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गुरुवार, 3 अगस्त 2023

गीत, लघुकथा, मुक्तक, नवगीत, बाल गीत, वर्षा, नागपंचमी,

गीत
*
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
नाव बनाना
कौन सिखाये?
बहे जा रहे समय नदी में.
समय न मिलता रिक्त सदी में.
काम न कोई
किसी के आये.
अपना संकट आप झेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
डेंगू से भय-
भीत सभी हैं.
नहीं भरोसा शेष रहा है.
कोइ न अपना सगा रहा है.
चेहरे सबके
पीत अभी हैं.
कितने पापड विवश बेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
उतर गया
चेहरे का पानी
दो से दो न सम्हाले जाते
कुत्ते-गाय न रोटी पाते
कहीं न बाकी
दादी-नानी.
चूहे भूखे दंड पेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
***
लघुकथा
बीज का अंकुर
*
चौकीदार के बेटे ने सिविल सर्विस परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। समाचार पाकर कमिश्नर साहब रुआंसे हो आये। मन की बात छिपा न सके और पत्नी से बोले बीज का अंकुर बीज जैसा क्यों नहीं होता?
अंकुर तो बीज जैसा ही होता है पर जरूरत सेज्यादा खाद-पानी रोज दिया जाए तो सड़ जाता है बीज का अंकुर।
***
लघुकथा :
सोई आत्मा
*
मदरसे जाने से मना करने पर उसे रोज डाँट पड़ती। एक दिन डरते-डरते उसने पिता को हक़ीक़त बता ही दी कि उस्ताद अकेले में.....
वालिद गुस्से में जाने को हुए तो वालिदा ने टोंका गुस्से में कुछ ऐसा-वैसा क़दम न उठा लेना उसकी पहुँच ऊपर तक है।
फ़िक्र न करो, मैं नज़दीक छिपा रहूँगा और आज जैसे ही उस्ताद किसी बच्चे के साथ गलत हरकत करेगा उसकी वीडियो फिल्म बनाकर पुलिस ठाणे और अखबार नवीस के साथ उस्ताद की बीबी और बेटी को भी भेज दूँगा।
सब मिलकर उस्ताद की खाट खड़ी करेंगे तो जाग जायेगी उसकी सोई आत्मा।
***
मुक्तक
बह्रर 2122-2122-2122-212
*
हो गए हैं धन्य हम तो आपका दीदार कर
थे अधूरे आपके बिन पूर्ण हैं दिल हार कर
दे दिया दिल आपको, दिल आपसे है ले लिया
जी गए हैं आप पर खुद को 'सलिल' हम वार कर
*
बोलिये भी, मौन रहकर दूर कब शिकवे हुए
तोलिये भी, बात कह-सुन आप-मैं अपने हुए
मैं सही हूँ, तू गलत है, यह नज़रिया ही गलत
जो दिलों को जोड़ दें, वो ही सही नपने हुए
3-8-2016
***
नवगीत:
*
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
कृषक-सूर्य को
खिला कलेवा
उषा भेजती
गगन-खेत पर
रश्मि-बीज
देता बिखेर रवि
सकल भूमि पर
देख-रेखकर
नव उजास
पल्लव विकसे
निखर गया
वसुधा का रूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
हवा बहुरिया
चली मटककर
दिशा ननदिया
खीझे चिढ़कर
बरगद बब्बा
खांस-खँखारें
नीम झींकती
रात जागकर
फटक रही है
आलस-चोकर
उठा गौरैया
ले पर -सूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
लिव इन रिश्ते
पाल रही है
हर सिंगार संग
ढीठ चमेली
ठेंगा दिखा
खाप को खींसें
रही निपोर
जुही अलबेली
चाँद-चाँदनी
झाँक देखते
छवि, रीझा है
नन्ना कूप
पहन-पहन
घिस-छीज गयी
धोती छनकर
छितराई धूप
*
***
लघुकथा
शब्द और अर्थ -
शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त होने पर चैन की साँस ली और कमर सीधी करने के लिये लेटा ही था कि काम करने की मेज पर कुछ हलचल सुनाई दी. वह मन मारकर उठा, देखा मेज पर शब्द समूहों में से कुछ शब्द बाहर आ गये थे. उसने पढ़ा - वे शब्द थे प्रजातंत्र, गणतंत्र, जनतंत्र और लोकतंत्र .
हैरान होते हुए कोशकार ने पूछा- ' अभी-अभी तो मैंने तुम सबको सही स्थान पर रखा था, तुम बाहर क्यों आ गये?'
'इसलिए कि तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे सरासर ग़लत लगते हैं.' एक स्वर से सबने कहा.
'एक-एक कर बोलो तो कुछ समझ सकूँ.' कोशकार ने कहा.
'प्रजातंत्र प्रजा का, प्रजा के लिये, प्रजा के द्वारा नहीं, नेताओं का, नेताओं के लिये, नेताओं के द्वारा स्थापित शासन तंत्र हो गया है' - प्रजातंत्र बोला.
गणतंत्र ने अपनी आपत्ति बतायी- 'गणतंत्र का आशय उस व्यवस्था से है जिसमें गण द्वारा अपनी रक्षा के लिये प्रशासन को दी गयी गन का प्रयोग कर प्रशासन गण का दमन जन प्रतिनिधियों की सहमति से करते हों.'
'जनतंत्र वह प्रणाली है जिसमें जनमत की अवहेलना करनेवाले जनप्रतिनिधि और जनगण की सेवा के लिये नियुक्त जनसेवक मिलकर जनगण की छाती पर दाल दलना अपना संविधान सम्मत अधिकार मानते हैं.' - जनतंत्र ने कहा.
लोकतंत्र ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए बताया- 'लोकतंत्र में लोक तो क्या लोकनायक की भी उपेक्षा होती है. दुनिया के दो सबसे बड़ा लोकतंत्रों में से एक अपने हित की नीतियाँ बलात अन्य देशों पर थोपता है तो दूसरे की संसद में राजनैतिक दल शत्रु देश की तुलना में अन्य दल को अधिक नुकसानदायक मानकर आचरण करते हैं.' - लोकतंत्र की राय सुनकर कोशकार स्तब्ध रह गया.
***
नवगीत
*
मक्के की दो रोटियाँ
चटनी -सरसों साग
मांग रही हैं अंतड़ियाँ
लगी पेट में आग
*
हुए नहीं अपने
झूठे हैं सपने
कभी लगे तपने
कभी लगे कँपने
तोड़ रहे हैं बोटियाँ
लेकिन लगी न लॉग
डूब रही हैं झुपड़ियाँ
बादल डँसते नाग
*
बेढब हैं नपने
खास लगे खपने
खाप लगे ग्रसने
जाल लगे फंसने
जाने कितनी कोटियाँ
नेता करिया नाग
लकड़ी सी हैं लड़कियाँ
ताक न लड़के भाग
3-8-2015
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लेख :
नागको नमन :
*
नागपंचमी आयी और गयी... वन विभागकर्मियों और पुलिसवालोंने वन्य जीव रक्षाके नामपर सपेरों को पकड़ा, आजीविका कमानेसे वंचित किया और वसूले बिना तो छोड़ा नहीं होगा। उनकी चांदी हो गयी.
पारम्परिक पेशेसे वंचित किये गए ये सपेरे अब आजीविका कहाँसे कमाएंगे? वे शिक्षित-प्रशिक्षित तो हैं नहीं, खेती या उद्योग भी नहीं हैं. अतः, उन्हें अपराध करनेकी राह पर ला खड़ा करनेका कार्य शासन-प्रशासन और तथाकथित जीवरक्षणके पक्षधरताओंने किया है.
जिस देशमें पूज्य गाय, उपयोगी बैल, भैंस, बकरी आदिका निर्दयतापूर्वक कत्ल कर उनका मांस लटकाने, बेचने और खाने पर प्रतिबंध नहीं है वहाँ जहरीले और प्रतिवर्ष लगभग ५०,००० मृत्युओंका कारण बननेवाले साँपोंको मात्र एक दिन पूजनेपर दुग्धपानसे उनकी मृत्युकी बात तिलको ताड़ बनाकर कही गयी. दूरदर्शनी चैनलों पर विशेषज्ञ और पत्रकार टी.आर.पी. के चक्करमें तथाकथित विशेषज्ञों और पंडितों के साथ बैठकर घंटों निरर्थक बहसें करते रहे. इस चर्चाओंमें सर्प पूजाके मूल आर्य और नाग सभ्यताओंके सम्मिलनकी कोई बात नहीं की गयी. आदिवासियों और शहरवासियों के बीच सांस्कृतिक सेतुके रूपमें नाग की भूमिका, चूहोंके विनाश में नागके उपयोगिता, जन-मन से नागके प्रति भय कम कर नागको बचाने में नागपंचमी जैसे पर्वोंकी उपयोगिता को एकतरफा नकार दिया गया.
संयोगवश इसी समय दूरदर्शन पर महाभारत श्रृंखला में पांडवों द्वारा नागों की भूमि छीनने, फलतः नागों द्वारा विद्रोह, नागराजा द्वारा दुर्योधन का साथ देने जैसे प्रसंग दर्शाये गये किन्तु इन तथाकथित विद्वानों और पत्रकारों ने नागपंचमी, नागप्रजाजनों (सपेरों - आदिवासियों) के साथ विकास के नाम पर अब तक हुए अत्याचार की और नहीं गया तो उसके प्रतिकार की बात कैसे करते?
इस प्रसंग में एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह भी है कि इस देशमें बुद्धिजीवी माने जानेवाले कायस्थ समाज ने भी यह भुला दिया कि नागराजा वासुकि की कन्या उनके मूलपुरुष चित्रगुप्त जी की पत्नी हैं तथा चित्रगुप्त जी के १२ पुत्रों के विवाह भी नाग कन्याओं से ही हुए हैं जिनसे कायस्थों की उत्पत्ति हुई. इस पौराणिक कथा का वर्ष में कई बार पाठ करने के बाद भी कायस्थ आदिवासी समाज से अपने ननिहाल होने के संबंध को याद नहीं रख सके. फलतः। खुद राजसत्ता गंवाकर आमजन हो गए और आदिवासी भी शिक्षित हुआ. इस दृष्टि से देखें तो नागपंचमी कायस्थ समाज का भी महापर्व है और नाग पूजन उनकी अपनी परमरा है जहां विष को भी अमृत में बदलकर उपयोगी बनाने की सामर्थ्य पैदा की जाती है.
शिवभक्तों और शैव संतों को भी नागपंचमी पर्व की कोई उपयोगिता नज़र नहीं आयी.
यह पर्व मल्ल विद्या साधकों का महापर्व है लेकिन तमाम अखाड़े मौन हैं बावजूद इस सत्य के कि विश्व स्तरीय क्रीड़ा प्रतियोगिताएं में मल्लों की दम पर ही भारत सर उठाकर खड़ा हो पाता है. वैलेंटाइन जैसे विदेशी पर्व के समर्थक इससे दूर हैं यह तो समझा जा सकता है किन्तु वेलेंटाइन का विरोध करनेवाले समूह कहाँ हैं? वे नागपंचमी को यवा शौर्य-पराक्रम का महापर्व क्यों नहीं बना देते जबकि उन्हीं के समर्थक राजनैतिक दल राज्यों और केंद्र में सत्ता पर काबिज हैं?
महाराष्ट्र से अन्य राज्यवासियों को बाहर करनेके प्रति उत्सुक नेता और दल नागपंचमई को महाराष्ट्र की मल्लखम्ब विधा का महापर्व क्यों कहीं बनाते? क्यों नहीं यह खेल भी विश्व प्रतियोगिताओं में शामिल कराया जाए और भारत के खाते में कुछ और पदक आएं?
अंत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह कि जिन सपेरों को अनावश्यक और अपराधी कहा जा रहा है, उनके नागरिक अधिकार की रक्षा कर उन्हें पारम्परिक पेशे से वंचित करने के स्थान पर उनके ज्ञान और सामर्थ्य का उपयोग कर हर शहर में सर्प संरक्षण केंद्र खोले जाए जहाँ सर्प पालन कर औषधि निर्माण हेतु सर्प विष का व्यावसायिक उत्पादन हो. सपेरों को यहाँ रोजगार मिले, वे दर-दर भटकने के बजाय सम्मनित नागरिक का जीवन जियें। सर्प विष से बचाव के उनके पारम्परिक ज्ञान मन्त्रों और जड़ी-बूटियों पर शोध हो.
क्या माननीय नरेंद्र मोदी जी इस और ध्यान देंगे?
3-8-2014
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