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मंगलवार, 10 जनवरी 2023

कृष्ण और बसंत - सुनीता सिंह

लेख-

"मैं, मेरे कृष्ण और बसंत"
- सुनीता सिंह
*
पुष्प की तरह खिले मन, झूम जब आये बसंत।
कृष्ण की तरह सुहाने, हो चलें सब दिग-दिगंत।
सुप्त चेतना जग उठे, सुन मधुर मुरली की धुन,
रंग भरी ऋतु में हृदय, गीत जीवन के ले चुन।। 

 
           कृष्ण अर्थात जीवंतता। कृष्ण अर्थात त्यागपूर्ण किंतु रंग-हर्ष-उल्लास-मधुर स्वर-गीत-संगीत और झंकार से भरा जीवन। कृष्ण अर्थात कठोर शिलाखण्ड पर अति सुकोमल रंगीन पंखुड़ियों वाले पुष्प की कोपलें फूटना जो कर्कश मौसम की मार सहकर भी हॅंसता-खिलखिलाता हुआ सिर उठाए झूमता है। कृष्ण अर्थात रंगों भरा उत्सवी माहौल, जो धैर्यपूर्वक पतझड़ के बीतने की प्रतीक्षा पूरी होने पर उल्लास के गीत गाता है, जो धरित्री को पीली सरसों के पुष्प से टॅंकी धानी चूनर ओढ़े देखकर खुशी से झूम उठता है।

           उत्सवधर्मिता का नाम ही कृष्ण है। संघर्षों की आँच में तपकर कुंदन बनने की कला ही कृष्ण है, अधर्म में भी धर्म पर टिके रहने का नाम कृष्ण है, बाँसुरी जैसे किसी वाद्ययंत्र और कंठ से निकले मधुर स्वर व संगीत की मधुरिम धुन का गहन अंतर को विभोर कर जाना कृष्ण है। कहाँ नहीं है कृष्ण? बाह्य जगत के घट-घट में, मन-अतल की मूक या वाचाल स्वर लहरियों में, प्रयास में, संघर्ष में, विचार में, वाणी में, क्षमा जैसे सद्गुणों में, हर जगह तो व्याप्त हैं कृष्ण। उनकी बाँसुरी की धुन पर ग्वाल-बाल, गोप-गोपी, गौ वृंद, लता, पुष्प, उपवन, नाग कौन नहीं झूम उठता? जिस प्रकार पतझड़ को विदा कर बसंत प्रकृति में नव जीवन का संचार करता है, उसी प्रकार मन दुख, निराशा, उदासी, पीड़ा वेदना, अवसाद इत्यादि को त्यागकर रंग—बिरंगे, उल्लास से भरे परिवेश, मिठास भरी रस वर्षा में, प्रकृति के चहुँ दिश गुंजित कर्ण प्रिय मधुरिम संगीत में जीवन का स्वागत-सत्कार करना चाहता है। जिस प्रकार कृष्ण कालिया नाग का मर्दन कर यमुना को विष से मुक्त करते हैं,उसी प्रकार मन प्रदूषण के विष को पर्यावरण से मिटाकर निर्मल कर देना चाहता है।

           आशय यह कि मन बसंत हो जाना चाहता है, दूसरे शब्दों में, कृष्ण हो जाना चाहता है। कृष्ण भी तो यही कहते है कि 'ऋतुओं में मैं बसंत हूँ। अर्थात वे उत्सव और उल्लास में सर्वत्र उपस्थित हैं। "तस्य ते वसंत: शिर:" तैत्तिरीय ब्राह्मण की यह उक्ति कहती है कि वर्ष का सिर या शीर्ष ही बसंत ऋतु है। अर्थात वसंत ऋतुओं का सिरमौर है। आयुर्वेद और ज्योतिष शास्त्र चैत्र व वैशाख को वसंत ऋतु मानते हैं। “सर्वप्रिये चारूतरं वसंते” अर्थात बसंत ऋतु में सब कुछ आकर्षक, सुंदर और मनोहर ही लगता है। कालिदास द्वारा वसंत ऋतु के वर्णन में अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ऋतुसंहार में कही गई यह उक्ति भी सटीक है।

           बसंत पर नीचे लिखे कुछ दोहे बसंत की प्रकृति और महत्ता का बखान कर जाते हैंl

मन पुलकित अति कर रही, शीतल मंद बयार।
ऋतु बसंत ले आ गई, खुशियों का त्यौहार।।

मन-मरुथल घन-शीत में, अभिलाषा निष्प्राण।
दे बसंत जीवन चले, मिटा चले सब त्राण।।

मंद-मंद बहती हवा, प्रकृति निदर्शित प्यार।
विविध पुष्प गुलमोहरें, अमलतास, कचनार।।

कोयल कू-कू कूकती, पंछी कलरव तान।
वीणा मधु स्वर गा रही, धुन बसंत का गान।।

ठिठुरी धरती शीत से, साधे नीरस मौन।
बसंत सरगम छेड़ता, नहीं मानता कौन?

स्वर अंकित हर फूल पर, गाए गीत बसंत।
मौसम में भर रंग दे, बनकर हृद का कंत।।

सूर्य-किरण नव धारती, नारंगी परिधान।
तरुणाई मन को मिली, पतझड़ को अवसान।।

रंग-बिरंगे पुष्प से, करे प्रकृति श्रृंगार।
पीली सरसों में छुपी, मधु बासंतिक धार।।

           मैं जब अपने मन को विस्तार देती हूँ तो वह स्वयमेव बासंतिक हो उठता है, कृष्ण सरीखा जीवन, धर्म और कर्म से भरपूर हो उठता है। मेरे अस्तित्व का कोना-कोना जितना स्वयं को जीव-जगत के प्रेम में राग से भरपूर पाता है उतना ही, उसी समय पर ही, असीम वैराग्य का भी अनुभव कर लेता है। कमल की भाँति-जल में रहकर बिना भीगे हुए, खिलते हुए, अनासक्त और आसक्त, एक साथ बिल्कुल कृष्ण की तरह। वह कभी हॅंसी-ठिठोली कर लेता है, कभी मौन धारण कर होनी को शिरोधार्य करता है, कभी धर्मपथ पर अकेला ही जूझते हुए चल देता है। कर्तव्यपालन से पीछे नहीं हट पाता मन, चाहे डगर कितनी ही कठिन हो। कृष्ण की तरह लोच को महसूस कर पाता है अर्थात हठधर्मिता से दूर, संयमित राह या यथासंभव उस संघर्ष को टालने का प्रयास करता है जिसमें निर्दोषों की क्षति संभावित हो। उसे भी अपने कृष्ण की तरह लोचवान हो वह पथ या मध्यम मार्ग स्वीकार है जिससे सभी का भला हो, भले स्वयं के स्तर पर त्याग ही क्यों ना करना पड़े। लोक प्रशासन में लोकहित सर्वोपरि है।

           बसंत भी तो लोकहित का उदाहरण है। कृष्ण बसंत के रूप में प्रकट होकर संदेश देते हैं कि जियो और भरपूर जियो, रंगों को अपनाओ, उदासी त्यागकर उत्‍सव मनाओ, स्वयं पुष्‍प की तरह खिलो और बिना प्रतिस्‍पर्धा सभी को उनके मूल रूप-रंग में खिलने दो।

           सकारात्‍मकता संक्रामक होती है, तेजी से संचरण कर माहौल को खुशनुमा बना देती है। डाक्‍टर का मुस्‍कुराता चेहरा, शांतिमय मीठे बोल रोगी की आधी रूग्णता बिना निदान-औषधि-उआपचार के हर लेते हैं। उत्साह से भरा सकारात्‍मक व्‍यक्‍ति नीरस परिवेश को भी उल्लास से भर देता है, ठीक वैसे ही जैसे एक दिया भी आस-पास के घोर अँधेरे को दूर कर देता है। पतझड़ अंधेरा है तो बसंत दीपक है, दीपक जला और अँधेरा दूर हुआ, बसंत आया और पतझड़ गया। वृक्ष और पौधे नई कोपलों को उगाने के लिए रुग्‍ण, सूखे, पीले पत्तों-पुष्पों को गिरा देते हैं, वे जाने वाले का शोक नहीं, आने वाले का स्वागत करते हैं।

           कृष्ण से भी तो जीवन भर कुछ न कुछ छूटता रहा किंतु जीवंतता नहीं छूटी, वैराग्‍य रहा पर राग नहीं छूटा, अतीत की स्मृतियाँ साथ रहीं किन्तु नये का स्वागत-अभिनंदन विस्मृत नहीं हुआ। निश्‍छल प्रेम ने पाँवों में मोह की बेड़ियाँ न पड़ने दीं, जिससे कर्तव्य-पथ पर चलना सम्‍भव हुआ। जो छूटा, उसके लिए किसी को दोष नहीं दिया, दण्‍ड देने से पूर्व खल-वृत्ति वाले को सँभलने और सुधरने का अवसर भी दिया। सर्वशक्‍तिमान, सुदर्शन चक्रधारी होते हुए भी बल का अभिमान पूर्ण प्रदर्शन न कर शक्ति का प्रयोग अंतिम विकल्प के रुप में किया। शिशुपाल की सौ गालियाँ भी कृष्ण की शांत-वृत्ति को विचलित कर क्रोधित नहीं सकीं और वचनानुसार सौ गालियाँ पूर्ण होने पर ही दण्ड दिया। न्याय की अन्याय पर, धर्म की अधर्म पर, सत्य की असत्य पर और नीति की अनीति पर अन्ततः विजय दिखाई। बसंत भी यही बताता है। पतझड़ बीत जाता है और ऋतु बासंतिक हो जाती है। मायूसी, रूखापन, उदासी, पीले सूखे पत्तों की तरह झरते हैं और उनके स्थान पर रंग-बिरंगे पुष्प, नये पत्ते, गुलाबी कोंपल सरीखी खुशियाँ, उत्साह, उत्सव, उल्लास और खुशनुमा भावों संग जीवतंता सजीव हो उठते हैं। अर्थात घोर अंधेरी रात को बीतना होता ही है और तरो-ताज़ा कर देने वाली सुहानी भोर आनी ही है।

           रात्रि में, पतझड़ में, बस थोड़े से विश्राम, थोड़ी यति, थोड़ा विराम का समय होता है, यह संक्रमण काल होता है जो भोर, बसंत और जीवतंता के मधुरतम स्वरूप, उच्चतम चेतना का एहसास कराने के लिए आवश्यक भी है। इसलिए उनमें भी कारण है,लय है, संगीत है, रंगों के स्याह शेड्स हैं। वहाँ भी ईश्वर की, सर्वोच्च सत्ता की, कृष्ण की, उनके श्यामल रंग की उपस्थिति है किन्तु उसे जानने, महसूस करने के लिए थोड़ी गहराई में उतरना होता है।पहले कृष्ण के वांसतिक स्वरूप, जीवंत भावों का गहन अहसास करना होता है। दोनों रूप एक दूसरे को पूर्णता प्रदान करते हैं।

           वैराग्य का उच्चतम स्तर राग के उच्चतम स्तर को जाने बिना महसूस नहीं हो सकता। इसलिए मन को पहले वसंत होना होगा, तभी वह पतझड़ व रात्रि में कृष्ण के स्याह रंग को देख सकेगा, तभी वह उसे सम्मानजनक विदाई दे सकेगा। तभी वह रागी भाव के साथ बीतरागी भी हो सकेगा। मन यदि विशुद्ध आत्मिक स्वरूप से साम्यता स्थापित कर ले तो वह वसंत हो जाएगा अर्थात स्वयं कृष्ण हो जाएगा। मेरी चाहना यही है कि मैं आपने मन को कृष्ण बना पाऊँ और फिर मन को बसंत बना सकूँ अर्थात उसे जीवन से भरपूर, हर्षो-उल्लास से भरपूर कर सकूँ, जिसमें सभी की उत्सवधर्मिता के लिए स्थान हो, सहअस्तित्व की भावना हो, मधुरता हो, खुशनुमा रंग हो, आशावादिता हो, जीवतंता हो। मैं, मेरे कृष्ण और बसंत एक सार हो जीवन को सार्थक बना लोक को अपना योगदान दे सकें, यही प्रार्थना है उस सर्वशक्तिमान से।

मेरे बासंतिक कृष्ण और संतुलन आधारित जीवन दर्शन

           जिस प्रकार बसंत और पतझड़ अपने आप में संपूर्ण जीवन दर्शन हैं उसी प्रकार मेरे कृष्ण भी स्वयं में संपूर्ण जीवन दर्शन हैंl बसंत संतुलन,सौहार्द्र, सहअस्तित्व, प्रेम, आशावाद, उत्सवधर्मिता, मधुर अहसास, कर्म और ईश्वरीय दर्शन का संदेश लेकर आता हैl कृष्ण भी यही करते हैं, वे स्याह पक्ष पर उजले पक्ष को वरीयता देते हैं और संतुलन बनाकर चलना सिखाते हैं। उनकी विशेषता है कि वे सबको अपनाते है किसी को छोड़ते नहीं। जीवन का चाहे कोई भी रंग हो, कृष्ण उससे परहेज नहीं करते, उसमें रम जाते हैं। उनकी बाँसुरी सभी के मन में रच-बस जाती है। उसका माधुर्य सभी पर प्रभाव छोड़ता है। माधुर्य तो सभी द्वारा वांछित रस है और यही मानव-जीवन की पराकाष्ठा भी है। कृष्ण माधुर्य के चरम पर स्थित है, बल्कि माधुर्य का अवतार ही हैं।

           कृष्ण मात्र मधुरता के ही प्रतीक नहीं है, वे सबसे बड़े निष्काम कर्मयोगी भी हैं। वे नटनागर हैं और पार्थसारथी भी। वे महानतम राजनीतिज्ञ हैं तो भाव-जगत के सबसे बड़े मर्मज्ञ भी। वे भगवद्गीता के उद्गाता भी हैं और संतुलन के साधक भी। वे योगेश्वर भी है और भोगेश्वर भी। वे सर्वशक्तिमान भी हैं और रणछोड़दास भी। वे रिश्तों को पूरा सम्मान देते हैं किन्तु धर्म स्थापना हेतु सच्चे कर्मयोगी की भाँति कर्मपथ पर सर्वस्व त्यागकर आगे बढ़ने से भी नहीं हिचकते। वे जितने कोमल हैं, उतने ही दृढ़ व स्थिर भी। वे साकार भी हैं और निराकार भी। वे सगुण हैं और निर्गुण भी। उनमें प्रेम, मधुरता, त्याग, द्वंद सभी समाहित हो जाते हैं।

           कृष्ण प्रेम के प्रतीक है और प्रेम का माधुर्य हर विष को नष्ट करने की क्षमता रखता है। उसी प्रेम के सार तत्व में भारत की गंगा-जमुनी तहजीब का संदेश समाहित है क्योंकि प्रेम के भाव को अपने शब्दों में मौलाना जफ़र अली खान (1873-1956) निम्न शेर में व्यक्त करते हैः-

''अगर किशन की तालीम आम हो जाए,
तो काम फित्त नागरों के तमाम हो जाएँ।''

           पाकिस्तान के राष्ट्र-गीत ‘कौमी तराना’ के रचनाकार मशहूर शायर हफीज़ जालंधरी (1900-1982) भी कृष्ण भक्त थे। उन्होने ‘कृश्न कन्हैया’ शीर्षक से एक नज़्म लिखी जिसमें गोपियों के साथ नृत्य कर रहे कृष्ण की रास लीला के दृश्य को तुर्फ नज़ारा अर्थात विरल दृश्य बताते हुए बाँसुरी की धुन के बारे में कहा किः-

‘‘बंसी में जो लय है,
नशा है न मय है,
कुछ और ही शय है।’’

           कृष्ण के माधुर्य स्वरूप अर्थात जन्म, बालपन, रासलीला आदि के साथ उनके कर्मयोगी, योद्धा, पार्थ सारथी, उपदेशक-स्वरूप का भी उर्दू शायरी में व्यापक वर्णन है। अपनी रचना ‘दिल की गीता’ में ख्वाजा दिल मोहम्मद कहते हैं:-

‘‘जो अर्जुन का देखा ये रंज़ोमलाल,
ग़म-ए-सोज़ दिल में तबीयत निढाल।
नज़र दुख से बेचैन, आँखों में नम,
भगवान बोले ज़राहे करम।’’

           कृष्ण का उल्लेख कैफी आज़मी भी अपनी नज़्म ‘फर्ज’ में करते हैं:-

‘‘और फिर कृष्ण ने अर्जुन से कहा,
न कोई भाई, न बेटा, न भतीजा, न गुरु,
एक ही शक्ल उभरती है हर आईने में
आत्मा मरती नहीं, जिस्म बदल लेती है
धड़कन इस सीने की, जा छुपती है उस सीने में
जिस्म लेते हैं जनम, जिस्म फ़ना होते हैं
और जो इक रोज़ फ़ना होगा, वह पैदा होगा
इक कड़ी टूटती है, दूसरी बन जाती है
ख़त्म यह सिलसिला-ए-ज़ीस्त भला क्या होगा
रिश्ते सौ, जज़्बे भी सौ, चेहरे भी सौ होते हैं।
फ़र्ज़ सौ चेहरों में शक्ल अपनी ही पहचानता है,
वही महबूब वही दोस्त वही एक अज़ीज़
दिल जिसे इश्क और इदराक अमल मानता है।
ज़िंदगी सिर्फ अमल, सिर्फ़ अमल, सिर्फ़ अमल
और यह बेदर्द अमल, सुलह भी है, जंग भी है।
अम्न की मोहनी तस्वीर में हैं जितने रंग
उन्हीं रंगों में छुपा खून का इक रंग भी है।
जंग रहमत है कि लानत, यह सवाल अब न उठा
जंग जब आ ही गई सर पे तो रहमत होगी
दूर से देख न भड़के हुए शोलों का जलाल
इसी दोज़ख़ के किसी कोने में जन्नत होगी
ज़ख्म खा, ज़ख्म लगा, ज़ख्म हैं किस गिनती में
फर्ज़ जख्मों को भी चुन लेता है फूलों की तरह
न कोई रंज, न राहत, न सिले की परवा
पाक हर गर्द से रख दिल को रसूलों की तरह
ख़ौफ़ के रूप कई होते हैं अंदाज़ कई
प्यार समझा है जिसे ख़ौफ़ है वह प्यार नहीं
अँगुलियाँ और गड़ा और पकड़ और पकड़
आज महबूब का बाजू है, यह तलवार नहीं
साथियों! दोस्तों! हम आज के अर्जुन ही तो हैं।

           कैफ़ी आज़मी की यह कविता महाभारत में कृष्ण व अर्जुन के मध्य हुए संवाद पर आधारित है। इस नज्म़ में गीता के संदेश हैं। यह कविता सन् 1965 भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय लिखी गई थी जिसमें कर्मयोगी की भाँति फल ईश्वर पर छोड़ते हुए अपना फर्ज़ निभाने की बात कही गई है। यह कविता युद्ध के समय सैनिकों का हौसला भी बढ़ाती है।

           बसंत में सभी रंग, पत्र, पुष्प बिना प्रतिस्पर्द्धा अपने मूल स्वरूप में अंकुरण और विकास करते हैं, जिस प्रकार वे सह अस्तित्व और निश्छल प्रेम की मधुरता का अहसास कराते हैं उसी प्रकार कृष्ण भी धार्मिक सीमाओं से परे सह अस्तित्व और प्रेम की मधुर सार्वभौमिकता का अहसास कराते हैं। महाभारत में भी कृष्ण ने युद्ध को टालने के लिए अंत तक प्रयास किया। साम्राज्य के आधे बटँवारे की माँग त्यागकर केवल पाँच गाँव पाण्डवों के लिए जीवन-यापन हेतु माँगे किंतु हर रास्ता बंद होने पर धर्म की स्थापना के लिए युद्ध होने देने में संकोच नहीं किया।

           मशहूर शायर गौहर कानपुरी ने कृष्ण को सदियों से उर्दू शायरों के लिए महत्वपूर्ण हस्ती माना है। वे यह भी कहते है कि उर्दू कृष्ण-काव्य उतना ही पुराना है जितना कि स्वयं उर्दू भाषा अर्थात बारहवीं सदी से जबसे उर्दू भाषा अस्तित्व में आई। कृष्ण का प्रेम स्वरूप होना इसकी बड़ी वजह है।

           प्रेम ईश्वरीय अस्ति का बोध कराता है। शुद्ध, सात्विक, पराकाष्ठा तक पहुँचा प्रेम, मोक्ष दिला सकता है, जगत का कल्याण कर सकता है, दुष्प्रवृत्तियों व खल-वृत्तियों के असुरों का समूल नाश कर सकता है, फिर वह प्रेम चाहे संसार के रचयिता (इश्क-ए-हक़ीक़ी) से हो अथवा उसकी रचना (इश्क-मज़ाजी) से। सूफी भक्ति-साहित्य में इश्क-ए-हक़ीक़ी के सूफ़ी दर्शन पर आधारित प्रेमाख्या धारा चली जिसने आसानी से जनमानस को प्रभावित किया।

           जीवन संतुलन के सिद्धांत पर चलता है और अतिवादिता से बचता है। संतुलन तो तभी सधता है जब लेने के साथ देना भी हो। अवधी कवि वंशीधर शुक्ल का यह गीत- ‘कदम-कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा, ये ज़िंदगी है कौम की, तू कौम पे लुटाए जा’ इसी भाव को वर्णित करता है। यह गीत नेताजी के आजाद हिंद फौज का तेज कदम-ताल का गीत था जो देश के प्रति योगदान देने को प्रेरित करता था। यही भाव सृष्टि और प्रकृति को भी लौटाने का होना चाहिए जिनके कारण यह जीवन संभव होता है। संतुलन का अभिप्राय सर्वांगीण विकास है। इसका आशय कठिनाइयों व प्रतिकूलताओं का शान्तशांत चित्त से सरलतापूर्वक सामना कर आसानी से उनसे बाहर आना है, चाहे वे व्यक्तिगत जीवन में हों या लोक-जीवन में। संतुलन व्यक्तिगत जीवन का कल्याण तो करता ही है, लोक का भी मंगल करता है। 'श्रीमद्भागवतगीता' का कथन है - ''मंगलाय च लोकानामं क्षेमाय च भवाय च।''

अर्थात श्रीकृष्ण का अवतार लोक के मंगल, क्षेम तथा अभ्युदय के लिए ही हुआ है। 'अहम् ब्रह्मास्मि' का सूत्र-वाक्य या महावाक्य संसार की सबसे पुरातन और सर्वोत्कृष्ट मानी जानेवाली वैदिक संस्कृति की देन है। यह संस्कृति मानती है कि ईश्वर ने यह सृष्टि बनायी है और वह स्वयं चराचर में व्याप्त है। श्रीमदभगवद गीता में श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि 'सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो' अर्थात मैं सभी प्राणियों के हृदय में बसता हूँ। 'अहम् ब्रह्मास्मि' मुनष्य को यह अहसास दिलाता है कि बड़े-बड़े सागर, पर्वत, ग्रह, समूचे ब्रह्माण्ड की रचना करने वाले अखण्ड शक्तिपुंज का ही मैं एक अंश हूँ और मुझे भी उसका तेज अपने भीतर जागृतकर सद्गुण धारण करने का प्रयास करना चाहिए। यही भाव आत्मसम्मान, अस्तिबोध व नैतिक उन्नति का कारण बन जाता है। मन में उपजनेवाले विचार भी विभिन्न पक्ष व रंग लिए होते हैं। उनमें भी कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष होता है। वे भी चटख और फीके रंगों के विभिन्न शेड्स में डूबते उतराते हैं। वहाँ भी अनावृष्टि और अतिवृष्टि होती है। संपूर्ण जीवन ही निश्चितता और अनिश्चितता के बीच झूलता रहता है। शरीर, मन व आत्मा मिलकर जीवन की दिशा-दशा तय करते हैं। चुनना-छोड़ना, पसंद-नापसंद, श्रेय-प्रेय का मंथन, आदि कितने ही तत्व जीवन-यात्रा में अपना प्रभाव छोड़ते है। इन तत्वों का संसार विशाल और आकर्षण-युक्त किन्तुकिंतु अनिश्चित परिणामों से भरा होता है। चाणक्य-नीति के अनुसार -

"यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यंति अध्रुवाणि नष्टमेव।।"

अर्थात जो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित की ओर भागता है, उसका निश्चित भी नष्ट हो जाता है, अनिश्चित हो नष्ट होता ही है।

           वर्तमान समय में छोटी-छोटी बात का बतगंड़ बन जाता है, सहनशीलता कम होती जा रही हैं, अपशब्द और बिगड़े बोल सहन कर पाना आसान नहीं होता। यहीं से मानसिक तनाव, कलह, झगड़े, पारिवारिक टूटन, सामाजिक विघटन और परस्पर वैमनस्य प्रारम्भ होता है जो यदि सँभाला न जाये, तो विकराल रूप धर लेता है तथा किसी न किसी अपराध के रूप में सामने आ जाता है। श्री कृष्ण का जीवन यहाँ भी संदेशप्रद है। उन्हें जीवनपर्यंत कितने ही बुरे-भले शब्द कहे गए जैसे छलिया, माखनचोर, निर्मोही, रणछोड़दास किंतु उन्होनें सभी को सहर्ष बिना किसी दुर्भाव के मुस्कुराते हुए स्वीकार किया। गांधारी के भयानक श्राप को भी बिना किसी प्रतिक्रिया के शिरोधार्य कर लिया। सर्वशक्तिमान होते हुए भी उन्होंने शिशुपाल के सौ अपराधों को क्षमा किया और उसके अपशब्दों को शांत भाव से सहन किया और उसके पश्चात सौ अपराध क्षमा करने का वचन पूर्ण होने के बाद ही कर्मयोगी की भाँति अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग कर उसे दण्ड दिया।

           सुदामा प्रसंग में मित्रता हर हाल में निभाने का संदेश है। राजसी वैभव कृष्ण के मन में अहंकार नहीं भर सका और दीन-हीन सुदामा से उनके मिलने का तरीका अत्यंत भाव-विभोर करनेवाला है। दूसरी ओर सुदामा में भक्ति का पूर्ण समर्पित स्वरूप देखने को मिलता है। उन्होंने अपनी अत्यंत दीन-हीन अवस्था में भी कृष्ण से कुछ नहीं चाहा बल्कि जो मिला, उसी में संतुष्ट रहे। उनके मन में अपने बालसखा के वैभव को देखकर न कुछ माँगने का भाव आया, न तुलना कर असंतोष की प्रवृत्ति जन्मी, न कभी उनसे लाभ उठाने का लोभ आया।

           आज समाज विघटन और विद्रूपताओं का सामना कर रहा है। व्यक्तियों के सामाजिक संबंध विकृत और अस्थिर होने लगे हैं। व्यक्तिगत विघटन अनेक मनोविकारों की ओर ले जा रहे हैं। समाज में पवित्र और आदर्श विचारों का ह्रास हो रहा है। दिखावा, औपचारिकता व कृत्रिमता अपना दबदबा बढ़ाते जा रहे हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों पर कर्तव्य से अधिक बल दिये जाने के कारण संकीर्णता, स्वार्थपरता, अस्थिरता, अविश्वास और अंधविश्वास का बोलबाला होता जा रहा हैं। इनसे समाज में अपराध भी बढ़े हैं। आतंकवाद, बाल-अपराध, नशाखोरी, उग्रवाद आदि अप्रत्याशित और सर्वथा अनुचित घटनाओं को घटित करते हैं।

           आज दूसरों की उन्नति व वैभव पीड़ा के साथ ईर्ष्या-द्वेष को तो जन्म देते ही हैं, प्रतिस्पर्द्धा की बढ़ती प्रवृत्ति अनैतिक और भ्रष्ट तरीकों को अपनाने से भी परहेज नहीं करने देती। गला-काट प्रतियोगिता में दूसरों को येन-केन-प्रकारेण पछाड़ने और यथासंभव नीचा दिखाने की प्रवृत्ति अपना कर स्वयं के मिथ्या दंभ को पोषित करने का चलन भी विघटनों के अनेक कारणों में से एक है। कृष्ण-सुदामा मित्रता का संदेश आर्थिक असमानता जनित अनेक मनोविकारों को दूर करने में मार्गदर्शन कर सकता है। सभी प्रकार के विघटनों और विद्रूपताओं को समूल नष्ट करने के लिए कृष्ण को वैचारिक व कर्म के स्तर पर अपनाना आवश्यक है। इसके लिए कृष्ण और बसंत के जीवन दर्शन का प्रसार मन के उजले पक्ष को सशक्त करेगा। जड़ों तक इस जीवन दर्शन को ले जाना होगा। बाल मस्तिष्क में स्कूली शिक्षा से ही उसे अवचेतन में उतारने पर कार्य करना होगा ताकि मानवीय व्यवहार बासंतिक हो बेहतर समाज का निर्माण कर सके।

           कृष्ण जन-जीवन में बहुत गहरे रचे-बसे हैं। कृष्ण नाम में इतनी मधुरता है कि सभी राग, धुन, ताल, लय, भाव, स्वर आदि एक नाम में सर्वाधिक मधुरता के साथ स्पंदित व झंकृत हो उठते हैं। कला-जगत, संगीत-जगत, नृत्य-जगत के साथ प्रेम-जगत का विशाल भाव-संसार कृष्ण-स्मरण के बिना अधूरा है। भरतनाट्यम और ओडिसी जैसे नृत्य तो कृष्ण से जुड़े पदों की भाव-भीनी प्रस्तुति के लिए प्रसिद्ध हैं। स्थापत्य-कला, चित्र-कला, शिल्प-कला सभी कृष्ण-चरित की लीला उकेरते रहते हैं।

           महाभारत में श्रीकृष्ण का जीवन-चरित और भगवद्गीता में दिया उनका उपदेश आज भी जीवन की अनेकों समस्याओं का हल बता देता है। श्रीकृष्ण के जीवन की हरेक घटना हमारे लिए कुछ न कुछ संदेश देती है। जैसे कालिया नाग प्रसंग की बात करें तो उसमें कुछ भी संदेश है। शिव और काली तो तांडव के लिए जाने जाते हैं किंतु कृष्ण ने एक ही बार तांडव किया, वह भी कालिया नाग के फन पर जो आज भी अत्यंत प्रसिद्ध है और साहित्य में भी इस पर काफी कुछ लिखा और गाया गया है। जैसे 'ताडंव गतिमुंडन पर नाचत बनवारी।' कालिया नाग को पर्यावरण-प्रदूषण का द्योतक मान सकते हैं।

           काशी के लक्खा मेले में तुलसीदास घाट पर आयोजित की जाने वाली नागनथैया लीला, जो गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा आरंभ की गई थी, उसी परिदृश्य को दोहराते हुए संदेश देती है। श्रीकृष्ण कालिया नाग रूपी प्रदूषण, जो अपने फुँककारों से यमुना के प्रवाह और गोकुल-वृंदावन की आबो-हवा में विष घोलता है, का दर्प भंग कर देते हैं। इसीलिए वे पर्यावरण-पुरुष का प्रतीक भी बन जाते हैं। काशी में अस्सी घाट से निषादराज घाट तक इस लीला के दर्शन हेतु गंगा की गोद में नौकाओं और बजरों पर भीड़ उमड़ पड़ती है। श्रीकृष्ण कालिया मर्दन से पर्यावरण सुरक्षा का संदेश देते हैं। वे कालिया नाग की रानियों के अनुरोध पर इसी शर्त पर उसे छोड़ते हैं कि तत्काल वह यमुना छोड़कर चला जाए। आज भी आवश्यकता इस बात की है कि हम सभी नदियों व हवाओं का प्रदूषण दूर करने की दिशा में कार्य करें।

           कृष्ण धरती पर अवतरित अकेले ऐसे देवता हैं जिन्होनें प्रेम करना भी सिखाया, संतुलन साधकर जीने की कला भी बताई और धर्म की स्थापना हेतु जीवन के द्वंद व महाभारत में लड़ना-भि़ड़ना और युद्ध करना भी सिखाया। कृष्ण का व्यक्तित्व जीवन के व्यावहारिक पहलुओं को छूता है। कृष्ण मानव जीवन के रूप में स्वयं को मिले समस्त कष्टों, दुखों, पीड़ाओं व लांछनाओं के हलाहल को शिव की भाँति पीकर बिना शिकायत या उफ्फ़ किये मुस्कुराते हुए कर्तव्य-पथ पर बढ़ते चले जाते हैं। श्रीकृष्ण एक ऐसी भीषण प्रचण्ड अग्नि की तरह हैं जिसमें कर्म-अकर्म, राग-द्वेष, सब आकर भस्म हो जाते हैं और परम-पावन मोक्ष निकल कर बाहर आता हैं।

           युद्धभूमि में शर-शैया पर लेटे भीष्म पितामह से संवाद में एक प्रश्न के उत्तर में श्री कृष्ण कहते हैं- ''सब कुछ ईश्वर के भरोसे छोड़कर बैठना मूर्खता होती है पितामह! ईश्वर स्वयं कुछ नहीं करते, सब मनुष्य को ही करना पड़ता है। आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं न, तो बताइयेए न पितामह, मैने स्वयं इस युद्ध में कुछ किया क्या? सब पांडवों को ही करना पड़ा न? यही प्रकृति का विधान है। युद्ध के प्रथम दिन यही तो कहा था मैंने अर्जुन से। यही परम सत्य है।''

           बसंत प्रकृति की महत्ता और सुंदरता का निदर्शन करता हैl मन के भाव के अनुरूप ही घटनाक्रम की अनुभूति होती है। कृष्ण कहते हैं कि कार्य, करण और कारण तीनों ही प्रकृति में उत्पन्न होते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार प्रकृति का तात्पर्य है कृति से पहले अर्थात सृजन से पहले ही जिसकी शाश्वत उपस्थिति हो वही प्रकृति है। गायत्री महाविद्या के महामनीषी युग ऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित कृष्ण की 'प्रकृति' को व्याख्यित करते हुए लिखते हैं- ''प्रकृति को न 'नेचर से परिभाषित करना उचित है न 'क्रिएशन' से। 'प्रकृति' वस्तुत: गूढ़ शब्द है। इसका अर्थ तो योगीराज श्रीकृष्ण की जीवन दृष्टि से ही समझा जा सकता है। आज जो कुछ भी हमें दिखाई पड़ रहा है और जो नहीं भी दिखाई पड़ रहा, वह सब कुछ 'प्रकृति' है। प्रकृति इस समूचे विश्व ब्रह्माण्ड का वह मूल स्त्रोत है जिसमें से सब निकलता है और जिसमें सब विलुप्त भी हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सभी रूप व आकार के उद्गम व विसर्जन का नाम है प्रकृति।''

           ऐसे विराट व्यक्तित्व के जीवन-चरित से साम्यता रखता बसंत और भी अनूठा बन जाता है।
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संक्षिप्त परिचय - सुनीता सिंह

सुनीता सिंह वर्तमान में उत्तर प्रदेश के निर्वाचन विभाग में सहायक मुख्य निर्वाचन अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। इनका जन्म गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ है। इनके पिता का नाम स्व. जनार्दन सिंह तथा माता का नाम श्रीमती छवि सिंह है। पति श्री दिनेश कुमार सिंह तथा दो पुत्र आर्युष और आर्यन हैं। इन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र विषय में परास्नातक करने के बाद दो वर्ष तक कराधान से संबंधित विषय पर शोध कार्य और उस दौरान बजट पर राष्ट्रीय सेमिनार में प्रतिभाग कर लेख/पत्र प्रस्तुत किया है। शासकीय कार्यों के बाद अतिरिक्त समय में इन्हें हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कविताएं, लघु कथाएं, गीत, नवगीत, दोहा, गजल, नज्म और ऐतिहासिक फिक्शन आदि लिखने में रुचि है।इनकी अब तक 21 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और 22वीं प्रकाशनाधीन है। इन्हें साहित्य के क्षेत्र में अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं जिनमें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा वर्ष-2018 का सूर पुरस्कार, उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान की ओर से दीर्घकालीन साहित्यिक सेवा (हिन्दी पद्य) हेतु वर्ष 2018-2019 का सुमित्रानंदन पंत पुरस्कार,अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा 2020 में "साहित्य परिक्रमा सम्मान", एशियन लिटरेरी सोसाइटी द्वारा तीसरा सागर मेमोरियल बाल साहित्य,इण्डियन वुमन अचीवर्स अवार्ड- 2020, (लिटरेचर कैटिगरी),तीसरा वर्डस्मिथ साहित्य पुरस्कार- 2020, इण्डियन वुमन राइजिंग स्टार अवार्ड, 2021,गीत संग्रह "ओस की बूँदें" बेस्ट पोएट्री बुक,WEAA वुमन एक्सीलेंस अचीवर अवार्ड, 2020",FSIA द रियल सुपर वुमन अवार्ड, 2020", विश्व हिन्दी लेखिका मंच द्वारा “कल्पना चावला मेमोरियल अवार्ड, 2020", आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था द्वारा"तेजस्विनी वुमन ऑफ़ इंडिया" अवार्ड, 2021,भारत अवार्ड फॉर शार्ट स्टोरी- इंटरनेशनल, 2021, हेतु आयोजित प्रतियोगिता में अन्तर्राष्ट्रीय ज्यूरी द्वारा दसवें स्थान पर चयनित, गुफ्तगू साहित्यिक संस्था प्रयागराज द्वारा सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान 2022 से सम्मानितआदि प्रमुख हैं। इनकी अंग्रेजी कविता की पुस्तक 'Milestone' इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड,एशिया बुक ऑफ रिकॉर्ड और वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज हो चुकी है।

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