नवगीत
शंबूक वध सा पाप
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बाग़ में देखे लगे,
फलदार तरु हम ललचकर
लगे चढ़ने फिसलकर, गिर-सन गये हैं धूल में।
फलदार तरु हम ललचकर
लगे चढ़ने फिसलकर, गिर-सन गये हैं धूल में।
स्वप्न सौ देखे मगर
सच एक भी कब सह सके
दोष औरों को दिये
निज गलतियाँ कब तह सके
सच एक भी कब सह सके
दोष औरों को दिये
निज गलतियाँ कब तह सके
चाह कलियों को महकते
पा सकें निज बाँह में
तृप्त होती किस तरह?, फँस -धँस गये खुद शूल में।
उड़ी चिड़िया चहकती
हम जाल लेकर ताकते
चार दाने फेंककर
लालच दिखाते-फाँसते
हम जाल लेकर ताकते
चार दाने फेंककर
लालच दिखाते-फाँसते
आह सुन कब कहो पिघले?
भ्रमित थे हम वाह में
मनुज होकर दनुज बनते, स्वार्थ घेरे मूल में।
भ्रमित थे हम वाह में
मनुज होकर दनुज बनते, स्वार्थ घेरे मूल में।
गरीबों को बढ़ाकर
खैरात बाँटी, वोट ले
वायदे जुमले बने
विश्वास को शत चोट दे
लोभतंत्री सियासत वर
डाह पायी दाह में
विश्वास को शत चोट दे
लोभतंत्री सियासत वर
डाह पायी दाह में
शंबूक वध सा पाप है, छल कर लिये महसूल में।
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महसूल = कर
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