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रविवार, 12 जून 2016

hasya kavita

हास्य रचना
ठेंगा
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ठेंगे में 'ठ', ठाकुर में 'ठ', ठठा हँसा जो वह ही जीता
कौन ठठेरा?, कौन जुलाहा?, कौन कहाँ कब जूते सीता?

ठेंगा दर्शन बेज़ार करे, ठेंगे बिन मिलाता चैन नहीं
ठेंगे बिन दिवस नहीं कटता, ठेंगे बिन कटती रैन नहीं

बिन ठेंगे कब काम चला है?, लगा, दिखा, चूसो या पकड़ो
चार अँगुलियों पर भारी है ठेंगा एक, न उससे अकड़ो

ठेंगे की महिमा भारी है, पूछो ठकुरानी से जाकर
ठेंगे के संग जीभ चिढ़ा दें, हो जाते बेबस करुणाकर

ठेंगा हाथों-लट्ठ थामता, पैरों में हो तो बेनामी
ठेंगा लगता, इसकी दौलत उसको दे देता है दामी

लोक देखता आया ठेंगा, नेता दिखा-दिखा है जीता
सीता-गीता हैं संसद में, लोकतंत्र को लगा पलीता

राम बाग़ में लंका जैसा दृश्य हुआ अभिनीत, ध्वंस भी
कान्हा गायब, यादव करनी देख अचंभित हुआ कंस भी

ठेंगा नितीश मुलायम लालू, ममता माया जया सोनिया
मौनी बाबा गुमसुम-अण्णा, आप बने तो मिले ना ठिया

चाय बेचकर छप्पन इंची, सीना बन जाता है ठेंगा
वादों को जुमला कहता है, अंधे को कहता है भेंगा

लोकतंत्र को लोभतंत्र कर, ठगता ठेंगा खुद अपने को
ढपली-राग हो गया ठेंगा, बेच रहा जन के सपने को

ठेंगे के आगे नतमस्तक, चतुर अँगुलियाँ चले न कुछ बस
ठेंगे ठाकुर को अर्पित कर भोग लगाओ, 'सलिल' मिले जस
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-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल',
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१

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