अलग-अलग नज़रिए से रू-ब-रू करवाता काव्य" कृष्ण"- सोनिया वर्मा
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कथा,कहानियों के पात्र कभी मरते नहीं हैं। कुछ लोग अपना जीवन इस तरह से जीते हैं जो समाज के लिए आदर्श स्थापित करे या यूं कहें कि समस्याओं का समाधान दें। हमारे भारत के इतिहास में ऐसे बहुत लोग हैं जो आज न होते हुए भी अपने विचारों, आदर्शों ,कर्तव्यों और उम्दा जीवनशैली के माध्यम से आज भी जीवित हैं और चिरकाल तक जीवित रहेंगे।
कुछ ऐसे भी लोग हुए जिन्होंने समाज को शिक्षित करने ,आदर्श स्थापित करने के लिए अपने जीवन को तपस्या बना दिया। मानव व समाज की भलाई के लिए आजीवन जूझते रहे ऐसा एक नाम ज़हन में आता है श्रीकृष्ण । श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं से युक्त हैं। यह चेतना का सर्वोच्च स्तर होता है। इसीलिए प्रभु श्रीकृष्ण जग के नाथ जगन्नाथ और जग के गुरु जगदगुरु कहलाते हैं।
कृष्ण के जीवन की सभी घटनाओं को लोग जानते है,समझते है और आवश्यकता अनुसार सीख भी लेते हैं,परन्तु इन्हीं घटनाओं को क्या कभी किसी ने कृष्ण के नज़रिये से सोचने या समझने का प्रयास किया है ? शायद नहीं।
"कृष्ण" अनिरुद्ध प्रसाद विमल जी द्वारा रचित प्रबंध काव्य है।विमल जी स्वयं मानते है कि कृष्ण के व्यक्तित्व और कृतित्व पर लिखना आसान नहीं है फिर भी विमल जी ने एक प्रयास की है।
प्रबंध काव्य में कोई प्रमुख कथा काव्य के आदि से अंत तक क्रमबद्ध रूप में चलती है। कथा का क्रम बीच में कहीं नहीं टूटता और गौण कथाएँ बीच-बीच में सहायक बन कर आती हैं।"कृष्ण" पुस्तक में कृष्ण के जीवन के वृतांत क्रमबद्ध है।जिससे यह प्रबंध काव्य का एक रूप महाकाव्य बनता है। महाकाव्य किसी महापुरुष के जीवन का वर्णन होता है।
श्रीकृष्ण, हिन्दू धर्म में भगवान हैं। वे विष्णु के 8वें अवतार माने गए हैं। कन्हैया, श्याम, गोपाल, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से भी उनको जाना जाता है। कृष्ण निष्काम कर्मयोगी, आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से सुसज्जित महान पुरुष थे। उनका जन्म द्वापरयुग में हुआ था। उनको इस युग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष, युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है। कृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तृत रूप से लिखा गया है।भगवद्गीता कृष्ण और अर्जुन का संवाद है जो ग्रंथ आज भी पूरे विश्व में लोकप्रिय है। इस उपदेश के लिए कृष्ण को जगतगुरु का सम्मान भी दिया जाता है।
"कृष्ण" पुस्तक में घटनाएं कृष्ण के जन्म से शुरू न होकर अंत से हो रहीं हैं क्योंकि कृष्ण अपने अंत समय में अपने पूरे जीवन के घटनाओं को स्मरण कर रहें हैं इसलिए घटनाओं का क्रम निश्चित नहीं हैं ।कृष्ण के लिए किसी का श्राप टालना या अंत करना बहुत कठिन नही था,परंतु समाज को समानता और निष्पक्ष दंड देने की सीख देने के लिए असहाय, दर्द को सहते कृष्ण सोचते है कि "माता गांधारी का यह शाप है या जन्मों का मिला कोई अभिशाप है सोचता हूँ फिर कभी मैं जिस कृष्ण ने असंभव को संभव किया नियति के हर दौर को निष्फल किया उसके लिये कहाँ कठिन था बदलना ऋषि दुर्वासा का श्राप या गांधारी का । इन यादवों का नाश भी अनिवार्य था राक्षस दुराचारियों की तरह ही ये मूर्ख , लंपट और दंभी हो गये थे सुरा - सुन्दरी में डूबकर ये मदमत्त प्रकृति के प्रतिकूल आचरण करने लगे थे निज अपनी प्रजा का बोझ बनकर रह गये थे ।"पृष्ठ 8
कृष्ण सत्य और धर्म की रक्षा के लिए मनुष्य को सदैव तत्पर रहने की सीख देने और इस राह में यदि आपके अपने भी हो तो उनको भी दंड बिना भेदभाव देने के लिए निम्न घटना के कारक बनते हैं... कृष्ण कहते हैं
"कि अन्याय , अधर्म , अहंकार के अंत के लिए ही कृष्ण का जन्म हुआ था यही मेरे जीवन का उद्देश्य भी रहा है । जिन आदर्शों की स्थापना के लिए कृष्ण ने अपनी देह का बूंद - बूंद रक्त बहाया वही आदर्श जब ढहने लगे थे अपने ही वंश वृक्ष के हाथों तो धर्म की रक्षा के लिये मुझे शस्त्र उठाना ही था चूँकि ये यह भी जानते थे कि मेरे सिवा इन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता मृत्यु नहीं दे सकता ।"पृष्ठ 10
कृष्ण जैसा योद्धा कोई नहीं हुआ जो कृष्ण के वंश या यादवों का सम्पूर्ण नाश कर सके इसलिए इनके दुराचारी होने पर स्वयं कृष्ण को यह करना पड़ा।इसके लिए कृष्ण मानते है कि उनका जन्म ही पापों और पापियों के नाश के लिए हुआ है नहीं तो आसमान से उन पर इतनी कृपा बाल्यकाल से ही क्यों बरसाती है ?
मानव या असुर बनना इंसान के हाथ में है ।जैसा आप चाहोगे वैसे बनोगे।मानव और असुर के व्यवहार का अंतर बताते हुए कृष्ण कहते है कि
"सच में मनुज है वही जो मनुज के काम आये सीख दे निज कर्म से जो कहे वह कर दिखाये , सिद्धान्त और व्यवहार दोनों हो मनुज का एक जैसा यही अंतर बनाता आदमी को है असुर- सा "।पृष्ठ 49
समय किसी के बांधने से नहीं बंधता और न ही रोकने से रूकता है ।मानव हो या देव या अन्य कोई जीव।जो जन्मा है उसका अंत होना ही है।इसे मनुष्य या कोई देव नही बदल सकता ...... "जो कृष्ण अपने समय का सूर्य था नर में नारायण था । जन मन का तारणहार हुआ कर संहार सारे दुष्कर्म का सृष्टि का पालनहार हुआ वही कृष्ण आज सचमुच कितना लाचार है । हाय , कितना लाचार है यह कृष्ण"। पृष्ठ 55
सर्वशक्तिमान होते हुए भी कृष्ण आज स्वयं को लाचार महसूस कर रहे हैं । चाह कर भी कुछ कर नही पा रहें हैं।जिससे वह संसार को यही सीख दे रहें हैं कि
"संसार में रहो जरूर पर अनासक्त होकर रहो त्याग का अर्थ है निष्काम कर्म करते रहो ।" पृष्ठ 58
कर्म कर फल की इच्छा मत कर हो या नेकी कर दरिया में डाल जैसी लोकोक्ति निष्काम कर्म के लिए ही कही गयी है।थोड़े फायदे की चाह में मनुष्य जन्म-जन्मांतर के बंधन में बंधता चला जाता है।पुत्र को बुढ़ापे की लाठी मान लेना , दोस्तों से सहयोग की अपेक्षा करना जैसे बंधन दुख का कारण बन जाते है ।मन चाहा प्राप्त न होने पर रोष,दुख व अवसाद का जन्म होता है।आवश्यकता से अधिक और चादर से ज्यादा पैर फैलाने का परिणाम कभी अच्छा नही होता । परन्तु मनुष्य तो मनुष्य है , इसे दिखावे की ज़िंदगी ही रास आती है चाहे परिणाम कुछ भी हो। संसार में स्त्री आदर की पात्र है स्त्री से ही सृष्टि है होती है जहाँ पूजा स्त्री की देवत्व का वास होता है स्त्रियों के सम्मान के लिए कृष्ण वस्त्र चोर तक कहलाएँ ।जिसका वास्तविक कारण निम्न हैं ....कृष्ण के जीवन की इक घटना से हमे यह सीख मिलती हैं
जरूरत से ज़्यादा कुछ भी लेगा पड़ लोभ , स्वार्थ के वशीभूत शोषण - दोहन करेगा उस दिन मनुज सच में अपने ही हाथों अपना नाश करेगा ।
सीख दी थी गोपिकाओं को साथ - साथ जगत को भी कि जल में निर्वस्त्र नहाना अपराध है । गोपियों के इस कथन के उत्तर में “ कि यहाँ तो कोई नहीं था " आपने कहा था- 'कैसे नहीं था कोई ' यमुना तो थी , यमुना का जल तो था जानती हो तुम सभी अनजान बिल्कुल हो नहीं कण - कण में ब्रह्म का वास है जड़ - चेतन सब में बसते हैं प्रभु ।पृष्ठ 65
नवयुवाओं को कदम-क़दम पर नया-नया पाठ कृष्ण सीखाते रहें हैं । जो जिस तरह से चाहे ग्रहण करें।इससे मनुष्यों की हानि नहीं होगी ।अकारण कोई आपके जीवन में दखल दे तो उसकी मंशा सही नही हैं यही सीख समाज को देने के लिए कृष्ण कहते हैं कि जिस तरह गांधारी अपने सौ पुत्रों का वध का कारण मुझे मानती थी परंतु मैं तो निमित्त मात्र हूँ और कौरवों के विनाश का बीज तब ही रोपित हुआ था जब शकुनि बेवज़ह आकर रहने लगा था।हमारी सभ्यता यह है कि "घर में अतिथि का निरुद्देश्य ठहरना सभ्य समाज में , सभ्य घरों में , सुसंस्कृत वंश में उचित नहीं समझा जाता है कभी ।"पृष्ठ96
पीड़ित, दर्द से कराहते कृष्ण को फिर अपनी सखी के साथ घटित घटना विचलित करने लगती है।उनका मानना है कि ऐसे वीरों का नाश हो जाना ही चाहिए जो मौन अनाचार देखें या सहें...
"जब विवेक ही मर गया था तो सच में जीवित ही कोई कहाँ था नारी अपमान देखकर जो रहा खड़ा अधर्म के पक्ष में ऐसी वीरता का शमन हो जाना ही उचित था।"पृष्ठ 104
राष्ट्रवाद को भूलकर जब शासक शोषक बन जाए ।राष्ट्रधर्म को भूलकर राजनीति के दल-दल में धँसता जाए तो उस राष्ट्र का उत्थान संभव नहीं। यही कृष्ण भी कहते है किः-
"मैंने सच में कुछ भी नहीं किया था जहाँ राष्ट्र सर्वोपरि होना चाहिए वहाँ ये सभी सिंहासन से चिपक गये थे राष्ट्रवाद से व्यक्तिवाद , वंशवाद जब - जब प्रमुख होगा लहू के दलदल में किसी भी राष्ट्र का रथ ऐसे ही फँसेगा।"पृष्ठ108
कृष्ण भविष्य-दृष्टा तो थे ही तभी तो एक राज्य का कैसे उत्थान होगा? राजा का व्यवहार कैसा हो? किन -किन को संरक्षण दिया जाएँ?आदि ऐसे सभी आवश्यक तथ्यों पर कृष्ण प्रकाश डाले हैं। कृषकों के लिए राज्य कोष हमेशा खुला रहना चाहिए वे अन्नदाता है इनकी उपेक्षा खात्मे की ओर ले जाएगी। ऐसा कृष्ण विचार कर रहें है ....
"प्रजा का दुख राजा का दुख होगा ताप त्रय तीनों का भागी राजा होगा , जन - जन के हित अधिकारों की रक्षा राजा अर्पित कर प्राण करेगा । है कृषकों का देश यह हमारा भारतवर्ष रात - दिन वे करते हैं उपज का काम अन्नदाता हैं कृषक खेतों में खटते अविराम कोष राज्य का खुला रहेगा उनके लिए सहर्ष"।पृष्ठ109
संसार नश्वर है।व़क्त किसी के लिए नहीं रुकता।हर एक जीव को गिनती की साँसें मिली हैं।आप जो करोंगे जैसा करोंगे वैसा ही पाओंगे।प्रकृति के नियम कोई नहीं बदल सकता।फिर घुट-घुट कर क्यों जीना। प्रेम से रहो,प्रेममय जीवन जियो।प्रेम से हर समस्या का समाधान संभव है।कृष्ण आज राधा कि इक झलक पाने के लिए अंत समय उसकी प्रतिक्षा में व्यतित कर रहे है।प्रेम में लेनदेन नहीं होता यह तो निश्छल होता है।जब लेनदेन हो तो प्रेम व्यापार बन जाता है।
"यह चिरन्तन शाश्वत सत्य सार्वभौम , सार्वजन्य कि प्रेम सबकुछ सह सकता है आँसू नहीं सह सकता है । और तुमने पोंछ लिया था अपनी आँखों से बहती अविरल अश्रुधारा को यह कहते हुए अब ये आँसू कभी नहीं बहेंगे । क्या सचमुच तुम्हारा यह ऋण मैं कभी चुका सकूँगा मानवीय मूल्यों के लिए किया गया एक नारी का यह त्याग संसार के लिए मानवता के लिए ऋण ही तो है।"पृष्ठ 130
"कृष्ण" काव्य हमें, घटनाओं को अलग-अलग पहलुओं से देखने और सोचने पर बाध्य करता हैं।इसे पढ़ते व़क्त हमने यह महसूस किया कि किसी भी परिस्थिति में हार न मानकर उसका हल खोजने का प्रयास करें सफलता अवश्य मिलेगी। कृष्ण की सभी लीलाओं को अगर जीवन से जोड़े तो हर समस्या का समाधान अवश्य मिलेगा।अगर आप कृष्ण के नज़रिए से उनके जीवन की घटनाओं को समझना चाहते हैं तो इस पुस्तक को आपको अवश्य पढ़ना चाहिए।सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा जो कृष्ण ने समाज को दी वह है प्रेम की। सच्चा प्रेम मोह - माया से परे होता हैं आप कृष्ण को पढ़ेंगें तो जान पाएँगे।पुस्तक की भाषा सरल व सहज है ।घटनाओं का क्रम पाठक को बांधें रखता है। नगन्य के बराबर प्रिंटिंग की त्रुटियाँ हैं।पुस्तक का कवर बहुत सुन्दर और नाम को सार्थक करता हुआ है।छपाई भी बहुत अच्छी है इसके लिए श्वेतवर्णा प्रकाशन को बहुत
बधाई
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कृष्ण के जीवन को अलग नज़रिए से पेश करने के लिए आदरणीय अनिरुद्ध प्रसाद विमल जी को भी
बधाई
और शुभकामना।
समीक्ष्य पुस्तकः- कृष्ण
विधाः- प्रबंध काव्य
रचनाकारः- अनिरुद्ध प्रसाद विमल
प्रकाशकः-श्वेतवर्णा प्रकाशन
संस्करणः- प्रथम(2021)
मूल्यः- Rs.160
पृष्ठः- 136
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