चार अग्रज :
सॉनेट
भगवती दादा पुरोधा,
रहे हिंदी हित समर्पित,
नहीं ऐसा अन्य जोधा,
करूँ नत शिर पुष्प अर्पित।
वाकई किंजल्क थे वे,
दिव्य थाती को सँजोए,
मधुर वाणी के धनी थे,
बंधु खो हम विवश रोए।
गीत की रसधार थे तुम,
हास्य अधरों पर थिरकता,
सतत शिष्ट विनोद अनुपम,
गीत लब पर मधुर सजता।
नर्मदा की धार निर्मल,
लखनवी तहज़ीब अनुपम,
पूर्णिमा के चाँद उज्जवल,
थे प्रवीण सहृदय पुरनम।
मैं भुला सकता न इनको।
मैं बुला सकता न इनको।।
नमन शत शत
संजीव
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें