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बुधवार, 9 अगस्त 2023

सोनेट, नवगीत, कुण्डलिया, मुक्तक, लघुकथा, दोहा, घनाक्षरी, शिवाजी अनिल माधव दवे,

सॉनेट 
• 
कौतुक करता रश्मिरथी हो फुनगी पर आरूढ़, 
अगिन पर्ण हय दौड़े रथ ले विरुद सुनाते झूम, 
सैनिक पंछी हमला बोलें जूझ रहा तम मूढ़, 
कलरव करते नभचर होगी विजय उन्हें मालूम। 

उषा सुंदरी खड़ी द्वार पर रतनारे हैं गाल, 
नमन प्रभाकर दिव्य दिवाकर दिनकर दिनपति नाथ, 
कहे तिलककर सजा आरती शोभित गर्वित भाल, 
करतल ध्वनि अनवरत कर रहे पर्ण उठाए माथ।  

जागो मानव जागो सोए रहकर करो न भूल, 
उठो बढ़ो कोशिश कर मंज़िल पाओ आलस छोड़,
नयन मूँदकर सुख-सपनों में रहो न नाहक झूल, 
वरे सफलता सदा उसी को जो लेता है होड़। 

रवि दे सबको सदा उजाला कहे श्रेष्ठ दो बाँट। 
सब ईश्वर का अंश न अपना-गैर कहो तुम छाँट।। 
९-८-२०२३
***
बाल सॉनेट
तिरंगा
ध्वजा तिरंगा सबसे प्यारी
सभी ध्वजाओं में यह न्यारी
सबसे ऊपर केसरिया है
देश हेतु ही जन्म लिया है
कहे सफेद शांति से रहिए
हरा कहे हरियाली करिए
चका कह रहा मेहनत करना
डंडा कहे न अरि से डरना
रस्सी कहे हमेशा साथ
रहना हाथों में ले हाथ
झंडा फहरा, करो प्रणाम
पौध लगा सींचो हर शाम
सुबह शाम नित करो पढ़ाई
सबसे तब ही मिले बड़ाई
९-८-२०२२
•••
कुण्डलिया
*
दशरथनंदन दुलारे, सिया न आईं याद
बलिहारी है समय की, करें कहाँ फरियाद
करें कहाँ फरियाद, सिया बिन राम अधूरे
रमा बिना हरि कहें, किस तरह होंगे पूरे
प्रभु को कम निज माथ, लगाते ज्यादा चंदन
भोग खा रहे भक्त, न पाते दशरथनंदन
***
मुक्तक
रंज ना कर मुक्ति की चर्चा न होती बंधनों में
कभी खुशियों ने जगह पाई तनिक क्या क्रन्दनों में?
जो जिए हैं सृजन में सच्चाई के निज स्वर मिलाने
'सलिल' मिलती है जगह उनको न किंचित वंदनों में
९-८-२०२०
***
दोहा है रस-कोष
रसः काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला अलौकिक आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस को साहित्य की आत्मा तथा ब्रम्हानंद सहोदर रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं।
विभिन्न संदर्भों में रस का अर्थ: एक प्रसिद्ध सूक्त है- 'रसौ वै स:' अर्थात् वह परमात्मा ही रस रूप आनंद है। 'कुमारसंभव' में प्रेमानुभूति, पानी, तरल और द्रव के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'मनुस्मृति' मदिरा के लिए रस शब्द का प्रयोग करती है। मात्रा, खुराक और घूंट के अर्थ में रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'वैशेषिक दर्शन' में चौबीस गुणों में एक गुण का नाम रस है। रस छह माने गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त और कषाय। स्वाद, रुचि और इच्छा के अर्थ में भी कालिदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'रघुवंश', आनंद व प्रसन्नता के अर्थ में रस शब्द काम में लेता है। 'काव्यशास्त्र' में किसी कविता की भावभूमि को रस कहते हैं। रसपूर्ण वाक्य को काव्य कहते हैं।
भर्तृहरि सार, तत्व और सर्वोत्तम भाग के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'आयुर्वेद' में शरीर के संघटक तत्वों के लिए 'रस' शब्द प्रयुक्त हुआ है। सप्तधातुओं को भी रस कहते हैं। पारे को रसेश्वर अथवा रसराज कहा है। पारसमणि को रसरत्न कहते हैं। मान्यता है कि पारसमणि के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है। रसज्ञाता को रसग्रह कहा गया है। 'उत्तररामचरित' में इसके लिए रसज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है। भर्तृहरि काव्यमर्मज्ञ को रससिद्ध कहते हैं। 'साहित्यदर्पण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण विवेचन के अर्थ में रस परीक्षा शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अर्थ में 'रसप्रबन्ध' शब्द प्रयुक्त हुआ है।
रस प्रक्रिया: विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से मानव-ह्रदय में रसोत्पत्ति होती है। ये तत्व ह्रदय के स्थाई भावों को परिपुष्ट कर आनंदानुभूति करते हैं। रसप्रक्रिया न हो मनुष्य ही नहीं सकल सृष्टि रसहीन या नीरस हो जाएगी। संस्कृत में रस सम्प्रदाय के अंतर्गत इस विषय का विषद विवेचन भट्ट, लोल्लट, श्न्कुक, विश्वनाथ कविराज, आभिंव गुप्त आदि आचार्यों ने किया है। रस प्रक्रिय के अंग निम्न हैं-
१. स्थायी भाव- मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।
रस श्रृंगार हास्य करुण रौद्र वीर भयानक वीभत्स अद्भुत शांत वात्सल्य
स्थायी भाव रति हास शोक क्रोध उत्साह भय घृणा विस्मय निर्वेद संतान प्रेम
२. विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार अ. आलंबन व आ. उद्दीपन हैं। ‌
अ. आलंबन: आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌
आश्रयः जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌श्रृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌
विषयः जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌
आ. उद्दीपन विभाव- आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। कभी-कभी प्रकृति भी उद्दीपन का कार्य करती है। यथा पावस अथवा फागुन में प्रकृति की छटा रस की सृष्टि कर नायक-नायिका के रति भाव को अधिक उद्दीप्त करती है। न सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।
३. अनुभावः आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना या हास्य रसाधीन व्यक्ति का जोर-जोर से हँसना, नाईक के रूप पर नायक का मुग्ध होना आदि।
४. संचारी (व्यभिचारी) भावः आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।
रसों पर दोहा
श्रृंगार: स्थाई भाव रति, आलंबन विभाव नायक-नायिका, उद्दीपन विभाव एकांत, उद्यान, शीतल पवन, चंद्र, चंद्रिकाक आदि। अनुभाव कटाक्ष, भ्रकुटि-भंग, अनुराग-दृष्टि आदि । संचारी भाव उग्रता, मरण, आलस्य, जुगुप्सा के आलावा शेष सभी।
संयोग श्रृंगार: नायक-नायिका का सामीप्य या मिलन।
।।चली मचलती-झूमती, सलिला सागर-अंक। द्वैत मिटा अद्वैत वर, दोनों हुए निशंक।।
वियोग श्रृंगार: नायक-नायिका का दूर रह के मिलन हेतु व्याकुल होना।
।।चंद्र चंद्रिका से बिछड़, आप हो गया हीन। खो सुरूप निज चाँदनी, हुई चाँद बिन दीन ।।
हास्य : स्थाई भाव विकृत रूप या वाणीजनित विकार। आलंबन विकृत वस्तु या व्यक्ति। अनुभव आँखें मींचना, मुँह फैलाना आदि। संचारी भाव निद्रा, आलस्य, चपलता, उद्वेग आदि।
।।दफ्तर में अफसर कहे, अधीनस्थ को फूल। फूल बिना घर गए तो, कहे गए खुद फूल।।
(फूल = मूर्ख, पुष्प)
व्यंग्य: स्थाई भाव विकृत रूप या वाणीजनित विकार। आलंबन विकृत वस्तु या व्यक्ति। अनुभव आँखें मींचना, मुँह फैलाना, तिलमिलाना आदि। संचारी भाव निद्रा, आलस्य, चपलता, उद्वेग आदि।
।।वादा कर जुमला बता, झट से जाए भूल। जो नेता वह हो सफल, बाकी फाँकें धूल।।
करुण रस: स्थाई भाव शोक, दुःख, गम। आलंबन मृत या घायल व्यक्ति, पतन, हार। उद्दीपन मृतक-दर्शन, दिवंगत की स्मृति, वस्तुएँ, चित्र आदि। अनुभाव धरती पर गिरना, विलाप, क्रुन्दन, चीत्कार, रुदन आदि। संचारी भाव निर्वेद, मोह, अपस्मार, विषाद आदि।
।।माँ की आँखों से बहें, आँसू बन जल-धार। निज पीड़ा को भूलकर, शिशु को रही निहार।।
रौद्रः स्थाई भाव क्रोध, गुस्सा। आलंबन अपराधी, दोषी आदि। उद्दीपन अपराध, दुष्कृत्य आदि। अनुभाव कठोर वचन, डींग मारना, हाथ-पैर पटकना। संचारी भाव अमर्ष, मद, स्मृति, चपलता,गर्व, उग्रता आदि।
।।शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌. जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश।।
वीरः स्थाई भाव उत्साह, वीरता। आलंबन शत्रु याचक, धर्म, कर्तव्य आदि। आश्रय उत्साही, वीर आदि। उद्दीपन रण-वाद्य, यशेच्छा, धर्म-ग्रंथ, कर्तव्य-बोध, रुदन आदि। अनुभाव भुजा फडकना, नेत्र लाल होना, मुट्ठी बाँधना, ताल ठोंकना, मूँछ उमेठना, उदारता, धर्म-रक्षा, सांत्वना आदि। संचारी भाव उत्सुकता, संतोष, हर्ष, शांति, धैर्य, हर्ष आदि।
।।सीमा में बैरी घुसा, उठो, निशाना साध। ह्रदय वेध दो वीर तुम, मृग मारे ज्यों व्याध।।
भयानकः स्थाई भाव भय, डर आदि। आलंबन प्राणघातक प्राणी शेर आदि। उद्दीपन आलंबन की हिंसात्मक चेष्टा, डरावना रूप आदि। अनुभाव शरीर कांपना, पसीना छूटना, मुख सूखना आदि। संचारी भाव देनी, सम्मोह आदि।
।। लपट कराल गगन छुएँ, दसों दिशाएँ तप्त। झुलस जले खग वृंद सब, जीव-जंतु संतप्त।।
वीभत्सः स्थाई भाव जुगुप्सा, घृणा आदि। आलंबन दुर्गंधमय मांस-रक्त, घृणित पदार्थ। उद्दीपन घृणित वस्तुएँ व रूप। अनुभाव नाक=भौं सिकोड़ना, मुँह बनाना, नाक बंद करना आदि। संचारी भाव आवेग, शंका, मोह आदि।
।। हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध। हँसते जन-का खून पी, नेता अफसर सिद्ध।।
अद्भुतः स्थाई भाव विस्मय, आश्चर्य, अचरज। आलंबन आश्चर्यजनक वस्तु, घटना आदि। उद्दीपन अलौकिकतासूचक तत्व। अनुभव प्रशंसा, रोमांच, अश्रु आदि। संचारी भाव हर्ष, आवेग, त्रास आदि।
।। खाली डब्बा दिखाया, पलटा पक्षी-फूल। उड़े-हाथ में देख सब, चकित हुए क्या मूल।।
शांतः स्थाई भाव निर्वेद। आलंबन ईश-चिंतन, वैराग, नश्वरता आदि। उद्दीपन सत्संग, पुण्य, तीर्थ-यात्रा आदि। अनुभाव समानता, रोमांच, गदगद होना। संचारी भाव मति, हर्ष, स्मृति आदि।
।।घर में रह बेघर हुआ, सगा न कोई गैर। श्वास-आस जब तक रहे, कर प्रभु सँग पा सैर।।
वात्सल्यः स्थाई भाव ममता। आलंबन शिशु आदि। उद्दीपन शिशु से दूरी। अनुभाव शिशु का रुदन। संचारी भाव लगाव।
।। छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल। पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल।।
भक्तिः स्थाई भाव ईश्वर से प्रेम। आलंबन मूर्ति, चित्र आदि। उद्दीपन अप्राप्ति। अनुभाव सांसारिकता। संचारी भाव आकर्षण।
।।करुणासींव करें कृपा, चरण-शरण यह जीव। चित्र गुप्त दिखला इसे, करिए प्रभु संजीव।।
विरोध: स्थायी भाव आक्रोश। आलंबन कुव्यवस्था, अवांछनीय तत्व। उद्दीपन क्रूर व्यवहार। अनुभाव सुधर या परिवर्तन की चाह। संचारी भाव दैन्य, उत्साहहीनता, शोक, भय, जड़ता, संताप आदि। (श्री रमेश राज, अलीगढ़ प्रणीत नया रस)
दोहा लेखन के सूत्र:
१. दोहा द्विपदिक छंद है। दोहा में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं।
२. हर पद में दो चरण होते हैं।
३. विषम (१-३) चरण में १३-१३ तथा सम (२-४) चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं।
४. विषम चरण के आरंभ में एक शब्द में जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित होता है।
५. विषम चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु हो तो लय भंग होने की संभावना कम हो जाती है। कबीर, तुलसी, बिहारी जैसे कालजयी दोहकारों ने ग्यारहवीं मात्रा लघु रखे बिना भी अनेक उत्तम दोहे कहे हैं।
६. सम चरणों के अंत में गुरु लघु मात्राएँ आवश्यक हैं।
७. हिंदी में खाय, मुस्काय, आत, भात, डारि जैसे देशज क्रिया रूपों का उपयोग न करें।
८. दोहा मुक्तक छंद है। कथ्य (जो बात कहना चाहें वह) एक दोहे में पूर्ण हो जाना चाहिए।
९. श्रेष्ठ दोहे में लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, मार्मिकता (मर्मबेधकता), आलंकारिकता, स्पष्टता, पूर्णता तथा सरसता होना चाहिए।
१०. दोहे में संयोजक शब्दों और, तथा, एवं आदि का प्रयोग न करें।
११. दोहे में कोई भी शब्द अनावश्यक न हो। हर शब्द ऐसा हो जिसके निकालने या बदलने पर दोहा न कहा जा सके।
१२. दोहे में कारक का प्रयोग कम से कम हो।
१३. दोहा में विराम चिन्हों का प्रयोग यथास्थान अवश्य करें।
१४. दोहा सम तुकांत छंद है। सम चरण के अंत में समान तुक आवश्यक है।
१५. दोहा में लय का महत्वपूर्ण स्थान है। लय के बिना दोहा नहीं कहा जा सकता।
१६. दोहा में एक ही शब्द को भिन्न-भिन्न मात्रा भर में प्रयोग किया जा सकता है बशर्ते उतनी कुशलता हो। यथा कैकेई ६, कैकई ५, कैकइ ४ के रूप में तुलसीदास जी ने प्रयोग किया है।
९-८-२०१८
***
नवगीत:
संजीव
*
दुनिया रंग रँगीली
बाबा
दुनिया रंग रँगीली रे!
*
धर्म हुआ व्यापार है
नेता रँगा सियार है
साध्वी करती नौटंकी
सेठ बना बटमार है
मैया छैल-छबीली
बाबा
दागी गंज-पतीली रे!
*
संसद में तकरार है
झूठा हर इकरार है
नित बढ़ते अपराध यहाँ
पुलिस भ्रष्ट-लाचार है
नैतिकता है ढीली
बाबा
विधि-माचिस है सीली रे!
*
टूट रहा घर-द्वार है
झूठों का सत्कार है
मानवतावादी भटके
आतंकी से प्यार है
निष्ठां हुई रसीली
बाबा
आस्था हुई नशीली रे!
***
***
मुक्तक सलिला:

आँखों में जिज्ञासा, आमंत्रण या वर्जन?
मौन धरे अधरों ने पैदा की है उलझन
धनुष भौंह पर तीर दृष्टि के चढ़े हुए हैं-
नागिन लट मोहे, भयभीत करे कर नर्तन
*
आशा कुसुम, लता कोशिश पर खिलते हैं
सलिल तीर पर, हँस मन से मन मिलते हैं
नातों की नौका, खेते रह बिना थके-
लहरों जैसे बिछुड़-बिछुड़ हम मिलते हैं
*
पाठ जब हमको पढ़ाती जिंदगी।
तब न किंचित मुस्कुराती जिंदगी।
थाम कर आगे बढ़ाती प्यार से-
'सलिल' मन को तब सुहाती जिंदगी.
*
केवल प्रसाद सत्य है, बाकी तो कथा है
हर कथा का भू-बीज मिला, हर्ष-व्यथा है
फैला सको अँजुरी, तभी प्रसाद मिलेगा
पी ले 'सलिल' चुल्लू में यही सार-तथा है
तथा = तथ्य,
प्रयोग: कथा तथा = कथा का सार
*
आँखों में जिज्ञासा, आमंत्रण या वर्जन?
मौन धरे अधरों ने पैदा की है उलझन
धनुष भौंह पर तीर दृष्टि के चढ़े हुए हैं-
नागिन लट मोहे, भयभीत करे कर नर्तन
९-८-२०१७
***
पुस्तक सलिला
"शिवाजी सुराज" सिखाये लोकराज का कामकाज
आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
*
[पुस्तक विवरण- शिवाजी सुराज, शोध-विवेचना, ISBN 978-93-5048-179-0, अनिल माधव दवे, वर्ष २०१२, आकार २४ से.मी. x १५.५ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक फ्लैप सहित, पृष्ठ २३१, मूल्य ३००/-, प्रकाशक प्रभात प्रकाशन, ४/१९ आसफ़ अली मार्ग, नई दिल्ली ११०००२, लेखक संपर्क सी ६०३ स्वर्ण जयंती सदन, डॉ. बी.डी. मार्ग, नई दिल्ली ११०००१, दूरभाष ९८६८१८१८०६ ]
*
"शिवाजी सुराज" भारतीय इतिहास और जनगण-मन में पराक्रमी, न्यायी, चतुर, नैतिक, तथा संस्कारी शासक के रूप में चिरस्मरणीय शासक एवं महामानव छत्रपति शिवजी की प्रशासन कला तथा राज-काज प्रबंधन को अभिनव शोधपरक दृष्टि से जानने एवम वर्तमान से तुलना कर परखने का श्रम-साध्य प्रयास है। लेखक श्री अनिल माधव दवे सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय एकता, पर्यावरणीय शुचिता तथा नर्मदा घाटी के गहन अध्ययन परक गतिविधियों के लिए सुचर्चित रहे हैं। एक सामान्य सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता से लेकर राष्ट्रीय स्तर का राजनेता बनने तक की यात्रा निष्कलंकित रहकर करते हुए अनिल जी के प्रेरणा-स्तोत्र संभवत: शिवाजी ही रहे हैं। इस कृति का वैशिष्ट्य चरितनायक से अधिक महत्व चरित नायक के अवदान को देना है।
आमुख, प्रतिमा (छवि) निर्माण, मंत्रालय (वित्त, गृह, कृषि, न्याय-विधि, विदेश, व्यापार-उद्योग, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, सड़क-नौपरिवहन, श्रम-रोजगार, भाषा-संस्कृति, रक्षा तथा जन संपर्क), संकेत (वन-पर्यावरण, महिला सशक्तिकरण, अल्पसंख्यक, भ्रष्टाचार,स्वप्रेरित राज्य रचना), व्यक्तित्व (दूरदृष्टि, राजनैतिक कदम, योजकता-कार्यान्वयन क्षमता), मन्त्रिमण्डल (अष्ट प्रधान- मुख्य प्रधान, पन्त सचिव, अमात्य, मंत्री, सेनापति, सुमंत, न्यायाधीश, पण्डित), कीर्तिशेष, अच्छे-कमजोर शासन के लक्षण, जाणता राजा संवाद, शीर्षकों में विभक्त यह कृति पर्यवेक्षकीय तथा विवेचनात्मक सामर्थ्य की परिचायक है।
पुस्तकारंभ में भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ उद्घोषक स्वामी विवेकानंद के वक्तव्यांश में शिवाजी को राष्ट्रीय चेतना संपन्न नायक, सन्त, भक्त तथा शासक निरूपित किया गया है। आमुख में श्री मोहनराव भागवत, सरसंघचालक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने शिवजी के शासनतंत्र को लक्ष्य लक्ष्य शासन या लोकोपकार मात्र नहीं अपितु जनता जनार्दन की ऐहिक, आध्यात्मिक तथा सन्तुलित उन्नति का वाहक बताया है। प्राक्कथन में बाबा साहेब पुरंदरे ने शिवाजी की राजनीति और राज्यनीति को वर्तमान परिस्थितियों में अनुकरणीय बताया है।
सुव्यवस्थित प्रस्तावना के अंतर्गत प्रजा केंद्रित विकास को सुशासन का मूलमन्त्र बताते हुए श्री नरेन्द्र मोदी (तत्कालीन मुख्यमंत्री गुजरात, वर्तमान प्रधान मंत्री भारत) ने जनता को केंद्र में रखकर स्थापित विकास प्रक्रियाजनित लोकतान्त्रिक सुशासन को समय की मांग बताया है। पारदर्शी प्रक्रियाओं और जवाबदेही, सामूहिक विमर्श, प्रशासन में स्पष्टता तथा जनभागीदारी जनि विकास को जनान्दोलन बनाने पर श्री मोदी ने बल दिया है। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि प्रशासन सत्य को छिपाने के स्थान पर जन सामान्य को उससे अवगत कराता रहे तो प्रजातान्त्रिक व्यवस्था की नींव सुद्रढ़ होती है। नेताओं, अधिकारियों, कर्मचारियों व् युवाओं के लिए प्रस्तावित करनेवाले मोदी जी प्रणीत मेक इन इंडिया, स्वच्छता अभियान, मन की बात, विद्यार्थियों से सीधे संवाद, शौचालय निर्माण, गैस अनुदान समर्पण, संपत्ति घोषित करने आदि कार्यक्रमों में शिवाजी की शासन पद्धति से प्राप्त प्रेरणा देखी जा सकती है।
सामान्यत: एक ऐतिहासिक चरित्र, पराक्रमी योद्धा या चतुर-लोकप्रिय शासक के रूप में प्रसिद्द शिवाजी के चरित्र की अनेक अल्पज्ञात विशेषताओं का परिचय इस कृति से मिलता है। कृतिकार श्री अनिल माधव दवे की सामाजिक कार्यकर्ता से उठकर राष्ट्रीय नेतृत्व के स्तर तक बिना किसी विवाद या कलंक के पहुँचने की यात्रा में शिवाजी विषयक अध्ययन और इस पुस्तक के सृजन से व्युत्पन्न वैचारिक परिपक्वता का योगदान नाकारा नहीं जा सकता। राजतंत्र के एक शासक को लोकतंत्र के आदर्श पुरुष के रूप में व्याख्यायित करना अनिल जी के असाधारण अध्ययन, सूक्ष्म विवेचन, प्रामाणिक तुलनाओं तथा व्यापक समन्वयपरक तर्कणा शक्ति को है। तर्क दोधारी तलवार होता है जिससे तनिक भी असावधानी होने पर विपरीत निष्कर्ष ध्वनित होते हैं। अनिल जी ने तर्क और तुलना का सटीक प्रयोग किया है।
एक राजनैतिक दल से सम्बद्ध होने और वर्तमान राजनीती में दखल रखने के कारण स्वाभाविक है कि लेखक अपने दल की सरकारों की नीतियों और कार्यक्रमों का उल्लेख सकारात्मक परिणामों के संदर्भ में करे जबकि अन्य दलीय नीतियों और कार्यक्रमों का विफलता के सन्दर्भ में। 'मनोगत' शीर्षक भूमिका में लेखक ने महापुरुषों के जीवन में कष्ट, अवसाद, व् पीड़ा के आधिक्य को इंगित किया है। भारत में राजनीती के वर्तमान स्वरुप पर प्रहार करते हुए अनिल जी ने प्रतिमा (व्यक्तित्व-छवि) निर्माण अध्याय में शिवजी के दो मूलमंत्र "शासन करने के लिए होता है, छोड़ने के लिए नहीं तथा युद्ध जितने के लिए होता है, लड़ने के लिए नहीं" बताये हैं। दिल्ली में श्री केजरीवाल द्वारा विशाल बहुमत के बाद भी सरकार से भागने तथा पाकिस्तानी आतंकियों से छद्य युद्ध लड़ने के सन्दर्भ में ये दोनों मन्त्र दिशा-दर्शक हैं।
आरम्भ, आकलन, आस्था, तथा अभय उपशीर्षकों के अंतर्गत विद्वान लेखक ने शिवाजी के चरित्र, नीतियों तथा व्यक्तित्व को वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में आदर्श बताया है। शिवजी के प्रशासन के विविध अंगों की वर्तमान मंत्रिमंडल से तुलनात्मक समीक्षा करते हुए लेखक ने तत्कालीन शब्दों का कम से कम तथा वर्तमान में प्रयोग हो रहे पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग अधिकाधिक किया है। इससे उनका कथ्य आम पाठक के लिए ग्रहणीय हो सका है। अहिन्दीभाषी होते हुए भी लेखक ने शुद्ध हिंदी का प्रयोग किया है। शब्द चयन सटीक किन्तु सहज बोधगम्य है। अपनी बात प्रमाणित करने के लिए घटनाओं का चयन तथा विवेचना तथ्यपरक है। यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि यह विवेचन केवल अध्ययन हेतु है या व्यवहार में लाने के लिये भी? एक देश कुलकर्णी (छोटे स्तर का लेखापाल) द्वारा एक दिन का हिसाब पंजी में प्रविष्ट न किये जाने पर शिवजी द्वारा कड़ा दंड दिये जाने और वर्तमान में बड़े घपलों के बावजूद समर्थ को दण्ड न मिलने के बीच की दूरी कैसे दूर की जायेगी? सार्वजनिक धन के रख-रखाव में एक-एक पाई का हिसाब रखनेवाले महात्मा गाँधी ने एक पैसे का हिसाब न मिलने पर अपने सचिव महादेव देसाई की आलोचना कर उन्हें हिसाब ठीक करने को कहा था। क्या वर्तमान सरकार ऐसा कर सकेगी?
असहायों की सहायता, व्यक्ति से व्यवस्था को बड़ा मानना, महत्वाकांक्षा से अधिक महत्त्व कार्यपूर्ति को देना, सेफ हाउस, सेफ पैसेज, सेफ इवैकुएशन युक्त रक्षा व्यवस्था, प्रकृति चक्र के अनुकूल कृषि उत्पादन, सशक्त लोक संस्थाओं, पारदर्शी न्याय प्रणाली, अपराधी को कड़ा दण्ड आदि से जुडी घटनाओं के प्रामाणिक विवेचना कर शिवाजी के शासन को श्रेष्ठ व् अनुकरणीय बताने में लेखक ने अथक श्रम किया है। शिवाजी के अष्ट प्रधानों में से एक कान्होजी के संबंधी खंडोजी द्वारा अफजल खां की सहायता किये जाने पर शिवजी ने एक हाथ-एकपैर काटकर दण्डित किया था, आज सोते हुए लोगों को कर से कुचलने और मासूम काले हिरणों को मारने वाले समर्थ बच जाते हैं। एक साथ अनेक शत्रुओं के साथ संघर्ष न कर किसी एक से लड़कर जितने तथा उसके बाद अन्य को जीतने की शिवाजी की नीति भारतीय विदेश नीति की विफलता इंगित करती है जहाँ हमारे सब पडोसी भारत से रुष्ट हैं। सिद्दी जौहर के साथ पन्हाला युद्ध में अंग्रेजी तोपों और ध्वजों का प्रयोग राजपुर में अंग्रेजों का भंडार नष्ट कर लेने का प्रसंग कश्मीरमें पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा ध्वज फहराने के संबन्ध में विचारणीय है। क्यों नहीं भारत सरकार पाकिस्तानी क्षेत्र में स्थित अड्डे करती?
शिवाजी ने वेदेशी व्यापारियों के प्रवेश, व्यवसाय करने, इमारतें बनाने आदि हर सुविधा के बदले बड़ी धनराशि सरकारी ख़ज़ाने में जमा कराई, आज हमारी सरकार विदेशी कंपनियों को अनेक सुविधाएँ देकर आमंत्रित कर रही है। बड़े उद्योगपति अरबों-खरबों का कर्ज़ लेकर देश छोड़ भाग रहे हैं। शिवाजी को आदर्श माननेवालों के शासनकाल में उद्योगपतियों के करोड़ों रुपयों के बिजली के बिल माफ़ होना और आम नागरिक के चंद रुपयों के बिल भुगतान न होने पर बिजली कटने का अंतर्विरोध कथनी-करनी पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। शिवजी द्वारा नौसेना को ५ गुरुबों तथा ११ गलबतों में विभाजित किया जाना, शस्त्र भंडारण एक स्थान पर न करना, कर्मचारियों को यथेष्ठ वेतन ताकि गुणवत्तापूर्ण कार्य करे (अतिथि विद्वानों को नाम मात्र पारिश्रमिक देकर उच्च शिक्षा देने), राज प्रसाद की समुचित सुरक्षा (इंदिरा गाँधी हत्या), सैन्य शिविरों में छोटे-बड़े सैन्याधिकारियों का एक साथ रहना, कर्मचारियों का निर्धारित समयावधि में नियमित स्थानान्तरण, भ्रष्टाचार के प्रति कठोर रुख, त्वरित न्याय आदि प्रसंगों में लेखन की विवेचना शक्ति का परिचय मिलता है।
पाठक मंच के माध्यम से इस पुस्तक को पुरे प्रदेश में पढवाये जाने और चर्चा कराये जाने का विपुल महत्त्व है। सभी जनप्रतिनिधियों को यह पुस्तक पढ़कर शिवजी के आदर्शों के अनुसार सदा जीवन-उच्च विचार अपनाना चाहिए और विलासिता पूर्ण जीवन त्यागना चाहिए। सारत: यह कृति शिवाजी को युग-नायक के रूप में स्थापित करती है। अनिल जी को साधुवाद इस कृति के माध्यम से राजनेताओं के लिए शिवाजी की तरह आचार संहिता बनाये और अपनाये जाने की आवश्यकता प्रतिपादित करने के लिए। आवश्यक यह है कि आदर्शों को व्यवहार मेंसरकारें अपनाएं ताकि जनगण की निष्ठा शासन-प्रशासन और विधि-व्यवस्था में बनी रहे।
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समीक्षक संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', समन्वयं, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com, दूरवार्ता ९४२५१८३२४४, ०७६१ २४१११३१।
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मुक्तक
वही अचल हो सचल समूची सृष्टि रच रहा
कण-कणवासी किन्तु दृष्टि से सदा बच रहा
आँख खोजती बाहर वह भीतर पैठा है
आप नाचता और आप ही आप नच रहा
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श्री प्रकाश पा पाँव पलोट रहा राधा के
बन महेश-सिर-चंद्र, पाश काटे बाधा के
नभ तारे राकेश धरा भू वज्र कुसुम वह-
तर्क-वितर्क-कुतर्क काट-सुनता व्याधा के
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राम सुसाइड करें, कृष्ण का मर्डर होता
ईसा बन अपना सलीब वह खुद ही ढोता
बने मुहम्मद आतंकी जब-जब जय बोलें
तब-तब बेबस छिपकर अपने नयन भिगोता
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पाप-पुण्य क्या? सब कर्मों का फल मिलना है
मुरझाने के पहले जी भरकर खिलना है
'सलिल' शब्द-लहरों में डूबा-उतराता है
जड़ चेतन होना चाहे तो खुद हिलना है
९-८-२०१६
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नवगीत:
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दुनिया रंग रँगीली
बाबा
दुनिया रंग रँगीली रे!
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धर्म हुआ व्यापार है
नेता रँगा सियार है
साध्वी करती नौटंकी
सेठ बना बटमार है
मैया छैल-छबीली
बाबा
दागी गंज-पतीली रे!
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संसद में तकरार है
झूठा हर इकरार है
नित बढ़ते अपराध यहाँ
पुलिस भ्रष्ट-लाचार है
नैतिकता है ढीली
बाबा
विधि-माचिस है सीली रे!
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टूट रहा घर-द्वार है
झूठों का सत्कार है
मानवतावादी भटके
आतंकी से प्यार है
निष्ठां हुई रसीली
बाबा
आस्था हुई नशीली रे!
९-८-२०१५
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सावनी घनाक्षरियाँ :
सावन में झूम-झूम
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सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम,
झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह,
एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह,
मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं,
भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
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बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी,
कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका,
बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी,
आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें,
बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
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बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये,
स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें,
कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व,
निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो,
धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
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संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी,
शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी,
शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी,
बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया,
नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
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महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का,
तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई,
हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया,
हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ,
हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
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बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने,
एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली,
हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये,
शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,
साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
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घनाक्षरी रचना विधान :
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
९-८-२०१४
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