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शनिवार, 11 जून 2016

samiksha

पुस्तक सलिला-
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[पुस्तक परिचय- ढलती हुई धूप, कविता संग्रह, ISBN ९७८-९३-८४९७९-८०-५, सुरेश चन्द्र सर्वहारा, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २०.५ से.मी. x १४ से.मी.,  आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुर औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, ९८२९० १८९८७। कवि संपर्क ३ ऍफ़ २२ विज्ञान नगर, कोटा ३२४००५, ९९२८५३९४४६]
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                         अनुभूति की अभिव्यक्ति गद्य और पद्य दो शैलियों में की जाती है। पद्य को विविध विधाओं में वर्गीकृत किया गया है। कविता सामान्यतः छंदहीन अतुकांत रचनाओं को कहा जाता है जबकि गीत लय, गति-यति को साधते हुए छंदबद्ध होता है। इन्हें झरने और नदी के प्रवाह की तरह समझा जा सकता है।  अनुभूति और अभिव्यक्ति किसी बंधन की मुहताज नहीं होती। रचनाकार कथ्य के भाव के अनुरूप शैली और शिल्प चुनता है, कभी-कभी तो कथ्य इतना प्रबल होता है कि रचनाकार भी  उपकरण ही हो जाता है, रचना खुद को व्यक्त करा लेती है। कुछ पद्य रचनाऐँ दो विधाओं की सीमारेखा पर होती हैं अर्थात उनमें एकाधिक विधाओं के लक्षण होते है। इन्हें दोनों विधाओं में वर्गीकृत किया जा सकता है।  कवि - गीतकार सुरेशचंद्र सर्वहारा की कृति 'ढलती हुई धूप' कविता के निकट नवगीतों और नवगीत के निकट कविताओं का संग्रह है। विवेच्य कृति की रचनाओं को दो भागों 'नवगीत' और 'कविता' में वर्गीकृत भी किया जा सकता था किन्तु सम्भवतः पाठक को दोनों विधाओं की गंगो-जमुनी प्रतीति करने के उद्देश्य से उन्हें घुला-मिला कर रख आगया है।       

                         कविता की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है,  न हो सकती है। गीत की समसामयिक विसंगति और विषमता से जुडी भावमुद्रा नव छन्दों को समाहित कर नवगीत बन जाती है जबकि छंद आंशिक हो या न हो तो वह कविता हो जाती है।  'ढलती हुई धूप' के मुखपृष्ठ पर अंकित चन्द्र का भ्रम उत्पन्न करता अस्ताचलगामी सूर्य इन रचनाओं के मिजाज की प्रतीति बिना पढ़े ही करा देता है।  कवि के शब्दों में- ''आज जबकि संवेदना और रसात्मकता चुकती जा रही है फिर भी इस धुँधले परिदृश्य में कविता मानव ह्रदय के निकट है।'' 

                         प्रथम रचना 'शाम के साये' में ६ पंक्तियों के मुखड़े के बाद ५ पंक्तियों का अंतरा तथा मुखड़े के सम भार और तुकांत की ३-३ पंक्तियाँ फिर ६ पंक्तियों का अन्तरा है। दोनों अंतरों के बीच की ६ में से ३ पंक्तियाँ अंत में रख दी जाएँ तो यह नवगीत है।  सम्भवत: नवगीत होने या न होने को लेकर जो तू-तू मैं-मैं समीक्षकों ने मचा रखी है उससे बचने के लिए  नवगीतों को कविता रूप में प्रस्तुत किया गया है।  
                         दिन डूबा / उत्तरी धरती पर / धीरे-धीरे शाम 
                         चिट्ठी यादों की / ज्यों कोेेई / लाई मेरे नाम। 
                         लगे उभरने पीड़ाओं के / कितने-कितने दंश 
                         दीख रहे कुछ धुँधलाए से / अपनेपन के अंश।  
                         सिमट गए / सायों जैसे ही / जीवन के आयाम 
                         लगा दृश्य पर / अंधियारों का / अब तो पूर्ण विराम। 
                         पुती कालिमा / दूर क्षितिज पर / सब कुछ हुआ उदास 
                         पंछी बन / उड़ गए सभी तो / कोेेई न मेरे पास 

                         खुशियों की तलाश, जाड़े की शाम, धुँधली शाम, पत्ते, चिड़िया, दुःख के आँसू, ज़िंदगी, उतरती शाम, सूखा पेड़, गुलमोहर, टेसू के फूल, फूल हरसिंगार के, बासंती हवा, यादों के बादल, याद तुम्हारी, दर्द की नदी, कविता और लड़की, झुलसते पाँव, फूल बैंगनी, जाड़े की धूप, माँ का आँचल, रिश्ते, समय शकुनि, लल्लू, उषा सुंदरी आदि रचनाएँ शिल्प की दृष्टि से नवगीत के समीप है जबकि पहली बारिश, धुंध में, कागज़ की नाव, ढलती हुई धूप, सीमित ज़िंदगी, सृजन, मेघदर्शन, बंजर मन, पेड़ और मैं, याद की परछाइयाँ, सूखी नदी, फूल खिलते हैं, लड़कियाँ, अकेली लड़की, निशब्द संबंध, वह स्त्री, युद्ध के बाद, नंगापन, एक बुजुर्ग का जाना, नव वर्ष, विधवा की बेटी, वयोवृद्ध एवं बूढ़ा, वृद्धाश्रम आदि कविता के निकट हैं।

                         सर्वहारा जी के मत में ''साहित्य का सामाजिक सरोकार भी होना चाहिए जो सामाजिक बुराइयों का बहिष्कार कर सामाजिक परिवर्तन का शंखनाद करे।'' इसीलिए विधवा की बेटी, वयोवृद्ध एवं बूढ़ा, वृद्धाश्रम,वह स्त्री, युद्ध के बाद, नंगापन, लड़कियाँ, अकेली लड़की, निशब्द संबंध जैसी कवितायें लिखकर वे पीड़ितों के प्रति संवेदनाएं व्यक्त करते हैं। ''युद्ध का ही / दूसरा नाम है बर्बरता / जो कर लेती है हरण / आँखों की नमी के साथ / धरती की उर्वरता'', और ''खुश नहीं / रह पाते / जीतनेवाले भी / अपराध बोध से / रहते हैं छीजते / हिमालय में गल जाते हैं'' लिखकर कवि संतुष्ट नहीं होता, शायद उसे पाठकीय समझ पर संदेह है, इसलिए इतना पर्याप्त हों पर भी वह स्पष्ट करता है ''पांडवों के शरीर / जो जैसे-तैसे कर / महाभारत हैं जीतते''। 

                         पर्यावरण की चिंता सूखी नदी, फूल खिलते हैं, पेड़ और मैं, सूखा पेड़, गुलमोहर, टेसू के फूल, फूल हरसिंगार के, दर्द की नदी आदि रचनाओं में व्यक्त होती है।  फूलों और खुशियों का रिश्ता अटूट है- 
                         ''रह-रह कर / झर रहे / फूल हरसिंगार के। 
                         भीनी-भीनी / खुशबू से / भीग गया मन 
                         साँसों को / बाँध रहा / नेह का बंधन 
                         लौट रहे / दिन फिर से / प्यार और दुलार के। 
                         थिरक उठा / मस्ती से / आँगन का पोर - पोर 
                         नच उठा / खुशियों से / घर-भर का / ओर - छोर 
                         गए रहा ही / गीत कौन / मान और मनुहार के। 
                         रातों को / खिलते थे / जीवन में झूमते 
                         प्रातः को / हँस - हँस अब / मौत को हैं चूमते 
                         अर्थ सारे / खो गए हैं / जीत और हार के'' 

                         इस नवगीत में फूल और मानव जीवन के साम्य को भी इंगित किया गया है।   

                         सर्वहारा जी हिंदी - उर्दू की साँझा शब्द सम्पदा के हिमायती हैं। गीतों के कथ्य आम जन को सहजता से ग्राह्य हो सकने योग्य हैं।  उनका 'गुलमोहर' नटखट बच्चों की क्रीड़ा का साथी है '' दूर - दूर तक / फैले सन्नाटों / औे लू के थपेड़ों को / अनदेखा कर / घरवालों की / आँख चुराकर / छाँव तले आए / नटखट बच्चों संग / खेलता गुलमोहर'' तो टेसू आश - विश्वास के रंग बिखेरता है - '' बिखर गए / रंग कई / आशा - विश्वास के / निखर गए / ढंग नए / जीवन उल्लास के / फागुन के फाग से / भा गए टेसू के फूल।''

                         गाँव से शहरों की पलायन की समस्या 'लल्लू' में मुखरित है- 
                         लल्लू! / कितने साल हो गए / तुमको शहर गए 
                         खेतों में / पसरा सन्नाटा / सूखे हैं खलिहान / साँय - साँय / करते घर - आँगन / सिसक रहे दालान।  
                         भला कौन/  ऐसे में सुख से / खाये और पिए।   

                         शब्द - सम्पदा और अभिव्यक्ति - सामर्थ्य के धनी सुरेश जी के स्त्री विमर्श विषयक गीत मार्मिकता से सराबोर हैं। इनमें  पीड़ा और दर्द का होना स्वाभाविक है किन्तु आशा की किरण भी है-
                         देखते ही देखते / बह चली / रोशनी की नदी / उसके पथ में आज 
                         कई काली रातों के बाद / फैला है उजाला / सुनहरी भोर का 
                         एक नए /  है यह आगाज।  

                         सुरेश जी विराम चिन्हों को अनावश्यक समझने के काल में  उनके महत्त्व से न केवल परिचित हैं अपितु विराम चिन्हों का निस्संकोच प्रयोग भी करते हैं। अल्प विराम, पूर्ण विराम, संयोजक चिन्ह आदि का उपयोग पाठक को रुचता है। इन गीतों की कहन सहज प्रवाहमयी, भाषा सरस और अर्थपूर्ण तथा कथ्य सम - सामयिक है। बिम्ब और प्रतीक प्रायः पारम्परिक हैं। पंक्तयांत के अनुप्रास में वे कुछ छूट लेते हुए चिड़िया, बुढ़िया, गडरिया, गगरिया जैसे अंत्यानुप्रासिक प्रयोग बेहिचक करते हैं।  

                         सारतः, इन नवगीतों में नवगीत जैसी ताजगी, ग़ज़लों जैसी नफासत, गीतों की सी सरसता, मुकतक की सी चपलता, छांदस संतुलन और मौलिकता है जी पाठकों को केवल आकृष्ट करती है अपितु बाँधकर भी रखती है।  यह पठनीय कृति लोकप्रिय भी होगी।

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समीक्षक- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४

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