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मंगलवार, 1 अगस्त 2023

पुरोवाक्, प्रश्न खुद बैताल था, हरिहर झा, नवगीत

पुरोवाक्
प्रश्न खुद बैताल था : सत्य की पड़ताल था
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
विश्ववाणी हिंदी के सम-सामयिक साहित्य में को इस संक्रमण काल में घट रही घटनाओं का साक्षी होना पड़ रहा है। यह सुयोग और दुर्योग दोनों है। सुयोग इसलिए कि साहित्य को लगभग हर दिन या अधिक सटीक हो कहें हर पल अपनी सामर्थ्य और जिजीविषा को श्रवहित के निकष पर कसना पड़ रहा है, दुर्योग इसलिए कि जितनी अधिक और जैसी विकराल घटनाएँ इस दौर में घट रही हैं वैसी पूर्व काल में कभी नहीं घटीं। साहित्य का की कसौटी और लक्ष्य 'सर्वजन हिताय,सर्व जन सुखाय' न होकर 'सत्ता हिताय' और 'समर्थ सुखाय' हो गया है। चारण-भाटों की विरासत वाले देश में जब जो सत्ता पर हो उसकी प्रशस्ति करने को ही सारस्वत अनुष्ठान मान लिया जाता रहा है। पिछले दो दशकों में नव धनाढ्य और साक्षर वर्ग की संख्या और मुद्रण तकनीक की सुलभता-सरलता ने पुस्तक क्रांति को जन्म दे दिया है। पुस्तक-प्लावन, प्रशस्ति प्लावन और पुरस्कार प्लावन में तन और धन ने ले-दे का बाजारवाद इतना विकसित कर दिया है की सद्विचार और सत्साहित्य की खोज खुर्दबीन लेकर करनी पड़ रही है। इस विषमता को देखकर विधि ने तो अपना चित्र गुप्त ही कर लिया है। हरि-हर ने हिम्मत नहीं हरि है और 'प्रश्न खुद बैताल था' लेकर पाठक-पंचायत में उपस्थित हैं।

'गीत' आदिम नादात्मक चेतना की लयात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति है। सृष्टि का जन्म ही 'नाद' से हुआ है। अनहद नाद ही हर परमाणु की संरचना का केंद्र और जीव का संस्कार है। संस्कार प्रबल हो तो वह आत्मा के माध्यम से देह का गुण-धर्म बनकर विश्व को आलोकित करता है। कवि वस्तुत: होता है बंता नहीं है, बनाया ही नहीं जा सकता। हरिहर झा मूलत: संवेदनशील भद्र इंसान हैं। वे अपने चतुर्दिक जो घटते देखते हैं उसकी प्रतिक्रियाप्रश्न के रूप में उनके मनस में होती है। ये प्रश्न ज्ञान, विज्ञान, कला, धर्म, समाज (संसद-बाजार) ही नहीं व्यक्ति और समष्टि तथा कल-आज और कल से भी जुड़े हैं। इस प्रश्नों के व्याल-जाल में उलझ मकड़ी-मन तर्कों का जाल बुनता रहता है। अहं का वहम 'सोsहं' की प्रतीति में बाधक बनता है।  

थे सवाल चिंतन के
अहम आया बीच में
गंदगी बहस में थी
फँस गए लो कीच में
झड़पें, बौछार चली मित्र से पंगा हुआ।

'पंगा' होने तक तो ठीक है किंतु जब' दंगा' होने लगे तो आदमी की बिसात क्या, चाँद-तारे तक रोने लगते हैं-

झकझोरते प्रश्न करते, चाँद तारे
रात भर रोते रहे
पूछती हैं, हवाएँ क्यों मुक्त नभ को
बेच कर यों बेड़ियाँ सहते रहे?

और अंतत: प्राण-शक्ति माधुरी बिसारकर फटे बाँस की बाँसुरी बन जाती है-  

दिल की धकधक, फटते सुर में
वाद्य यंत्र हैं ढीले
वाणी भटके, भय भरमाए,
मुखड़े होते पीले
प्राणशक्ति कर्कश रागों में
तीखे स्वर से गाती

ईश्वर करुणावतार है या निष्पक्ष-निर्मम न्यायाधीश? संसार में हर एक को अपना पक्ष ही न्याय का पक्ष प्रतीत होता है।  

न्याय वही जो मेरे मन में
स्नेह सभी कुछ देना चाहे
हृदय तराजू तोल न पाए
धड़कन कोई सुनता काहे
न्याय, प्रेम में युद्ध हुआ तो, झगड़े में क्या करता काजी।

न्यायान्याय का द्वन्द ही माया है। माया इतनी प्रबल कि मायापति को भी नहीं छोड़ती तो शेष की क्या बिसात?

बरगलाती रिसती गीरती
मदमस्ती दामन में छाई
रूप छटा आकर्षित करती
जिस्म अप्सरा का ले आई
रूह के बुलंद स्वर तेरे , मादक धुन, संगीत सुनाते।

प्रकृति का मानवीकरण हरिहर जी को प्रिय है-

झाँके चाँद रसोई सूंघे
चंद्र प्रभा खूब लजाई
तारे बैठ गगन में देखें
आती थाल सजी सजाई
नारीवेश में गुझिया आई, गुझिया बन कर आई नार

इन नवगीतों की नवता यह है की इनमें अतिरेक नहीं यथार्थ है। ये गीति रचनाएँ यथार्थ परक हैं।


गंदगी बहती चली तो
क्रुद्ध नथुने, नाक फैली
चल पड़े नाले नदी में,
क्षुब्ध गंगा आज मैली

विष बहा, भट्टी-जहाँ में,
मादक नशीले जाम
प्रकृति देखो सिसकती।

हरिहर जी का संवेदनशील मन 'श्रम' के महत्ता जानता और यह मानता है की जो श्रम नहीं करता वह विलासी बनकर जग-जीवन पर भार हो जाता है। 

उँगली श्रम में व्यस्त नहीं तो
हाथ उठाये देती गाली
विलास में डूबा जीवन बस
तैर रहा खोखला खाली
सुविधाभोगी, दर्द डराये, खण्डित हो जाना ही भाया।

कृष्ण का बहुआयामी चरित्र विविध गीतों में विविध प्रसंगों में प्रयुक्त हुआ है किंतु कहीं भी पिष्टपेषण या पुनरावृत्ति दोष नहीं है। पौराणिक चरित्रों और मिथकों के माध्यम से प्रवृत्तिगत विशेषण विस्तार में जाए बिना हो जाता है। गीतकार केवल विसंगति-वर्णन तक सीमित नहीं है, वह सकारात्मक प्रवृत्तियों को भी केंद्र में रखता है। गेटकार के शब्दों में -

''बीच-बीच में रस का जायका देती हुई ’गुझिया बन कर है तैयार’, ’मोहित हूँ, तुझ में देख रहा’, ’पतंग एक प्यार है’ जैसी कविताएँ भी हैं।’ 'कंदील बालो’ कुछ वैसे ही भाव से शांतिमय क्रांति का आह्वान करती है। फ्रायड मनुष्य के अंदर जानवर को ढूँढ कर प्रेम के रहस्य की आधी सच्चाई देखता है पर ’ धनुष-बाण तेरे घुस आते’ स्वयं अज्ञानी ग्वाला होते हुए भी अपने प्रेम में राधा के दर्शन करता हुआ स्वयं को धन्य महसूस करता है। हमारे शास्त्रों में सामाजिक अवचेतन मन के ऐसे ही बिम्ब हैं जो हजारों वर्षों तक युग के अनुरूप नये नये अर्थ से समाज को पुनर्जीवित रखने की सामर्थ्य रखते हैं।''

दीप जलता, गुझिया बनकर है तैयार, ग्रीष्म बाला, मोहित हूँ, शंखनाद क्रांति का, तमन्ना तलवार की, कंदील बालो आदि गीत नवता का जयघोष करते हैं। नवगीतों को नकारात्मकता के विकराल पंजे से निकाल कर सकारात्मकता के संसार में जाना अब आवश्यक हो गया है। हरिहर जी ने जहाँ-तहाँ हास्य, श्रंगार, वीर आदि रसों की झलक गीतों में समेटी है, उसे और विस्तार मिलना चाहिए। सभी ९ रसों को नवगीतों में सँजोया जाए तो नवगीत नवजीवन पा सकेगा। हरिहर जी इस दिशा में सचेष्ट हैं, यह संतोष का विषय है। मैंने अपनी नवगीत संकलनों ''काल है संक्रांति का'' तथा ''सड़क पर'' में यह प्रयास किया है। 

'प्रश्न खुद बैताल था' शीर्षक सार्थक है। बैताल की कहानियों का बैताल जिस तरह बार-बार राजा के कंधे पर सवार हो जाता है, वैसे ही सामयिक प्रश्न गीतकार के मनस को झिंझोड़ते हैं। प्रश्नों से उआलझट-सुलझते मन की ऊहा-पोह ही इन गीतों का कलेवर है। हरिहर जी प्रसंगानुकूल सहज-सरल भाषा का प्रयोग करते हैं। उनका शब्द चयन सटीक है। मुझे पूरा विश्वास है कि हरिहर जी के ये नवगीत पाठक- दरबार में सराहा जाएगा।    
   

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