दोहा सलिला
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श्वास सुशीला है मगर, आस हुई खुद्दार।
मंज़िल के दर बाँधती, कोशिश बंदनवार।।
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नभ मैका तज जब गयीं, बूँदे निज ससुराल।
सास धरा 'मूँ चायना', करती भई निहाल।।
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पावस लख पग द्रुत बढ़े, पहुँचे जल्दी गेह।
देख षोडशी दामिनी, होते मेघ विदेह।।
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मुक्तक
नेह नर्मदा में अवगाहो, तन-मन निर्मल हो जाएगा।
रोम-रोम पुलकित होगा प्रिय!, अपनेपन की जय गाएगा।।
हर अभिलाषा क्षिप्रा होगी, कुंभ लगेगा संकल्पों का,
कोशिश का जनगण तट आकर, फल पा-देकर तर जाएगा।।
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एक प्रयोग-
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चलता न बस, मिलता न जस, तपकर विहँस, सच जान रे
उगता सतत, रवि मौन रह, कब चाहता, युग दाम दे
तप तू करे, संयम धरे, कब माँगता, मनु नाम दे
मन मारना मत, हारना मत, पा-लुटाना मान रे
अंकुर धरा की कोख से फूटें, सहज सुख-दुःख सहें
कल्ले बढ़ें, हिल-मिल चढ़ें, ऊँचाइयाँ, नित नव छुएँ
तन्हाइयाँ गिरि पर न हों, जंगल सजे, घाटी हँसे
परिमल बिखर, छू ले शिखर, धरती सिहर, जय-जय कहे
फल्ली खटर-खट-खट बजे, करतल सहित आलाप ले
जब तक न मानव काट ले या गिरा दे तूफ़ान आ
तब तक खिला रह धूप - आतप सह, धरा-जंगल सजा
रच पूर्णिमा के संग कुछ नवगीत, नव अभिव्यक्ति के
जय गान तेरा कवि करेंगे, वरेंगे नव चेतना
नव कल्पना की अल्पना लख जायेगी खिल ज्योत्सना
जो हो पराजित उसे तुझसे मिलेगी नव प्रेरणा
नीरस सरस हो जायेगा, पाकर 'सलिल' संवेदना
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[यौगिक जातीय हरिगतिका छंद,
बहर साम्य- मुतफायलुं x ४ पदादि लघु , मुस्तफअलन x ४ पदादि गुरु]
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