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शनिवार, 5 अगस्त 2023

किंजल्क

स्मरण
जगदीश किंजल्क : बुन्देली माटी की महक से सराबोर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                  झुलसती गर्मी के बाद पहली बारिश होने पर माटी की सौंधी महक जिन नासिकाओं में गई है उन्हें शीशी की सुगंधि (परफ्यूम) कतई रास नहीं आती। यह महक ग्राम्य-वन प्रांतर में पलाश की ललाई, महुए की मादकता और आम्र बौरों की सुंदरता के साथ मिल जिस स्वप्न लोक की सृष्टि करता है कुछ कुछ वैसा ही व्यक्तित्व था जगदीश किंजल्क का। किंजल्क से भेंट अर्थात कोयल की कूक सदृश मीठी वाणी, बुन्देली संस्कृति का अपनापन, साहित्यिक सृजन की शुचिता, सामाजिक सारल्य जनित अपनत्व और वैयक्तिक निर्मलता का पंचामृत का मिल जाना। 

एकदा मध्य प्रदेशे दमोह नगरे

                  किंजल्क से मेरी पहली भेंट १९८५-८६ में हुई। तब मैं अखिल भारतीय कायस्थ सभा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद, प्रादेशिक चित्रगुप्त महासभा के संगठन मंत्री और सामाजिक मासिक पत्रिका चित्राशीष के संचालक-संपादक तथा मध्य प्रदेश डिप्लोमा इंजीनियर्स एसोसिएशन की मासिक पत्रिका के संपादक का दायित्व निर्वहन करते हुए मध्य भारत, बुंदेलखंड और छत्तीसगढ़ अंचलों में सामाजिक संगठन का कार्य निरंतर करता रहता था। साहित्यिक रुचि के कारण धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादंबिनी, नवनीत, दिनमान आदि दर्जन भर पत्रिकाएँ नियमित पढ़ता था जिनमें विविध विषयों पर जगदीश भाई द्वारा ली गई परिचर्चाएँ निरंतर प्रकाशित होती थीं। उन्हें 'परिचर्चा सम्राट' कहा जाता था। बुंदेलखंड के चित्रगुप्त मंदिरों की जानकारी एकत्र करते हुआ और कायस्थ सभाओं के पदाधिकारियों से मिलते हुए पन्ना, टीकमगढ़, छतरपुर, रीवा आदि में श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार अंबिका प्रसाद 'दिव्य' और उनके यशस्वी पुत्र जगदीश किंजल्क की जानकारी मिलती रही पर उस समय भेंट न हो सकी। नल-दमयन्ती की नगरी दमोह में प्रादेशिक  सम्मेलन, अखिल भारतीय कायस्थ महासभा कार्यकारिणी  बैठक तथा सामूहिक विवाह के महत्वपूर्ण आयोजन में क्षेत्र की विभूतियों के सम्मान का आयोजन किया गया। मैंने सम्मानितों में प्रथम नाम दिव्य जी का ही रखा। दमोह में मेरी श्रीमती जी का मामा पक्ष कार्यक्रम का आयोजक था। आयोजन समिति में डॉ. रमेश कुमार खरे भी थे जिन्होंने दिव्य जी पर शोध उपाधि (पी-एच. डी.) प्राप्त की थी। यह कई सौ पृष्ठ का विशाल ग्रंथ था। मैंने इसे आद्योपांत पढ़ा। 

                  दमोह सम्मेलन में राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. रतन चंद वर्मा (अन्तर्राष्ट्रीय  ख्याति प्राप्त अस्थि रोग शल्यज्ञ, जादूगर एवं योगाचार्य) इंदौर के कर कमलों से सर्व प्रथम दिव्य जी को अलंकृत किया गया। कार्यक्रम का संचालन मैं कर रहा था। मेरे श्वसुर प्रो. सत्य सहाय (प्रसिद्ध अर्थशास्त्री) बिलासपुर उस समय प्रादेशिक चित्रगुप्त महासभा के प्रांताध्यक्ष थे। तब दिव्य जी के साथ किंजल्क जी भी दमोह आए। किंजल्क ने बताया कि बुन्देलखंड में किसी कायस्थ सभा द्वारा राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम के साहित्यकारों के सम्मान का यह प्रथम अवसर था। हमारा प्रथम परिचय ही हमें स्नेह रज्जु में आबद्ध कर गया किंतु फिर कुछ अंतराल आ गया। छतरपुर के भाई रवींद्र कुमार खरे जबलपुर में यूनाइटेड बैंक में पदस्थ हुए, हमारी पारिवारिक घनिष्ठ मित्रता हुई तो किंजल्क जी की चर्चा प्राय: होती रही। कालांतर में किंजल्क जी की पदस्थापना आकाशवाणी जबलपुर में कार्यक्रम अधिकारी के रूप में हुई। यह समय हमारी मित्रता का स्वर्ण काल था। 

बुन्देली गुझियों का जादू 

                  जबलपुर में किंजल्क जी और मेरी मित्रता बहुत चर्चित रही। होली हो और दोस्त रंग न खेलें यह कैसे हो सकता है। किंजल्क जी के आग्रह पर उनके निवास पर होली का रंग जमा। राजो भाभी जी के हाथों की गुझिया का स्वाद जुबान पर ऐसा चढ़ा कि आज भी भुलाए नहीं भूलता। भाभी श्री का ठेठ बुन्देली व्यक्तित्व, अपनापन और अकृत्रिम स्नेहाधिकार से बातचीत करना मुझे उनका मुरीद बना गया। किंजल्क परिवार नेपियर टाउन में पहली मंजिल पर कुछ दिन रहने के बाद, आकाशवाणी परिसर कटंगा में शासकीय आवास मिलने पर वहाँ रहने लगा। किंजल्क अपने शासकीय दायित्व के प्रति समर्पित रहने के साथ-साथ साहित्यिक लेखन,गोष्ठियों आदि में निरंतर व्यस्त रहते थे। निवास पर मुझ जैसे मित्रों का जमघट दिनचर्या का हिस्सा था। राजो भाभी जी गृह लक्ष्मी की भूमिका में साक्षात अन्नपूर्णा थीं। चाय-नाश्ता हुआ नहीं कि कुछ और मित्र आ जाते, अक्सर दुबारा, तिबारा  नाश्ता-पानी मँगाया जाता। मैंने न तो कभी नाश्ता कम होते देखा, न भाभी के मुँह पर कभी झुँझलाहट ही दिखी। किंजल्क तो जगदीश थे, जिससे मिलते, वही उनका अपना हो जाता।  

दिव्य नर्मदा अलंकरण 

                  दुर्भाग्य वश वर्ष १९८६ में शिक्षक दिवस पर एक आयोजन में भाग लेते हुए दिव्य जी (१६ मार्च १९०७ - ५ सितंबर १९८६) परलोक सिधारे और शीघ्र बाद ही बुआ श्री महीयसी महादेवी जी (२६ मार्च १९०७ - ११ सितंबर १९८७) का देहावसान हुआ। हम दोनों का विचार हुआ कि इन दोनों महान विभूतियों की स्मृति में साहित्यिक अनुष्ठान किया जाए। इस विचार को रामानुजलाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी' की पुत्री द्वय साधना उपाध्याय जी और डॉ. अनामिका तिवारी जी तथा वरिष्ठ  साहित्यकार-शिक्षाविद के. बी. एल.सक्सेना, प्रो. हनुमान प्रसाद वर्मा, राजेन्द्र तिवारी जी आदि का समर्थन मिला और अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण का श्री गणेश हुआ। वर्ष १९९७ में प्रथम आयोजन रानी दुर्गावती संग्रहालय में हुआ। अध्यक्ष डॉ. जगदीश प्रसाद शुक्ल कुलपति रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर तथा मुख्य अतिथि डॉ. शिवकुमार श्रीवास्तव कुलपति सर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर ने अपने सारगर्भित संबोधन से कार्यक्रम की श्रीवृद्धि की। इस अवसर दिव्य जी पर केंद्रित एक विशेषांक भी प्रकाशित किया गया। कार्यक्रम में भाग लेने के लिए चकोरी दीदी का शहडोल से और विभा दीदी का इलाहाबाद से आगमन हुआ। किंजल्क दोनों बहिनों से बहुत छोटे थे, उन्हें मातृवत सम्मान देते थे। चंद्रसेन विराट जी, प्रबोध गोविल जी तथा शंभुरत्न दुबे जी को अलंकृत किया गया। वर्ष १९९८ में अलंकरणों की संख्या १५ हो गई। यह समारोह १० अगस्त को मानस भवन में हुआ। बुआ जी (महीयसी महादेवी जी), दिव्य जी, पत्रकाराचार्य पन्नालाल जी श्रीवास्तव, रामानुजलाल श्रीवास्तव, धर्मवीर भारती, महाराष्ट्र केसरी जगन्नाथ प्रसाद वर्मा नागपूर , राय बहादुर माता प्रसाद सिन्हा मैनपुरी, स्वातंत्र्य वीर ज्वाला प्रसाद वर्मा, गीतकार राजेन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव, रमेश प्रसाद वर्मा आदि की स्मृति में अलंकरण स्थापित किए गए।    

अद्भुत पितृ प्रेम 

                  पिता-पुत्र में प्राय: दूरी (जेनेरेशन गैप) हुआ करती है। दिव्य जी के प्रति किंजल्क का अनुराग असाधारण था । दिव्य जी की सभी पुस्तकें, पत्र, चित्र, रचनाएँ आदि की देखभाल किंजल्क जान से ज्यादा करते थे। अप्रकाशित कृतियों को प्रकाशित करने की निरंतर चेष्टा करते थे। अनुपलब्ध पुस्तकों के दूसरे संस्करण निकालने के लिए प्रकाशकों से निरंतर बात करते। दिव्य जी निष्णात चित्रकार भी थे। उनकी मूल पेंटिंग्स किंजल्क के लिए मणि-मुक्ता की तरह बेशकीमती थीं। दिव्य जी की कुछ कृतियाँ समीक्षा लिखने के लिए मुझे किंजल्क से प्राप्त हुईं। किंजल्क दिव्य जी के संस्मरण बहुत तन्मयता के साथ सुनाते।  

 महान विरासत 

                  किंजल्क बहुधा दिव्य जी के कर्मठ हुए आदर्श प्रिय चरित्र की चर्चा करते। अजयगढ़ में शिक्षक के रूप में दिव्य जी द्वारा गाँधी चरखे का प्रचार-प्रसार, बच्चों में राष्ट्रीयता का बीज वपन करने हेतु प्रभात फेरियाँ, ध्वजारोहण, विविध प्रतियोगिताएँ और उनमें स्वयं अपने बच्चों को सम्मिलित कर ग्राम्य बच्चों को प्रेरित प्रोत्साहित कर जाति-धर्म-वर्ण आदि सामाजिक बुराइयों से जूझते हुए सतत समरसतापूर्ण समाज के निर्माण हेतु संकल्पित समर्पित रहना। शिक्षण पद्धति ऐसी की बच्चे शत-प्रतिशत परीक्षा परिणाम देते हुए भी, हस्तकला, क्रीड़ा आदि में जिले में श्रेष्ठ स्थान पाते। दिव्य जी गाँधीवादी शिक्षा पद्धति से अध्यापन करते। वे हस्तकलाओं के साथ-साथ आत्मनिर्भरता का भी ध्यान रखते थे। बुंदेलखंड के ग्रामीण अंचलों में ईंट पाथने-बनाने का काम सहस्त्रों परिवारों की आजीविका था। लकड़ी के साँचे  में मिट्टी भरकर एक बार में एक ईंट बनती थी। दिव्य जी ने एक साँचा बनाया जिससे एक बार में  ४ या ८ ईंटें बनाई जा सकती थीं।  पाठशाला में तकली और चरखे से सूत कातने की कला सिखाई जाती। बच्चों के दल गठित कर, उन्हें एक-एक क्यारी दी जाती जिसमें वे पौधे उगाते, पौधों की वृद्धि देखते, तितलियों आदि की जीवन प्रणाली समझते। उस समय की यह प्रायोगिक शिक्षा पद्धति आजकल के अंग्रेजीभाषी विद्यालयों में बाजार के क्रय कर प्रादर्श (मॉडल) प्रस्तुत करनेवाली पीढ़ी की कल्पना से भी बाहर है। अभिनव प्रयोगों और श्रेष्ठ परीक्षा परिणाम की निरन्तरता से दिव्य जी की ख्याति सर्वत्र फैलने लेगी। वे राष्ट्रपति पुरस्कार से पुरस्कृत किए गए। स्वाभाविक है कि दिव्य-संतानों से पिता के आदर्शों और ख्याति के अनुरूप आचरण की अपेक्षा की जाती। किंजल्क बताते कि किस तरह दिव्य जी शिक्षण के समान्तर पर्यटन करते, जहाँ जाते वहाँ के रेखा चित्र बनाते, लालटेन और कभी-कभी दिए की रौशनी में लिखते। लोगों से मिलकर इतिहास की जानकारी लेते। काव्य संग्रह, खंडकाव्य, महाकाव्य, उपन्यास आदि लिखते समय पात्रों के चरित्र पर विशेष ध्यान देते। ऐतिहासिक चित्र बनाते समय कल्पना के साथ लोक में प्रचलित किस्सों और किंवदंतियों के आधार पर दिव्य जी ने बुंदेली शासकों, महाकवि ईसुरी आदि के जीवंत चित्र बनाए। किंजल्क इस तपस्या के चश्मदीद साक्षी थे। अपनी बड़ी बहिनों की विकसित होती प्रतिभा, उन्हें मिलती प्रशंसा से किंजल्क प्रेरित होने के साथ-साथ उनके समकक्ष होने का मानसिक दबाव भी अनुभव करते। दिव्य जी की दोनों पुत्रियाँ उनकी तरह गद्य-पद्य में निपुण थीं किन्तु किंजल्क को काव्य रचना में रुचि नहीं थी।  दिव्य जी से भेंट करने हिंदी के सभी बड़े साहित्यकार आते रहते और दिव्य-संतानों को आशीषित करते। किंजल्क सभी के व्यक्तित्व को निकटता से देखते, उनके बारे में सोचते, बाल सुलभ जिज्ञासा से पूछते-समझते। 

                  किंजल्क दिव्य जी के संस्मरण सुनाते और मैं अपने पिताश्री स्व. राजबहादुर वर्मा के कार्यों की चर्चा करता। पिता जी जेल विभाग में सीनियर जेलर व अधीक्षक पदों पर थे। बंदियों की मानसिकता में परिवर्तन के लिए पिताश्री  पृष्ठभूमि के किसानी से जुड़े ८-१० बंदियों के दल बनाकर, एक अपेक्षाकृत अधिक जिम्मेदार कैदी को उनका नायक बनाकर दो सिपाहियों की देख-रेख में भेजकर जेल की भूमि पर बगीचे बनवाते। कैदियों को खुला वातावरण और मनोनुकूल काम और जेल के उबाऊ वातावरण से छूट मिलती, वे इतनी सब्जी उपजाते की जेल के सभी बंदी हुए कर्मचारियों के परिवारों द्वारा उपयोग के बाद भी बच जातीं, बाजार में बेची जाकर उनकी राशि कैदियों के खाते में जमा कर दी जाती। जो कैदी बाहर निकलने योग्य विश्वसनीय नहीं होते उन्हें जेल के अंदर बढ़ई, लुहार, चमार, कुम्हार आदि का काम सिखाया जाता। वे जो सामान बनाते वह जेल से बेचा जाता और उसकी आय का कुछ अंश कैदी के खाते में जमा कर दिया जाता। सजा पूरी कर छुट्टी समय कैदी जीविकोपार्जन हेतु कला तथा कुछ राशि लेकर जाता तो अपने पैरों पर खड़ा होकर परिवार पालने योग्य हो जाता और अपराध की दुनिया में नहीं लौटता। रक्षा बंधन के दिन पिताजी दुर्दांत अपराधियों के बीच मेरी किशोर बहिनों को भेजते, जो उन्हें राखी बाँधतीं और वचन लेती कि वे फिर अपराध नहीं करेंगे। इस अवसर पर मैंने कठोर से कठोर कैदियों को बहिनों के चरणों पर सर रखकर रोते देखा है। किंजल्क यह सब बहुत रुचि के साथ सुनते। फिर वे पिताश्री से मिले और उन्हें आकाशवाणी में वार्ता हुए बुलाया।       

व्यक्तित्व निर्माण 

                  बचपन, कैशोर्य और तरुणाई के इस वातावरण ने किंजल्क को भाषा और साहित्य के साथ-साथ कला और संस्कृति की समझ भी दी। कालांतर में आकशवाणी में कार्यक्रम अधिकारी बनने पर यह विरासत किंजल्क के लिए बहुत उपयोगी हुई। वे जब जहाँ पदस्थ रहे, उस अंचल के श्रेष्ठ साहित्यकारों से बेहिचक मिलने, ध्वन्यांकन के लिए आमंत्रित करने, व्यक्तित्व-कृतित्व के अनुरूप सम्यक प्रश्न पूछने और अवसरानुकूल वार्तालाप करने की सिद्धहस्तता किंजल्क को ख्याति दिला सकी। शिक्षा काल में ही अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने की चाहत ने किंजल्क को 'परिचर्चा' की और मोड़ा। परिचर्चा के लिए समसामयिक विषयों का चुनाव, विचारोत्तेजक प्रश्न और सटीक-संक्षिप्त उत्तर उनकी परिचर्चाओं का वैशिष्ट्य था। स्व. धर्मवीर भारती ने तत्कालीन सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्यिक साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग में किंजल्क की कई परिचर्चाएँ प्रकाशित कीं।  किंजल्क को 'परिचर्चा सम्राट' विशेषण मिला। 

                  सरकारी विभागों में लालफीताशाही हमेशा रही। चापलूसी पसंद अफसर मेधावी-प्रतिभावान अधीनस्थ को सहन नहीं कर पाते, येन-केन-प्रकारेण परेशान करना, दबाना अपना अधिकार मानते हैं। सहकर्मी समान मेहनत करने के स्थान पर अकारण शिकायतें कराकर अपनी कुंठा शांत करते हैं। स्वार्थसिद्धि करने में असफल रहे सामान्यजन अपना आक्रोश निराधार शिकायतें कर निकलते हैं। किंजल्क बहुत विनम्र, शालीन, मेधावी, परिश्रमी और कार्य-दायित्व के प्रति समर्पित थे। उनके कार्यकाल में आकाशवाणी छतरपुर के केंद्र को बहुत ख्याति मिली।  

प्रतिबद्धता 

                  किंजल्क अपने कार्यक्रमों में लोक परंपराओं, त्योहारों, राष्ट्रीय महापुरुषों और सम सामयिक सामाजिक मुद्दों को बहुत महत्व देते थे। अक्सर जिन विषयों पर वक्ता नहीं मिलते थे, उन पर मुझे वार्ता हेतु बुलाते थे। एक बार रात को ग्यारह बजे के लगभग किंजल्क का फोन आया। सीधे मुद्दे पर आते हुए बोले- 'कल २ बजे मोरारजी देसाई पर वार्ता दे सकोगे?' मैं समझ गया कि मामला गंभीर है, उत्तर दिया- 'हाँ, दे सकूँगा।' फिर पूछा- 'कैसे, सामग्री कहाँ से लाओगे? आलेख लिखकर लाना होगा, वही पढ़ना होगा।' मैंने कहा - 'मेरे पास मोरारजी देसाई की आत्म कथा के तीनों खंड हैं। रात में पढ़कर सवेरे लिख लूँगा, और २ बजे रिकॉर्डिंग कर दूँगा।' पूछा- 'और ऑफिस?' मैंने कहा- 'अवकाश ले लूँगा।' अगले दिन यह वार्ता रिकॉर्ड होने के बाद किंजल्क ने चैन की साँस ली। तब बताया कि जिन महोदय को यह विषय आवंटित था, उन्होंने रात को याद दिलाने पर बताया कि वे नहीं बोल सकेंगे। उस समय किसे बुलाऊँ, यही नहीं सूझ रहा था। तब तुम्हारा ध्यान आया कि तुम्हारे पास बहुत सी पुस्तकें हैं, शायद मोरार जी पर भी कुछ हो। कोई और होता तो वार्ता निरस्त करने की घोषणा कर, कुछ और प्रसारित कर देता पर किंजल्क अपनी घोषणाओं और कार्यक्रम में बदलाव नहीं करते थे। अपने कर्तव्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता असाधारण थी। 

जातिवाद के शिकार 

                  छतरपुर से स्थानांतरित होकर किंजल्क जबलपुर आए। जबलपुर के साहित्यिक जगत में ब्राह्मणवाद का बोलबाला है। किंजल्क इससे अनभिज्ञ थे। वे सबसे समानता का व्यवहार करते। अखिल भारतीय दिव्य अलंकरण के सारस्वत अनुष्ठान को बहुत लोकप्रियता और ख्याति मिली। इसमें दिए जानेवाले पुरस्कार निष्पक्ष थे। मठाधीशों को इससे कष्ट हो गया। पहले आयोजन में निर्णायकों द्वारा पक्षपात को देखते हुए हमने संयोजकीय अधिकार का उपयोग कर निर्णय निष्पक्ष किए तथा अगले वर्ष निर्णायक बदल दिए। इससे खुद को मसीहा मान बैठे साहित्यकार असंतुष्ट हों, यह स्वाभाविक था।   

                  दिव्य जी का उपन्यास रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के एम. ए. पाठ्यक्रम में सम्मिलित कराने के लिए किंजल्क ने अथक प्रयास किए। एक स्थानीय प्रकाशक से प्रकाशित कराया। विभागाध्यक्ष के विरोधियों ने किंजल्क के विरुद्ध शिकायतें कर दीं। फलत:, उन्हें सागर स्थानांतरित कर दिया गया जबकि वरिष्ठता के आधार पर इंदौर या भोपाल होना था। जबलपुर केंद्र ने उन सभी को आमंत्रित करना बंद कर दिया जो किंजल्क के निकट थे। 

नम्र किंतु दृढ़ 

                  अभियान की साहित्यिक बैठकों में किंजल्क की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। काव्य में रुचि अपेक्षाकृत कम होने पर भी वे पूरे समय सुनते और प्रतिक्रिया देते। अच्छे रचनाकारों को आकाशवाणी बुलाते। उनके द्वारा आयोजित परिचर्चाओं के विषय सम सामयिक और विचारोत्तेजक होते थे। एक मित्र के नाते वे भाई की तरह ही नहीं भाई से बढ़कर थे। अपनी बात बहुत नम्रता किंतु दृढ़ता से सामने रखते थे। किंजल्क को हिंदी प्रेम विरासत में मिल था। उनकी भाषा शुद्ध थी,, शब्द चयन में उनका सानी नहीं था। 

किंजल्क समग्र

कहानी, लेख, रिपोर्ताज आदि विधाएँ उन्हें प्रिय थीं। सागर और भोपाल में भी किंजल्क ने दिव्य अलंकरण कार्यक्रम जारी रखा। जबलपुर में मैं इस कार्यक्रम को अब भी निरन्तरित कर रहा हूँ। किंजल्क का समूचा साहित्य प्रकाशित होना चाहिए। उनके बच्चों में विरासत के प्रति लगाव स्वाभाविक है। दिव्य समग्र, किंजल्क समग्र, चकोरी समग्र और विभा समग्र पर कार्य किया जाना चाहिए। किंजल्क की स्मृति में अलंकरण भी स्थापित किया जाना चाहिए। किंजल्क को खोकर मैंने अपना मित्र और भाई खोया है। अगस्त २०२३ में मेरे संपादन में हिंदी का पहला साझा सॉनेट संकलन प्रकाशित हुआ है जिसमें ३२ सॉनेटकारों के ३२१ सॉनेट हैं। इसके आरंभ में किंजल्क को स्मरण करना स्वाभाविक है। 

दिव्य थाती के पहरुए आप भी वे दिव्य थे।  
सच कहूँ व्यक्तित्व दिखते आम, लेकिन भव्य थे।।  
समर्पित कर्तव्य प्रति वे, इष्ट निज परिवार था-
वाक्य मीठी सुनो लगता ऋचा कोई श्रव्य थे।।   
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१ ८३२४४, एमेल salil.sanjiv@gmail.com 

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