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मंगलवार, 1 अगस्त 2023

तुलसी गाथा, सुनीता सिंह, पुरोवाक

पुरोवाक्
तुलसी गाथा - वैराग्य का सगरमाथा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                            काव्य का वर्गीकरण दृश्य काव्य (नाटक, रूपक, प्रहसन, एकांकी आदि) तथा श्रव्य काव्य (महाकाव्य, खंड काव्य आदि) में किया गया है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'जो केवल सुना जा सके अर्थात जिसका अभिनय न हो सके वह 'श्रव्य काव्य' है। श्रव्य काव्य का प्रधान लक्षण रसात्मकता तथा भाव माधुर्य है। माधुर्य के लिए लयात्मकता आवश्यक है। श्रव्य काव्य के दो भेद प्रबंध काव्य तथा मुक्तक काव्य हैं। प्रबंध अर्थात बंधा हुआ, मुक्तक अर्थात निर्बंधकाव्य। प्रबंध काव्य का एक-एक अंश अपने पूर्व और पश्चात्वर्ती अंश से जुड़ा होता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। पाश्चात्य काव्य शास्त्र के अनुसार प्रबंध काव्य विषय प्रधान या कर्ता प्रधान काव्य है। प्रबंध काव्य को महाकाव्य और खंड काव्य में पुनर्वर्गीकृत किया गया है।

महाकाव्य के तत्व -

                            महाकाव्य के ३ प्रमुख तत्व है १. (कथा) वस्तु , २. नायक तथा ३. रस।

१. कथावस्तु - महाकाव्य की कथा प्राय: लंबी, महत्वपूर्ण, मानव सभ्यता की उन्नायक, होती है। कथा को विविध सर्गों (कम से कम ८) में इस तरह विभाजित किया जाता है कि कथा-क्रम भंग न हो। कोई भी सर्ग नायकविहीन न हो। महाकाव्य वर्णन प्रधान हो। उसमें नगर-वन, पर्वत-सागर, प्रात: काल-संध्या-रात्रि, धूप-चाँदनी, ऋतु वर्णन, संयोग-वियोग, युद्ध-शांति, स्नेह-द्वेष, प्रीत-घृणा, मनरंजन-युद्ध नायक के विकास आदि का सांगोपांग वर्णन आवश्यक है। घटना, वस्तु, पात्र, नियति, समाज, संस्कार आदि चरित्र चित्रण और रस निष्पत्ति दोनों में सहायक होता है। कथा-प्रवाह की निरंतरता के लिए सर्गारंभ से सर्गांत तक एक ही छंद रखा जाने की परंपरा रही है किन्तु आजकल प्रसंग परिवर्तन का संकेत छंद-परिवर्तन से भी किया जाता है। सर्गांत में प्राय: भिन्न छंदों का प्रयोग पाठक को भावी परिवर्तनों के प्रति सजग कर देता है। छंद-योजना, रस या भाव के अनुरूप होनी चाहिए। अनुपयुक्त छंद रंग में भंग कर देता है। नायक-नायिका के मिलन प्रसंग में आल्हा छंद अनुपयुक्त होगा जबकि युद्ध के प्रसंग में आल्हा सर्वथा उपयुक्त होगा।

२. नायक - महाकाव्य का नायक कुलीन धीरोदात्त पुरुष रखने की परंपरा रही है। समय के साथ स्त्री पात्रों (दुर्गा, कैकेयी, सीता, मीरा, दुर्गावती, नूरजहां आदि), किसी घटना (सृष्टि की उत्पत्ति आदि), स्थान (विश्व, देश, शहर आदि), वंश (रघुवंश) आदि को नायक बनाया गया है। संभव है भविष्य में युद्ध, ग्रह, शांति स्थापना, योजना, यंत्र आदि को नायक बनाकर महाकाव्य रचा जाए। महाकाव्य में प्राय: एक नायक रखा जाता है किंतु रघुवंश में दिलीप, रघु और राम ३ नायक है। भारत की स्वतंत्रता को नायक बनाकर महाकाव्य लिखा जाए तो गोखले, तिलक, लाजपत राय, रवीद्रनाथ ठाकुर, गाँधी, नेहरू, पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सुभाषचंद्र बोस आदि अनेक नायक हो सकते हैं। स्वातंत्र्योत्तर देश के विकास को नायक बना कर महाकाव्य रचा जाए तो कई प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति अलग-अलग सर्गों में नायक होंगे। नायक के माध्यम से उस समय की महत्वाकांक्षाओं, जनादर्शों, संघर्षों अभ्युदय आदि का चित्रण महाकव्य को कालजयी बनाता है।

३. रस - काव्य की आत्मा रस को कहा गया है। महाकाव्य में उपयुक्त शब्द-योजना, वर्णन-शैली, भाव-व्यंजना, आदि की सहायता से अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं। पाठक-श्रोता के अंत:करण में सुप्त रति, शोक, क्रोध, करुणा आदि को काव्य में वर्णित कारणों-घटनाओं (विभावों) व परिस्थितियों (अनुभावों) की सहायता से जाग्रत किया जाता है ताकि वह 'स्व' को भूल कर 'पर' के साथ तादात्म्य अनुभव कर सके। यही रसास्वादन करना है। सामान्यत: महाकाव्य में कोई एक रस ही प्रधान होता है। महाकाव्य की शैली अलंकृत, निर्दोष और सरस हुए बिना पाठक-श्रोता कथ्य के साथ अपनत्व नहीं अनुभव कर सकता।

अन्य विधान - महाकाव्य का आरंभ मंगलाचरण या ईश वंदना से करने की परंपरा रही है जिसे सर्वप्रथम प्रसाद जी ने कामायनी में भंग किया था। अब तक कई महाकाव्य बिना मंगलाचरण के लिखे गए हैं। महाकाव्य का नामकरण सामान्यत: नायक तथा अपवाद स्वरूप घटना, स्थान आदि पर रखा जाता है। महाकाव्य के शीर्षक से प्राय: नायक के उदात्त चरित्र का परिचय मिलता है किन्तु स्व. दयाराम गुप्त 'पथिक' ने कर्ण, विदुर तथा रावण पर लिखित महाकाव्यों के शीर्षक क्रमश: 'सूतपुत्र', 'महामात्य' तथा 'कालजयी' रखकर नव परंपरा स्थापित की है।

गाथा - वैदिक साहित्य का यह महत्वपूर्ण शब्द ऋग्वेद की संहिता में गीत या मंत्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है (ऋग्वेद ८.३२ .१, ८.७१.१४)। 'गै' (गाना) धातु से निष्पन्न होने के कारण गीत ही इसका व्युत्पत्ति लभ्य तथा प्राचीनतम अर्थ प्रतीत होता है। गाथ शब्द की उपलब्धि होने पर भी आकारान्त शब्द का ही प्रयोग लोकप्रिय है (ऋग्. ९।९९।४)। गाथा शब्द से बने हुए शब्दों की सत्ता इसके बहुल प्रयोग की सूचिका है। गाथानी एक गीत का नायकत्व करनेवाले व्यक्ति के लिये प्रयुक्त है (ऋग्0 १। ४३।१४)। ऋजुगाथ शुद्ध रूप से मंत्रों के गायन करनेवाले के लिये (ऋग. ८। ९। २१२) तथा गाथिन केवल गायक के अर्थ में व्यवहृत किया गया है (ऋग्. ५। ४४। ५)। यद्यपि इसका पूर्वोक्त सामान्य अर्थ ही बहुश: अभीष्ट है, तथापि ऋग्वेद के इस मंत्र में इसका अपेक्षाकृत अधिक विशिष्ट आशय है, क्योंकि यहाँ यह नाराशंसी तथा रैभी के साथ वर्गीकृत किया गया है: 'रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी न्योचनी।सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयैति परिष्कृतम्॥' -- ऋग्वेद १०।८६।६

                            ऐतरेय ब्राह्मण की दृष्टि में (ऐ. ब्रा. ७। १८) मंत्रों के विविध प्रकार में 'गाथा' मानव से संबंध रखती है, जबकि 'ऋच' देव से संबंध रखता है। अर्थात् गाथा मानवीय होने से और ऋच दैवी होने से परस्पर भिन्न तथा पृथक मंत्र है। इस तथ्य की पुष्टि शुन:शेप आख्यान के लिये प्रयुक्त शतगाथम (सौ गाथाओं में कहा गया) शब्द से पर्याप्तरूपेण होती है, क्योंकि शुन:शेप अजीगर्त ऋषि का पुत्र होने से मानव था जिसकी कथा ऋग्वेद (१। 24; 1। 25 आदि) के अनेक सूक्तों में दी गई है। महावीर तथा गौतम बुद्ध के उपदेशों का निष्कर्ष उपस्थित करनेवाले पद्य गाथा नाम से विख्यात है। विश्ववाणी हिंदी के सारस्वत भंडार को निरंतर समृद्ध करनेवाली महाकवि सुनीता सिंह ने मानवपुंगव गोस्वामी तुलसीदास पर रचित महाकाव्य का नामकरण ''तुलसी गाथा'' रखकर औपनिषदिक परंपरा को पुनर्जीवित किया है।

हिंदी में महाकाव्य : कल से आज

                            विश्व वांग्मय में लौकिक छंद का आविर्भाव महर्षि वाल्मीकि से मान्य है। भारत और सम्भवत: दुनिया का प्रथम महाकाव्य महर्षि वाल्मीकि कृत 'रामायण' ही है। महाभारत को भारतीय मानकों के अनुसार इतिहास कहा जाता है जबकि उसमें अंतर्निहित काव्य शैली के कारण पाश्चात्य काव्य शास्त्र उसे महाकाव्य में परिगणित करता है। संस्कृत साहित्य के श्रेष्ठ महाकवि कालिदास और उनके दो महाकाव्य रघुवंश और कुमार संभव का सानी नहीं है। सकल संस्कृत वाङ्मय के चार महाकाव्य कालिदास कृत रघुवंश, भारवि कृत किरातार्जुनीयं, माघ रचित शिशुपाल वध तथा श्रीहर्ष रचित नैषध चरित अनन्य हैं।

                            हिंदी महाकाव्य परंपरा चंद बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो तथा मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत से उद्गमित है। निस्संदेह जायसी फारसी की मसनवी शैली से प्रभावित हैं किन्तु इस महाकाव्य में भारत की लोक परंपरा, सांस्कृतिक संपन्नता, सामाजिक आचार-विचार, रीति-नीति, रास आदि का सम्यक् समावेश है। कालांतर में वाल्मीकि और कालिदास की परंपरा को हिंदी में स्थापित किया महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में। तुलसी के महानायक राम परब्रह्म और मर्यादा पुरुषोत्तम दोनों ही हैं। तुलसी ने राम में शक्ति, शील और सौंदर्य तीनों का उत्कर्ष दिखाया। केशव की 'रामचंद्रिका' में पांडित्यजनक कला पक्ष तो है किन्तु भाव पक्ष न्यून है। रामकथा आधारित महाकाव्यों में मैथिलीशरण गुप्त कृत 'साकेत' और बलदेव प्रसाद मिश्र कृत 'साकेत संत' महत्वपूर्ण हैं। कृष्ण को केंद्र में रखकर अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने 'प्रिय प्रवास' और द्वारिका मिश्र ने 'कृष्णायन' की रचना की। 'कामायनी' - जयशंकर प्रसाद, 'वैदेही वनवास' हरिऔध, 'सिद्धार्थ' तथा 'वर्धमान' अनूप शर्मा, 'दैत्यवंश' हरदयाल सिंह, 'हल्दी घाटी' श्याम नारायण पांडेय, 'कुरुक्षेत्र' दिनकर, 'आर्यावर्त' मोहनलाल महतो, 'नूरजहां' गुरभक्त सिंह, 'गाँधी पारायण' अम्बिका प्रसाद दिव्य, 'उत्तर भागवत' तथा 'उत्तर रामायण' डॉ. किशोर काबरा, 'कैकेयी' डॉ. इंदु सक्सेना, 'देवयानी' वासुदेव प्रसाद खरे, 'महीजा' तथा 'रत्नजा' डॉ. सुशीला कपूर, 'महाभारती' डॉ. चित्रा चतुर्वेदी कार्तिका, 'दधीचि' आचार्य भगवत दुबे, 'वीरांगना दुर्गावती' गोविन्द प्रसाद तिवारी, 'मानव' डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल', 'क्षत्राणी दुर्गावती' केशव सिंह दिखित 'विमल', 'कुंवर सिंह' चंद्र शेखर मिश्र, 'वीरवर तात्या टोपे' वीरेंद्र अंशुमाली, 'सृष्टि' डॉ. श्याम गुप्त, 'विरागी अनुरागी' डॉ. रमेश चंद्र खरे, 'राष्ट्रपुरुष नेताजी सुभाष चंद्र बोस' रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध', 'सूतपुत्र', 'महामात्य' तथा' कालजयी' दयाराम गुप्त 'पथिक', 'आहुति' बृजेश सिंह आदि ने महाकाव्य विधा को संपन्न और समृद्ध बनाया है।

महाकाव्य की प्रासंगिकता

                            समयाभाव के इस दौर में भी महाकाव्य न केवल निरंतर लिखे-पढ़े जा रहे हैं अपितु उनके कलेवर और संख्या में वृद्धि भी हो रही है, यह संतोष का विषय है। महाकाव्य जीवन जीने के उद्देश्य और विधि बताते हैं। महाकाव्यों के विविध प्रसंग जीवन में घटित हो सकनेवाली घटनाओं का विश्लेषण कर उनपर जयी होने के लिए किए गए आचरण का विश्लेषण कर व्यक्तित्व निर्माण तथा संघर्ष पथ निर्धारण में सहायक होते हैं। महाकाव्य नायक और खलनायक के चरित्र चित्रण द्वारा शुभ-अशुभ, नैतिक-अनैतिक, वरेण्य-त्याज्य जीवन मूल्यों का विश्लेषण कर समाज को दिशा दिखाते हैं। महाकाव्य हमारे इतिहास और अतीत की संस्कृति के इतिहास हैं। वे हमारी संस्कृति और सभ्यता के विविध चरणों में हुए संघर्ष, जय-पराजय, गतागत से वर्तमान पीढ़ी को परिचित कराकर उन्हें समसामयिक समस्याओं से जूझने का हौसला देते हैं तथा संघर्ष करने की विधि बताते हैं। महाकाव्य परंपराओं का परीक्षण कर, उनकी उपादेयता का परीक्षण करते हैं। संघर्षों और युद्धों के कारणों और परिणामों का विश्लेषण कार वर्तमान समस्याओं को सुलझाने की आधारभूमि देते हैं। महाकाव्य धर्म-आध्यात्म आदि से जुड़े प्रसंगों का विश्लेषण, शंकाओं का समाधान प्रस्तुत कर नई पीढ़ी को राह दिखाते हैं।

महाकाव्य प्रेरणा-स्रोत

                            महाकाव्य में पराक्रम की कहानियाँ होती हैं। वे हमें प्रेरित करते हैं। महाकाव्य हमें बताते हैं कि असंभव कुछ भी नहीं है, बस जरूरत है तो आत्म-विश्वास की। हमें खुद पर भरोसा करने की जरूरत है और फिर हम असंभव कार्यों को संभव कर सकते हैं। महाकाव्य हमें प्रेरणा और आत्म-विश्वास दे सकते हैं। महाकाव्यों से प्रेरणा लेकर हम जीवन में हारी हुई लड़ाइयों को आसानी से जीत सकते हैं। महाकाव्य के कथा प्रसंगों में नायक त्रासदी, घृणा, विश्वासघात, अपयश, उपहास, दुर्भाग्य और शत्रुता का सामना करता है। वही स्थिति हमारे सामने आती है तो उसकी ताकत हमें प्रेरित कर सकती है। हमें ऐसी स्थितियों में अनुसरण करने का मार्ग मिलेगा। उनका जीवन हमें उम्मीद नहीं खोने और हर स्थिति का बुद्धिमानी और निडरता से सामना करने की सीख देता है।

राष्ट्र और विश्व के प्रति कर्तव्य

                            महाकाव्य सीखते हैं कि स्थिति कैसी भी हो राष्ट्र के प्रति कतव्य भाव सर्वोपरि है। हमारा राष्ट्र हमारी पहली प्राथमिकता हो। एक नागरिक के रूप में, यह हमारा कर्तव्य है कि हम जान देकर भी अपने देश की दुश्मनों से रक्षा करें। सभी नागरिकों और मनुष्यों का समान अधिकार है और किसी को भी इससे वंचित नहीं किया जा सकता। एक नागरिक के रूप में, हमें राष्ट्र के सभी नागरिकों का ध्यान रखना चाहिए। शासक का कोई भी निर्णय स्थानीय जनता के हित के विरुद्ध नहीं होना चाहिए। महाकाव्य हमें सिखाते हैं कि एक अच्छा शासक वही है जो पहले स्थानीय नागरिकों के बारे में सोचता है। उनके द्वारा उठाया गया प्रत्येक कदम आम लोगों के हित में होना चाहिए और उन्हें किसी भी तरह से नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए। यही नहीं महाकाव्य सकल विश्व को एक परिवार दिखाकर हमें प्रकृति, पृथ्वी और सृष्टि के प्रति अपने कर्तव्य का बोध कराता है।

प्रौद्योगिकी की खोज में सहायक

                            महाकाव्यों ने हमारी प्रौद्योगिकी को बहुत अधिक प्रेरित किया है। अधिकांश आविष्कारों का अन्वेषण अथवा परिकल्पना प्राचीन कथाओं में मिलती है। कई महान प्रौद्योगिकियां पुराने युग में अपनी जड़ें जमा कार काल क्रम में विलुप्त चुकी हैं किंतु उनकी चर्चा महाकाव्यों में है, हम उन वर्णनाओं के आधार पर नव अन्वेषण कर खो चुकी तकनीकों को पुन: पा सकते हैं। शिव द्वारा अमरकंटक की झील से नर्मदा तथा मानसरोवर झील से गंगा को प्रवाहित करना, त्रिपुर के तीन उन्नत नरगों को पल भर में नष्ट कार देना, महर्षि अगस्त्य द्वारा उत्तर से दक्षिण जाने के लिए अत्युच्च विंध्याचल पर्वत के अंदर से मार्ग बनाना, समुद्र में छिपे कलके राक्षसों का वध करने के लिए समुद्र को सुखाना आदि परमाणु ऊर्जा के उपयोग बिना असंभव था। त्रेता में राम द्वारा सेतु बंधन, राम-रावण युद्ध में प्रयुक्त दिव्यास्त्रों के उत्पन्न और सैंकड़ों वर्षों के बाद आज तक भारत-लंका के मध्य थोरियम की विशाल मात्रा का होना, उस समय प्रयुक्त शस्त्रास्त्र प्रौद्योगिकी का प्रमाण है। वैज्ञानिक इस तथ्य पर सहमत हैं कि महाभारत में कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध में इस्तेमाल किए गए हथियारों से कई आधुनिक हथियारों, बमों या मिसाइलों का पता लगाया जा सकता है। सबसे विनाशकारी हथियार जो महाभारत में उजागर किया गया ब्रह्मास्त्र है, वह सब कुछ, पूरे जीवन को नष्ट करने की क्षमता रखता है। इसे परमाणु हथियारों के समकक्ष माना जा सकता है। भगवान विष्णु ने 'विमान' को एक विधा के रूप में इस्तेमाल कियापरिवहन की। यह आधुनिक दुनिया के हवाई जहाजों और हेलीकाप्टरों के अनुरूप है। हाल ही में एक ऐसी मिसाइल का आविष्कार हुआ है जो अपने लक्ष्य के पीछे तब तक दौड़ती है जब तक कि वह उसे ढूंढकर उसे पूरा नहीं कर लेती। इसे भगवान विष्णु और भगवान कृष्ण द्वारा इस्तेमाल किए गए हथियार के बराबर माना जा सकता है, जिसे 'सुदर्शन चक्र' कहा जाता है। महाकाव्यों में वर्णित बातें वैज्ञानिकों के मन को मथ रही हैं और उन्हें वास्तविक जीवन में लाने के लिए प्रेरित कर रही हैं।

मनोरंजन का स्रोत

                            महाकाव्य, उपन्यास, फिल्म या टीवी श्रृंखला की अपेक्षा मनोरंजन का एक बड़ा और प्रामाणिक स्रोत हैं। उन्हें अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए। महाकाव्य अब आसान भाषाओं में ज्ञान उपलब्ध कराते हैं। अनेक चलचित्र और धारावाहिक इन महाकाव्यों पर आधारित हैं और दर्शकों द्वारा उनकी प्रशंसा की गई है। रामायण और महाभारत पर बने धारावाहिक अपनी मिसाल आप हैं। उन्हें छोटे दर्शकों के लिए भी एनिमेटेड फिल्मों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन महाकाव्यों के आधार पर कई स्टेज शो और नाटकों का आयोजन किया जाता है। यदि आप किसी ऐसी चीज की तलाश कर रहे हैं जो आपका मनोरंजन कर सके, तो महाकाव्य एक अच्छा स्रोत हो सकते हैं। महाकाव्यों में प्यार, कर्तव्य, बलिदान, ड्रामा, सस्पेंस, एक्शन, त्रासदी, स्वार्थ, मोह आदि का भंडार है। महाकाव्य श्रेष्ठ मनोरंजन का कभी न समाप्त होनेवाला स्रोत हैं।

आदर्श एवं प्रेरणा 

                            महाकाव्य में एक उदात्त चरित-नायक होता है। यह नायक और नायिका सामान्यत: अनेक दैवी गुणों से संपन्न होते हैं तथा असाधारण सामर्थ्य का प्रदर्शन कार जीवन के संकटों को जीतकर लक्ष्य प्राप्त करते हैं। ऐसे महामानव पूरे समाज और हर व्यक्ति के लिए आदर्श होते हैं जिनका अनुकरण कर मनुष्य अपने जीवन को श्रेष्ठता की ओर ले जा सकता है। 
 
गोस्वामी तुलसीदास 

                            भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक और पूर्वाञ्चल से गुजरात तक जिन आध्यात्मिक विभूतियों और धार्मिक संतों की लोकप्रियता कालजयी है उनमें गोस्वामी तुलसीदास अग्रगण्य हैं। तुलसीदास जी की जीवन गाथा और उनके द्वारा लिखित महाकाव्य राम चरित मानस दोनों अजर -अमर हैं। मानस केवल भारतीय या हिंदी साहित्य की नहीं अपितु विश्व वांगमय की अनूठी समयजयी कृति है। गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं ने पराभव काल में भारतीय जनमानस की जिजीविषा को मरने नहीं दिया। दीर्घकालिक क्रूर प्रताड़नाओं के बावजूद भारतीय अस्मिता का शीश उठा रहने का कारण तुलसीदास का श्रेष्ठ चरित्र है। जन्म लेते ही माँ का देहावसान, पिता द्वारा त्याग, पोषणकर्त्री का निधन, पत्नी से वियोग, पुत्र का निधन, पंडितों द्वारा निरंतर विरोध, मुगल सम्राट द्वारा प्रलोभन व भय, प्लेग जैसी घातक महामारी से मरणांतक पीड़ा आदि का वीरोचित धैर्य और संतोचित मनोबल से सामना करते हुए अपने उत्थान और जन-कल्याण के लिए अपने पथ पर बिना डिगे चलते हुए, अपने इष्ट के प्रति शिकायत का भाव न मन में लाना तुलसी को तुलसी बनाता है। परम सुंदरी-विदुषी पत्नी के प्रति राग-द्वेष से मुक्त तटस्थ भाव अपनाए रखना और उनका पथ प्रदर्शन करना तुलसी के ही वश की बात है। अपने इष्ट के दर्शन पाकर भी तुलसी के माँ में अहंकार या प्रलोभन नहीं जागता। ऐसे महामानव का महाचरित्र महाकाव्य लेखन के लिए सर्वथा उपयुक्त है। विशेषकर इस काल में जबकि साहित्यकार अपने कर्तव्य पथ पर नहीं चल पा रहे है, पुरस्कारों और सस्ती लोकप्रियता के पीछे भाग रहे हैं, संत आध्यात्मिक साधना भूलकर नारी और कंचन के मोह में लिप्त होकर जनआस्था गँवा चुके हैं, लोक अपने नायकों और शासन-प्रशासन के प्रति अनास्था से ग्रस्त है, हम सब अपनी त्रुटि देखे बिना एक-दूसरे की त्रुटियाँ देख-देखकर देश के सामने विघटन का खतरा उत्पन्न करने में सहायक हो रहे हैं। लोक के आराध्य राम को क्षुद्र राजनैतिक उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जा रहा है तब तुलसी का चरित्र, तुलसी का संघर्ष, तुलसी की आस्था, तुलसी त्याग, तुलसी की भक्ति का पठन-पाठन लोक को सद्मार्ग पर लाने के लिए अपरिहार्य है। इस काल में महाकाव्य लेखन के लिए तुलसीदास सर्वथा उपयुक्त महानायक हैं। 

महाकवि सुनीता सिंह 

                            किसी महान मनुष्य के चरित्र, कार्यों, संदेश तथा अवदान को सम्यक दृष्टि से देख पाने, विश्लेषित करने, निष्कर्ष निकालने, उसे विविध सर्गों में वर्गीकृत करने, काव्य बद्ध कर पाना हर किसी के वश की बात नहीं है। सुनीता गुरु गोरखनाथ की पवित्र भूमि पर जन्म लेने को सौभाग्य पा चुकी है। वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में परास्नातक है, तत्पश्चात उन्होंने कराधान से संबंधित विषयों पर शोध कार्य किया है।  हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कविताएँ, गीत, नवगीत, दोहा, ग़ज़ल, नज़्म और ऐतिहासिक कहानियाँ आदि विषयक सुनीता की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वे उत्तर प्रदेश में सहायक निर्वाचन अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। सुनीता के अंदर किसी विषय को समझने, विश्लेषण करने, नवाचार की दृष्टि से मूल्यांकन करने और भविष्य की दृष्टि से नव अन्वेषण करने की सामर्थ्य है।  सुनीता न तो श्रद्धाहीन है, न ही अंधश्रद्धा युक्त। यह वैचारिक संतुलन उन्हें महाकाव्य लेखन के लिए सुपात्र बनाता। है संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी जैसे महान व्यक्तित्व के जीवन कार्य और अवदान का सम्यक सर्वोपयोगी तथ्यपरक विश्लेषण करने के साथ-साथ अब तक पर्याय: उपेक्षिता और लोक निंदिता नारी रत्न रत्नावली के दिव्य व्यक्तित्व के अछूते पहलुओं को उद्घाटित कार सुनीता ने महाकवि के रूप में अपनी पात्रता सिद्ध की है।  

                            तुलसी गाथा का श्री गणेश परंपरा अनुसार मंगलाचरण में सरस्वती वंदना (सिंहनी छंद यति १६-१६, पदादि गुरु, पदांत सगण), शिव वंदना (चौपाई गीत, शिव के १२१ नाम), गौरी-गणेश वंदना (दोहा, दोहगीत यति १३-११, पदांत गुरु लघु), श्री राम वंदना (वाचिक नखत छंद २७ मात्रिक, यति बंधन मुक्त, पदांत गुरु) से किया गया है।  ईश वंदना करने का आशय कृति के सृजन-प्रकाशन-पथ में आनेवाली सभी बाधाओं का निवारण कर, रचनाकार को शक्ति व सामर्थ्य प्रदान करना है कि वह महाकाव्य लेखन के गुरुतर दायित्व का निर्वहन कर सके। 

देश की रज स्वर्ण कर दे, भाल आभा ओज भर दे।
शृंग सा उत्थान कर दे, जोश की अनमिट लहर दे।
नित प्राण करते आचमन हैं, माँ शारदे! तुझको नमन है।।    

हे ललाटाक्ष शिपिविष्ट तमोहर, पुरसाना वागीश मनोहर! 
तुम्हीं सनातन तुम्हीं पुरातन, कर दो सारे शूल विनाशन।।  

दशरथ के सुत राम, त्याग कर महलों के आराम,  
रखेंगे पिता वचन का मान, चले हैं कानन को 
सिया लखन के साथ चले हैं कानन को 

                            महाकाव्य की कथानक की पृष्ठभूमि स्वरूप रचित 'अस्तबोध' शीर्षक प्रथम अध्याय में तुलसी के काल का संदर्भ (बीसा छंद यति २०-२०, पादांत गुरु) है-

कठिन समय की धार दिखाई देती। विधना जैसे कड़ी परीक्षा लेती।।   
जहाँ कभी स्वर्णिम गौरव गाथा थी। शौर्य जहाँ कण-कण की परिभाषा थी।।  
होता रज का तिलक जहाँ माथे पर। रहते थे जन सिर ऊँचा जिसमें कर।।  
आज वहाँ रहती घनघोर निराशा। देख विधर्मी निष्ठुर खोई आशा।।  

                            इस सर्ग का समापन दोहा और किरीट सवैया (८ भगण) से हुआ है और ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि यह जो युगीन विसंगतियाँ हैं, उनका निवारण करें- 

कुछ तो ऐसा कीजिए, हे प्रभु दयानिधान।  
भवसागर की ताड़ना, सहनाहो आसान।। 

देश पड़ी विपदा जब संकट-कष्ट मिटा मन आप बसें जब। 
साज उठे बज जेपी रन दुंदुभि भक्त करे लय-ताल गया कब?
 
                            दूसरे अध्याय 'नंदन सर्ग' में तुलसी-जन्म, माता का निधन, पिता द्वारा त्याग, दासी मुनिया द्वारा तुलसी की प्राण रक्षा, मुनिया का निधन, मुनिया की भिक्षुणी सास द्वारा तुलसी का पोषण, उसका निधन, तुलसी द्वारा हनुमत मढ़िया में शरण, नरहरि गुरु द्वारा आश्रय और शिक्षा का संक्षिप्त वर्णन है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने खंडकाव्य पंचवटी में राम वनवास प्रसंग में लिखा है- 

जितने कष्ट कंटकों में है जिनका जीवन सुमन खिला।  
गौरव गंध उन्हें उतना ही यत्र तत्र सर्वत्र मिला।।  

                            श्री राम के लिए लिखी गई यह पंक्तियाँ राम के भक्त तुलसी के जीवन पर भी शत प्रतिशत सत्य उतरती हैं। कहते हैं 'सब दिन जात न एक समान' अंततः, तुलसी के बुरे दिन भी बीते, तुलसी को गुरु कृपा प्राप्त हुई और जैसा कबीर कहते हैं- 

गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागू पाय।  
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।। 

                            अनाथ बालक तुलसी के अंतस में व्याप्त प्रतिभा का अनुमान कर गुरु नरहरि ने उसे अनाथ से सनाथ कर दिया। मेधावी तुलसी ने गुरुकृपा पाकर गुरुसेवा और अध्ययन  प्राण-प्राण से किया। गुरु यज्ञ से अपने ग्राम राजपुर लौटकर तुलसी ने मधुर वाणी से राम कथा सुनाकर ख्याति  और धन अर्जित किया। सर्ग के उत्तरार्ध में सोरोंवासी पं. आत्माराम की सुता रत्नावली के जन्म, शिक्षा, संस्कार, प्रतिभा, सात्विकता, बौद्धिकता, प्रखरता, ख्याति आदि की चर्चा है। विधि का विधान हो तो मणि-कांचन संयोग हो ही जाता है। दूसरे अध्याय का समापन वागीश्वरी छंद (७ यगण + IS) में किया गया है। 

                            'रुचिरा सर्ग' शीर्षक तृतीय अध्याय में ताटंक छंद (यति १६-१४, पदांत मगण) में तुलसी रत्नावली के मिलन, विवाह, प्रगाढ़ अनुराग, रत्ना का अचानक मायके गमन, तुलसी का लुक-छिपकर अर्धरात्रि में रत्ना के कक्ष में प्रवेश, लोकापवाद से भीत रत्ना द्वारा राम-भक्ति का उपदेश, तुलसी द्वारा सन्यास का निश्चय आदि घटनाओं का वर्णन है। तुलसी-रत्ना मिलन की पृष्ठभूमि, दोनों की मनस्थिति, अव्यक्त पारस्परिक अनुराग, मिलन, अत्यधिक प्रेम आदि प्रसंगों में महाकाव्यकार ने मौलिक चिंतन किया है। सर्गांत में दोहा तथा विद्या छंद (यति १४-१४, पदांत यगण)) का प्रयोग किया गया है। लोक ने रत्ना को रूपगर्विता-कटुभाषिणी कहकर निंदा की है किंतु लेखिका ने सहृदयतापूर्वक रत्ना के मनोभावों को व्यक्त करते हुए उसे विदुषी, विनम्र, कर्तव्यपारायण, पति निष्ठ, प्रभु भक्त चित्रित किया है। सामान्य नारी होती तो अपने रूप में आसक्त पति को तृप्त कर कृतार्थ होती किंतु रत्ना पति को सनातन सत्य का दर्शन कराती है- 

हाड़-माँस की बनी देह से प्रेम कर रहे हो जितना।  
प्रभु रामचन्द्र से प्रेम यही, करते होते जो उतना। 
पार सहज भव सागर होता, सता न पाता भय जग का। 
विषय वासना में जगती के, लीन हो गए हो कितना?
मूल स्वरूप विचारो अपना, कुछ जगती का ध्यान करो। 
कल्याण लोक का हो जाए, कुछ अपना उत्थान करो।

                            चतुर्थ अध्याय 'स्नगधरा सर्ग' में तुलसी रत्ना से सन्यास की अनुमति चाहते हैं क्योंकि जीवित पत्नी की अनुमति बिना विवाहित पुरुष सन्यास नहीं ले सकता। तुलसी रत्ना के सामने पहुँचते हैं- 

घर तक पहुँचे गोसवमी जी। अनुमति लेने सन्यासी जी। 
खबर मिली तो भगी आयी। रत्ना चौखट तक आ पायी । 
तुलसी रूप देख स्तब्ध खड़ी । असमंजस या ग्लानि में पड़ी। 
तुरत संयत किया स्वयं को। अब क्या देना स्थान अहं को।
तुलसी पग पर शीष नवाया। आदर से उनको बैठाया।   

                            बहुत प्रयास के बाद जब तुलसी को शब्द नहीं मिल रहे थे कि किस तरह प्राणाधिक प्रिय रही परम सुंदरी पतिनिष्ठ रत्नावली से सन्यास की अनुमति माँगें तब रत्ना ने ही पहल कर अपने ह्रदय पर पत्थर रखते हुए उनका धर्म संकट दूर किया- 

संकोच बिना हे नाथ! कहो। हिय हूक उठे अब चुप न रहो॥ 

                          रत्ना ने बताया कि उसके मन में तुलसी के प्रति कितना अनुराग है, उसका उद्देश्य तुलसी की अवमानना या तुलसी को प्रताड़ित करना नहीं था। तुलसी को उस विषम मौसम में, अर्धरात्रि पर्यंत, उस दुर्दशा में देखकर चिंता की वजह से यह वचन निकले थे-

मुश्किल है तुम बिन जी पाना।  अपराध बोध विष पी जाना॥ 

                         मानव मन में दुविधा होना स्वाभाविक है। रत्ना भी क्षण भर को विचलित होती है - 

अगर ज्ञात जो होगा मुझको। त्याग दिया जाएगा मुझको॥  
नहीं सत्य-पथ मैं दिखलाती। नहीं त्याग की महिमा गाती॥ 
नहीं भक्ति की अलख जगाती। नहीं मोक्ष की महिमा गाती॥  

                         यह सन्यास प्रसंग महाकाव्यकार की अपनी मौलिक अवधारणा है। यह सर्ग अत्यंत मार्मिक तथा महत्वपूर्ण है। यह रत्नावली की अग्निपरीक्षा की घड़ी है। अपनी गृहस्थी की रक्षा के लिए पति को सन्यास की अनुमति न देकर संसार में रमने के लिए विवश करे या अपने ही वचनों को सत्य प्रमाणित करते हुए पति को सन्यस्त होने देकर आजीवन विरह की व्यथा और संतान के पोषण का गुरुतर दायित्व वहन करे। रत्नावली भली-भाँति जानती थी कि तुलसी के सन्यास ले लेने पर उसे सधवा होते हुए भी विधवा का सा संयम रखना होगा, समाज की प्रतारणा सहनी होगी, शिशु जैसे-जैसे होगा वैसे-वैसे उसके मन में उठते प्रश्नों का और समाज द्वारा बोई जाती शंकाओं का सामना करना होगा तथापि वह पति के मनोरथ को पूर्ण करने में साधक बनने का निर्णय लेकर, बाधक नहीं बनती। वे पुरातन ग्रहस्थ सन्यासियों का उल्लेख कर पति के राम भक्ति पथ पर सहयोगिनी के रूप में सेवा कार पाने का अवसर चाहती हैं- 

नाथ! न लो अब और परीक्षा। शांत हृदय से करो समीक्षा।।
जाप न तप में विघ्न बनूँगी। काँटे पलकों से चुन लूँगी।। 
सहचर बनकर साथ चलूँगी।सारे कंटक धूप सहूँगी।। 
ध्यान करो प्रिय! जितना चाहें। किंतु न मोड़ों अपनी राहें।। 
प्राचीन काल के सन्यासी। गढ़स्थ जीवन के अधिवासी।। 
साथ हमारे रहकर प्रियवर!। चलते जाना भक्ति डगर पर।।

                         तुलसी लोकापवाद के भय से रत्न का प्रस्ताव स्वीकार न कर, अपनी पत्नी के प्रति आभार व्यक्त  करते हुए उनकी किसी एक चाह को पूरा करने का वचन देते हैं-
 
उपकार रहा वो मुझ पर, प्रिय! मान रहा हूँ मैं।।  
मेरे साथ बँधी तुम भी, ये जान रहा हूँ मैं।।  
अगर समय मिल पाया तो, इस पर भी सोचूँगा।। 
एक तुम्हारी किसी चाह को पूरा कार दूँगा।।        

                         इस अध्याय का पूर्व भाग चौपाई छंद (१६-१६ पर यति) में है। उत्तर भाग में महाभागवतजातीय छंद (१४-१२ पर यति) तथा गीतिका छंद (१४-१२, पदांत लघु-गुरु) का उपयोग है। मुछ दोहों के पश्चात सर्गांत में राधा छंद (रतमयग, ८-५) का उपयोग है। 

                         पंचम अध्याय अभिज्ञान सर्ग है जिसमें ३० मात्रिक महातैथिक जातीय कुकुभवत, रुचिरा, ताटंक, कुकुभ, दोहा तथा सोमराजी छंद का उपयोग कर  सन्यासी तुलसी के मन मंथन का शब्दांकन  है। 

                         महत्वपूर्ण संप्लव सर्ग में तुलसीदास के अन्य संतों के साथ मधुर संबंध वर्णित हैं। यह सर्ग लोक श्रुति के अनुसार सूरदास, रसखान , तुलसीदास तथा नाभादासकी भेंट पर केंद्रित है। कवयित्री कालक्रम का ध्यान रखते हुए तथ्य दोष से बचने के प्रति सचेष्ट है। लावणी (१६-१४) छंद का प्रयोग उसे तुकांत बंधन से मुक्त कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। मीराबाई का मार्गदर्शन तुलसी दास द्वारा किया जाना लोक सम्मत है। इस प्रसंगों में इष्ट, पंथ तथा गुरु अलग-अलग होने पर भी संतों में पारस्परिक समादर सनातन धर्म की सहिष्णुता और एकेश्वरवाद के अनुरूप  है। इन प्रसंगों से वर्तमान समाज को प्रेरणा लेकर पारस्परिक टकराव और वैमनस्य भाव का शमन करना चाहिए। अकबर तथा बीरबल से भेंट के समय तुलसी उनसे उम्र में पर्याप्त बड़े रहे होंगे। सत्ता द्वारा संतों को प्रलोभन देकर भ्रष्ट करने के दुष्यप्रयास और तुलसी का श्री राम के प्रति एकांतिक उपास्य भाव अनुकरणीय है। तुलसी द्वारा रामलीला मंचन की परंपरा के श्री गणेश और श्रीकृष्ण दर्शन के समय उनमें श्री राम की छवि का दर्शन करना तुलसी के चरित्र को आदर्श बनाता है।


                         गोस्वामी तुलसीदास के चित्रकूट प्रवास पर केंद्रित है सप्तम प्रमिता सर्ग। श्री राम भक्ति, कवित्व शक्ति का उदय, टोडरमल से मित्रता, रामकथा में शैव-वैष्णवों की समरसता, जनजातियों केवट, निषाद, शबरी, हनुमान, सुग्रीव, अंगद, जांबवंत आदि से श्री राम का नैकट्य तथा मैत्र भाव आदि नूतन मानवीय सामाजिक आदर्शों का रामकथा में समावेश, हनुमान जी से भेंट, राम-लक्ष्मण के दर्शन आदि महत्वपूर्ण प्रसंग इस अध्याय में वर्णित हैं। महातैथिक जातीय ताटंकवत छंद के साथ दोहा तथा सर्गांत में लवंगलता छंद (अठज ल) का प्रयोग काव्य चारुत्व में वृद्धि करता है। 

सभी कृतियाँ तुलसी कहते प्रभु रामलला सुकुमार सुहावन। 
वही लय ताल गुलाल सजा स्कजहे सब राम लगेन मन भावन।। 
कहाँ तक बूझ सके मन सूझ सके सरिता जल शीतल पावन।
बने रचना कृतियाँ सुलझी उलझी स्वर तान सुखावन सावन।। 
खुली ढलकी गगरी जल की रसकाव्य ललाम सजा हर आँगन।
निहाल हुआ जब काव्य सुना सुन के लगता सुन नाच रहा मन।।   

                         पंचत्व सर्ग में तुलसी की अर्धांगिनी नारीरत्न रत्नावली का महाप्रस्थान वर्णित है। रत्नावली का स्वास्थ्य बिगड़ना, रत्नावली द्वारा  पति का ध्यान कर उनके हाथों अंतिम संस्कार की मनोकामना, तुलसी को अंतर्मन में आभास होना, तत्काल रत्नावली के समीप पहुँचकर सांत्वना देना, अन्त्येष्टि क्रिया करना, राम कथा में कुष्ठ रोगी का वेश रखकर हनुमान जी का आना, तुलसीदास जी की भव मुक्ति आदि प्रसंग लिखते समय महाकाव्यकार ने पारंपरिक तथ्यों के साथ, मौलिक चिंतन का आश्रय लिया है। सर्गांत में सोमराजी छंद (दोय) का प्रयोग हुआ है। 
                         प्रहर्षिणी  सर्ग में तुलसी की विरासत के अंतर्गत रंचरित मानस, रामाज्ञा प्रश्न, पार्वती मंगल, हनुमंबाहुक, गीतावली, रामलला नहछू, वैराग्य संदीपनी, जानकी मंगल, दोहावली, कवितावली, बरवै रामायण, श्रीकृष्ण गीतवली, विनय पत्रिका, सतसई आदि कृतियों पर अपनी काव्य अंजुली चढ़ाकर सुनीता ने काव्य-पूर्वज का तर्पण किया है। किसी महाकाव्य में ऐसा उपक्रम प्रथमत: करने के लिए महाकाव्यकार साधुवाद की पात्र है। भुजंगप्रयात छंद से इस सर्ग का समापन किया गया है। 

                         दसवें तरंगिणी सर्ग में कवयित्री ने तुलसीदास की काव्यगत विशेषताओं का विवेचन महातैथिक जातीय छंद में किया है। तुलसी जैसे युगकवी-महाकवि के काव्य की काव्य-समालोचना कार सुनीता ने नव प्रयोग कर अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। माया छंद (मतयसग) मे रचित षटपदी से इस सर्ग का समापन हुआ है। 

                         ग्यारहवें मालिनी सर्ग में इस संक्रमण काल में तुलसीदास के रचनात्मक अवदान की प्रासंगिकता का आयाम वर्णित है। इस सर्ग में महातैथिक छंद के साथ २० कुण्डलिया तथा  तुलसी के नीति वचन उपशीर्षक से ४० मुक्तक दिए गए हैं। 

                         कवयित्री सुनीता सिंह ने इस महाकाव्य की रचना करने के पूर्व तुलसी चरित्र, तुलसी साहित्य तथा तुलसी मीमांसा का गहन अध्ययन कर 'तुलसी का रचना संसार' तथा 'तुलसीदास : प्रासंगिकता व नीति वचन' शीर्षक दो कृतियों की रचना की। इसके अतिरिक्त 'भक्ति काल के रंग' काव्य संग्रह में कबीर, तुकाराम, नानक, मीरा के साथ तुलसीदास के काव्य का विवेचन किया है। कालजयी कवि तुलसीदास के व्यक्तित्व-कृतित्व पर सुनीता ने गहन अध्ययन, मनन-चिंतन पश्चात मौलिक दृष्टि से इस महाकाव्य का प्रणयन कर आदर्श-च्युत होते समाज और असहिष्णु होते आम आदमी के पथ प्रदर्शन का गुरुतर दायित्व निभाया है। 'तुलसी गाथा' महाकाव्य का अध्ययन कर तुलसी-साहित्य और तुलसी के अवदान को विविध परिप्रेक्ष्य में बेहतर तरीके से समझा जा सकेगा। 
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संपर्क- विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष- ९४२५१८३२४४, एमेल salil.sanjiv@gmail.com    

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