का नीर। 
जाहिर कर नहीं पाया, मैं निज मन की पीर।।
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सुख बाँटे बढ़ता सदा, घट जाए दुख बाँट। 
सुख साझा करी सदा, दुख में भी हों ठाट।।
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लेती कब?, देती सदा, प्रकृति करें स्वीकार। 
पुलक प्यार दें प्यार को, रखती नहीं उधार।।
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सुंदरता तब ही भली, जब तज दे अभिमान। 
अपनेपन बिन कब लगे, अच्छा कहें मकान।।
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जीवन को खोने न दो, जीवन है अनमोल। 
बात है ये छोटी सी, नाप-तौल कर बोल।।  
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बेईमानों की खुली, देखो आज दुकान। 
चीनी में चीटे लगे, राम कहें कर दान।।
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बोते हैं सब कैक्टस, काँटे रहे न दूर। 
गैर हो गए खास अब, अपने गैर हजूर।।
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दीन-हीन को मत रुला, तुझे लगेगी आह। 
तू होगा बेचैन वे, बढ़ पाएँगे वाह।।
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महल बनाया घास का, आप बन गया शाह। 
शैय्या कर तृणमूल की, रहता बेपरवाह।।
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पढ़ते आए हैं नयन, मुख को बना किताब।
क्या पाया, क्या खो दिया, कभी न किया हिसाब।।   
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काम सदा करते रहे, लेकर तेरा नाम। 
जो पाया माँ से मिला, मन है माँ का धाम।।
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प्रेम साधना है अगर, करिए प्रीत अगाध। 
स्नेह-सलिल जो डूबता, हँसता रहे अबाध।।
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रहते हैं जो ताक में, रखते दुष्ट विचार। 
छुरी पीठ में घोपते, कर कलुषित आचार।।
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सुख-दुख में हो सँग सदा, नमन तुम्हें साभार। 
जीवन यूँ चलता रहे, होगा बेड़ा पार।।  
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जो रहते हैं ताक में, नाव बहे मँझधार। 
उन्हें बहता साथ ले, पल में भाटा-ज्वार।।
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बचपन की थी अमीरी, बच्चों के थे खेल। 
महल बनाए रेत के, माचिस की थी रेल।।
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बात न आस्था की करे, देखे मजहब-जात। 
आडंबर-हथियार ले, करे घात पर घात।।
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सच बोलो न असत्य तुम, गहो न संदल झूठ। 
दुनिया चाहे खुश रहे , या जाए जग रूठ।।  
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नगपति कहलाते मगर, चंद्र रखे अहिं माथ।   
विषधर गले लपेट दें, अमृत हाथों-हाथ।।
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बचपन सारा खो गया, बाकी बचा मलाल !
समय नहीं रूकता कभी, कैसे रखें संभाल।।
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बन जाता है कटु वचन, बिना धार औजार। 
दो-धारी तलवार बन, करता विकट प्रहार।।
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लहर उफनती आ गई, देख घाट की प्यास। 
आतुरता है मिलन की, मिलकर रहे न पास।।
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महल बनाया घास का, आप बन गया शाह। 
शैया कर तृणमूल की, रहता बेपरवाह।।
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बिखर गए रिश्ते सभी, बना अहम  दीवार। 
सबकी अपनी है व्यथा, कौन लगाए पार।।  
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राह ताकते कट गई, रात न आए तात। 
मन अधीर होता विकल, कटे न काली रात।।
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तुम मेरे स्वर-राग हो, रच दो कोई गीत। 
सुमधुर सरगम ताल हो, मन जीते मन जीत।।
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जानी ताल न सुर कभी, दिए जा रहे  थाप। 
सरगम  पहचाने नहीं, राग रहे आलाप।।  
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भय-चिंता किंचित नहीं, प्रभु हैं तारणहार। 
सुख-दुख में शामिल रहे, मिल पूरा परिवार।।
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मन छोटा उनका मगर, बँगला आलीशान। 
सत्य न छिपता है प्रगट, झूठी सारी शान।।
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रहने दो चुपचाप ही, करना नहीं सवाल।
जुबां खोलकर क्यों करूँ, तुम ही कहो बवाल।।* 
किसका हाल सुनाएँ क्या, हाल हुआ बेहाल। 
रेंगें सीना तानकर, कृमि ऊँचा कर भाल।।
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हँसी सुबह की धूप की, लगे जायकेदार। 
गौरैया के साथ ही, आती रहे बहार।।
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खूब मजे लो सफर का, कम कर के सामान। 
जीवन बीते खुशनुमा, यदि कम हों अरमान।।
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सुध-स्नेह में घोलता, रहा हलाहल बैन। 
भेद रहे हैं ह्रदय को, कातिल भृकुटी-नैन।।
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चलो मना लें  मिल उसे, भले बोल दें झूठ। 
राहें हैं सबकी जुदा, टूटे मीत न रूठ।।
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संझा हुई पुकार सुन, आ जाओ घनश्याम। 
चित विकल घबरा रहा, कहाँ गए अभिराम।।
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शतकवीर श्यामल हुए, अभिनंदन सौ बार।
दोहा-उपवन मेँ बही, हर सूँ नई बहार।।
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मार्ग दिखाया आपने, वंदन है आचार्य। 
स्नेह सदा बढ़ता रहे, होगा बेड़ा पार।।
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