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शुक्रवार, 18 जून 2010

मुक्तिका मिट्टी मेरी... संजीव 'सलिल'

 मुक्तिका
मिट्टी मेरी...
संजीव 'सलिल'
*

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*
मोम बनकर थी पिघलती रही मिट्टी मेरी.
मौन रहकर भी सुलगती रही मिट्टी मेरी..


बाग़ के फूल से पूछो तो कहेगा वह भी -
कूकती, नाच-चहकती रही मिट्टी मेरी..

पैर से रौंदी गयी, सानी गयी, कूटी गयी-
चाक-चढ़कर भी, निखरती रही मिट्टी मेरी..

ढाई आखर न पढ़े, पोथियाँ रट लीं, लिख दीं.
रही अनपढ़ ही, सिसकती रही मिट्टी मेरी..

कभी चंदा, कभी तारों से लड़ायी आखें.
कभी सूरज सी दमकती रही मिट्टी मेरी..

खता लम्हों की, सजा पाती रही सदियों से.
पाक-नापाक चटकती रही मिट्टी मेरी..

खेत-खलिहान में, पनघट में, रसोई में भी.
मैंने देखा है, खनकती रही मिट्टी मेरी..

गोद में खेल, खिलाया है सबको गोदी में.
फिर भी बाज़ार में बिकती रही मिट्टी मेरी..

राह चुप देखती है और समय आने पर-
सूरमाओं को पटकती
रही मिट्टी मेरी..

कभी थमती नहीं, रुकती नहीं, न झुकती है.
नर्मदा नेह की, बहती रही
मिट्टी मेरी..

******************

Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com

5 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

नतमस्तक हूँ सलिल जी।

Sanjiv Verma 'Salil' ने कहा…

नेह नर्मदा निर्मला, जग की तारणहार.
सविनय सलिल प्रणामकर, चाह रहा उद्धार..

Udan Tashtari : ने कहा…

सुन्दर!



Udan Tashtari

guddo dadee ने कहा…

गुड्डोंदादी: आशीर्वाद बिटवा भाई! आपकी एक एक कविता के शब्द मोगे मोतियों की माला में पिरोये हुए हैं कोण से शब्द कोष में है?
घर-परिवार में सब मंगल कुशल...

...मन पढ़ कर प्रसन्न हो जाता है आप तो जी कर ओर लेखनी से लिपि में कविता को जीवन देते हैं

M VERMA … ने कहा…

पैर से रौंदी गयी, सानी गयी, कूटी गयी-
चाक-चढ़कर भी, निखरती रही मिट्टी मेरी..
मिट्टी में निखार तो चाक चढने के बाद आता ही है.
सुन्दरता से आपने सुन्दर भाव को पिरोया है.