नवगीत
एक-दूसरे को
*
एक दूसरे को छलते हम
बिना उगे ही
नित ढलते हम।
*
तुम मुझको 'माया' कहते हो,
मेरी ही 'छाया' गहते हो।
अवसर पाकर नहीं चूकते-
सहलाते, 'काया' तहते हो।
'साया' नहीं 'शक्ति' भूले तुम
मुझे न मालूम
सृष्टि बीज तुम।
चिर परिचित लेकिन अनजाने
एक-दूसरे से
लड़ते हम।
*
मैंने तुम्हें कह दिया स्वामी,
किंतु न अंतर्मन अनुगामी।
तुम प्रयास कर खुद से हारे-
संग न 'शक्ति' रही परिणामी।
साथ न तुमसे मिला अगर तो
हुई नाक में
मेरी भी दम।
हैं अभिन्न, स्पर्धी बनकर
एक-दूसरे को
खलते हम।
*
मैं-तुम, तुम-मैं, तू-तू मैं-मैं,
हँसना भूले करते पैं-पैं।
नहीं सुहाता संग-साथ भी-
अलग-अलग करते हैं ढैं-ढैं।
अपने सपने चूर हो रहे
दिल दुखते हैं
नयन हुए नम।
फेर लिए मुंह अश्रु न पोंछें
एक-दूसरे बिन
ढलते हम।
*
तुम मुझको 'माया' कहते हो,
मेरी ही 'छाया' गहते हो।
अवसर पाकर नहीं चूकते-
सहलाते, 'काया' तहते हो।
'साया' नहीं 'शक्ति' भूले तुम
मुझे न मालूम
सृष्टि बीज तुम।
चिर परिचित लेकिन अनजाने
एक-दूसरे से
लड़ते हम।
*
जब तक 'देवी' तुमने माना
तुम्हें 'देवता' मैंने जाना।
जब तुम 'दासी' कह इतराए
तुम्हें 'दास' मैंने पहचाना।
बाँट सकें जब-जब आपस में
थोड़ी खुशियाँ,
थोड़े से गम
तब-तब एक-दूजे के पूरक
धूप-छाँव संग-
संग सहते हम।
*
'मैं-तुम' जब 'तुम-मैं' हो जाते ,
'हम' होकर नवगीत गुञ्जाते ।
आपद-विपदा हँस सह जाते-
'हम' हो मरकर भी जी जाते।
स्वर्ग उतरता तब धरती पर
जब मैं-तुम
होते हैं हमदम।
दो से एक, अनेक हुए हैं
एक-दूसरे में
खो-पा हम।
*****
१०-६-२०१६
TIET JABALPUR
एक-दूसरे को
*
एक दूसरे को छलते हम
बिना उगे ही
नित ढलते हम।
*
तुम मुझको 'माया' कहते हो,
मेरी ही 'छाया' गहते हो।
अवसर पाकर नहीं चूकते-
सहलाते, 'काया' तहते हो।
'साया' नहीं 'शक्ति' भूले तुम
मुझे न मालूम
सृष्टि बीज तुम।
चिर परिचित लेकिन अनजाने
एक-दूसरे से
लड़ते हम।
*
मैंने तुम्हें कह दिया स्वामी,
किंतु न अंतर्मन अनुगामी।
तुम प्रयास कर खुद से हारे-
संग न 'शक्ति' रही परिणामी।
साथ न तुमसे मिला अगर तो
हुई नाक में
मेरी भी दम।
हैं अभिन्न, स्पर्धी बनकर
एक-दूसरे को
खलते हम।
*
मैं-तुम, तुम-मैं, तू-तू मैं-मैं,
हँसना भूले करते पैं-पैं।
नहीं सुहाता संग-साथ भी-
अलग-अलग करते हैं ढैं-ढैं।
अपने सपने चूर हो रहे
दिल दुखते हैं
नयन हुए नम।
फेर लिए मुंह अश्रु न पोंछें
एक-दूसरे बिन
ढलते हम।
*
तुम मुझको 'माया' कहते हो,
मेरी ही 'छाया' गहते हो।
अवसर पाकर नहीं चूकते-
सहलाते, 'काया' तहते हो।
'साया' नहीं 'शक्ति' भूले तुम
मुझे न मालूम
सृष्टि बीज तुम।
चिर परिचित लेकिन अनजाने
एक-दूसरे से
लड़ते हम।
*
जब तक 'देवी' तुमने माना
तुम्हें 'देवता' मैंने जाना।
जब तुम 'दासी' कह इतराए
तुम्हें 'दास' मैंने पहचाना।
बाँट सकें जब-जब आपस में
थोड़ी खुशियाँ,
थोड़े से गम
तब-तब एक-दूजे के पूरक
धूप-छाँव संग-
संग सहते हम।
*
'मैं-तुम' जब 'तुम-मैं' हो जाते ,
'हम' होकर नवगीत गुञ्जाते ।
आपद-विपदा हँस सह जाते-
'हम' हो मरकर भी जी जाते।
स्वर्ग उतरता तब धरती पर
जब मैं-तुम
होते हैं हमदम।
दो से एक, अनेक हुए हैं
एक-दूसरे में
खो-पा हम।
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१०-६-२०१६
TIET JABALPUR
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