सॉनेट
बृज में विकास
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कुंज-करील गहन संकट में
जागो उठो बचाओ मिलकर
पुष्प कदंब रह सकें खिलकर
मुरझे हैं विकास कंटक में
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चौड़े मार्ग, भवन नभ चुंबित
धन्नासेठ कर सकें दर्शन
सबसे पहले कर धन-वर्षण
भक्ति-भाव होगा अवहेलित
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वी आई पी नेता-अभिनेता
अफसर होंगे देव-विजेता
आम आदमी झेल फजीता
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मदिरा-मांस परोसें होटल
बेच-खरीदें देहें मोटल
जन से खर्च वसूलो टोटल
२०-१-२०२३
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गीत
चलो मिलके सजाएँ बारात, बधाई हो सबको २
*
जुही-चमेली अंजलि छाया, आभा देखे जग चकराया।
वसुधा जगमग करे ज्योत्सना, निशि संग चंदा आया।
चलो मिल के बनाएँ बारात, बधाई हो सबको २
*
विभा सजाए सुंदर टीका, सरला बिन मजमा है फीका।
हैं कमलेश मगन गायन में, रजनी का सेहरा है नीका।
चलो मिल के निकालें बारात, बधाई हो सबको २
*
इंद्रा संग संतोष सुसज्जित, राजकुमार नर्मदा मज्जित।
पाखी नीलम देख हो रहे, सुर नर बरबस लज्जित।
चलो मिल के घुमाएँ बारात, बधाई हो सबको २
***
सॉनेट
विवाह
*
प्रकृति-पुरुष का मिलन ही, सकल सृष्टि का मूल।
द्वैत मिटा अद्वैत वर, रहें साथ गह हाथ।
दो अपूर्ण मिल पूर्ण हों, सुख-सपनों में झूल।।
सप्तपदी पर वचन दें, लें ऊँचा कुल माथ।।
हल्दी-मेंहदी-तेल है, रूप-रंग अरु स्नेह।
पूजें माटी-कूप हँस, जड़ जमीन से जोड़।
लग्न पत्रिका कह रही, लगन लगी चल गेह।।
नीर-क्षीर सम मिल रहें, कोई सके न तोड़।।
श्वास गीतिका आस हो, मन्वन्तर तक रास।
नेह निनादित नर्मदा, कलकल करे सदैव।
प्यास-त्रास से मुक्त हो, सदा बिखेरे हास।।
चित्र गुप्त होकर प्रगट, शुभाशीष दे दैव।।
कलगी अचकन पर रहे, नथ बेंदा बलिहार।
चूड़ी पायल नथ लखे, पटका निज मन हार।।
***
मन से मन का मिलन हो, रोज मने त्यौहार।
सुख-दुख साझा हो सदा, कदम हमेशा संग।
दो कुटुंब मिल एक हों, बाँधें बंदनवार।।
अंतर में अंतर न हो, मनभावन हो संग।।
सात जन्म तक साथ की, कभी न कम हो चाह।
ध्रुव तारे सी प्रीत हो, सहज सरस मनुहार।
अपनापन हो अपरिमित, सबसे पाओ वाह।।
पहनो पहनाए रहो, आस-हास भुजहार।।
गंग-जमुन सम साथ हो, बने प्रेरणा स्रोत।
चाह-राह हो एक ही, सुख-दुख भी हो एक।
सूर्य-उषा जैसी रहे, आनन पर सुख-ज्योत।।
नातों से नाता रखो, तान न ताना नेंक।।
विष्णु-लक्ष्मी हृद बसें, अँगना बाल गुपाल।
विजय तिलक से सुशोभित, रहे हमेशा भाल।।
२०-१-२०२२
***
नवगीत
*
रहे तपते गर्मियों में
बारिशों में टपकते थे
सर्दियों में हुए ठन्डे
रौशनी गायब हवा
आती नहीं है
घोंसलें है कॉन्क्रीटी
घुट रही दम
हवा तक दूभर हुई है
सोम से रवि तक न अंतर
एक से सब डे
श्वास नदिया सूखती
है नहीं पानी
आस घाटों पर न मेले
नहीं हलचल
किंतु हटने को नहीं
तैयार तिल भर भी यहाँ से
स्वार्थ के पंडे
अस्पताली तीर्थ पर है
जमा जमघट
पीडितों का, लुटेरों का
रात-दिन नित
रोग पहचाने बिना
परीक्षण-औषधि अनेकों
डॉक्टरी फंडे
***
***
छंद शाला
* विजाति छंद
* मापनी-१२२२ १२२२
*सूत्र -यरगग
*
निहारा क्या?
गुहारा क्या?
कहो क्या साथ लाया था?
कहो क्या साथ जायेगा?
रहेंगे हाथ खाली ही -
न कोई साथ आयेगा
बनाया क्या?
बिगाड़ा क्या?
न कोई गीत है तेरा
न कोई मीत है तेरा
सुनेगा बात ना कोई
लगेगा व्यर्थ ही टेरा
अँधेरा क्या?
सवेरा क्या?
तुझे तेरे भुला देंगे
सगे साथी जला देंगे
कहेंगे तेरही तेरी
मँगा मीठा मजा लेंगे
हमारा क्या?
तुम्हारा क्या?
***
*
२०-१-२०२०
ॐ
: दोहा गाथा सनातन १ :
*
दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत.
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत.
हिन्दी ही नहीं सकल विश्व के इतिहास में केवल दोहा सबसे पुराना छंद है जिसने एक नहीं अनेक बार युद्धों को रोका है, नारी के मान-मर्यादा की रक्षा की है, भटके हुओं को रास्ता दिखाया है, देश की रक्षा की है, हिम्मत हार चुके राजा को लड़ने और जीतने का हौसला दिया है, बीमारियों से बचने की राह सुझाई है और जिंदगी को सही तरीके से जीने का तरीका ही नहीं बताया भगवान के दर्शन कराने में भी सहायक हुआ है. आप इसे दोहे की अतिरेकी प्रशंसा मत मानिये. हम इस दोहा गोष्ठी में न केवल कालजयी दोहाकारों और उनके दोहों से मिलेंगे अपितु दोहे की युग परिवर्तनकारी भूमिका के साक्षी बनकर दोहा लिखना भी सीखेंगे.
अमरकंटकी नर्मदा, दोहा अविरल धार.
गत-आगत से आज का, सतत ज्ञान व्यापार.
आप यह जानकर चकित होंगे कि जाने-अनजाने आप दैनिक जीवन में कई बार दोहे कहते-सुनते हैं. आप में से हर एक को कई दोहे याद हैं. हम दोहे के रचना-विधान पर बात करने के पहले दोहा-लेखन की कच्ची सामग्री अर्थात हिन्दी के स्वर-व्यंजन, मात्रा के प्रकार तथा मात्रा गिनने का तरीका, गण आदि की जानकारी को ताजा करेंगे. बीच-बीच में प्रसंगानुसार कुछ नए-पुराने दोहे पढ़कर आप ख़ुद दोहों से तादात्म्य अनुभव करेंगे.
कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद.
(कल = बीता समय, आगामी समय, शान्ति, यंत्र)
भाषा :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ.
चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
दोहा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप.
भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है.
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.
व्याकरण ( ग्रामर ) -
व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भांति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है.
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार.
वर्ण / अक्षर :
वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं.
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.
स्वर ( वोवेल्स ) :
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.
व्यंजन (कांसोनेंट्स) :
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.
शब्द :
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.
अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. यह भाषा का मूल तत्व है.
शब्द के प्रकार
१. अर्थ की दृष्टि से : सार्थक (जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि) एवं निरर्थक (जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि),
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से : रूढ़ (स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि), यौगिक (दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि) एवं योगरूढ़ (जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि), ३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर तत्सम (मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि), तद्भव (संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि) अनुकरण वाचक (विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोडे की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि), देशज (आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिए गए शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि), विदेशी शब्द ( संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिए गए शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि),
४. प्रयोग के आधार पर विकारी (वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किए जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है यथा - लड़का लड़के लड़कों लड़कपन, अच्छा अच्छे अच्छी अच्छाइयां आदि),
५. अविकारी (वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता. इन्हें अव्यय कहते हैं. इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं. यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि) भेद किए गए हैं. इनके बारे में विस्तार से जानने के लिए व्याकरण की किताब देखें. हमारा उद्देश्य केवल उतनी जानकारी को ताजा करना है जो दोहा लेखन के लिए जरूरी है.
नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल.
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल.
इस पाठ को समाप्त करने के पूर्व श्रीमद्भागवत की एक द्विपदी पढिये जिसे वर्तमान दोहा का पूर्वज कहा जा सकता है -
नाहं वसामि बैकुंठे, योगिनां हृदये न च .
मद्भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद.
अर्थात-
बसूँ न मैं बैकुंठ में, योगी उर न निवास.
नारद गायें भक्त जंह, वहीं करुँ मैं वास.
इस पाठ के समापन के पूर्व कुछ पारंपरिक दोहे पढ़िये जो लोकोक्ति की तरह जन मन में इस तरह बस गए कि उनके रचनाकार ही विस्मृत हो गए. पाठकों को जानकारी हो तो बताएं. आप अपने अंचल में प्रचलित दोहे उनके रचनाकारों की जानकारी सहित भेजें.
सरसुती के भंडार की, बड़ी अपूरब बात.
ज्यों खर्चे त्यों-त्यों बढ़े, बिन खर्चे घट जात.
जो तो को काँटा बुवै, ताहि बॉय तू फूल.
बाको शूल तो फूल है, तेरो है तिरसूल.
होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय.
जाको राखे साइयां, मर सके नहिं कोय.
समय बिताने के लिए, करना है कुछ काम.
शुरू करो अन्त्याक्षरी, लेकर हरी का नाम.
जैसी जब भवितव्यता, तैसी बने सहाय.
आप न जाए ताहि पे, ताहि तहां ले जाय.
क्रमश:
*
स्तवन
*
सरस्वती शारद ब्रम्हाणी!
जय-जय वीणा पाणी!!
*
अमल-धवल शुचि,
विमल सनातन मैया!
बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान
प्रदायिनी छैंया।
तिमिरहारिणी,
भयनिवारिणी सुखदा,
नाद-ताल, गति-यति
खेलें तव कैंया।
अनहद सुनवाई दो कल्याणी!
जय-जय वीणापाणी!!
*
स्वर, व्यंजन, गण,
शब्द-शक्तियां अनुपम।
वार्णिक-मात्रिक छंद
अनगिनत उत्तम।
अलंकार, रस, भाव,
बिंब तव चारण।
उक्ति-कहावत, रीति-
नीति शुभ परचम।
कर्मठ विराजित करते प्राणी
जय-जय वीणापाणी!!
*
कीर्ति-गान कर,
कलरव धन्य हुआ है।
यश गुंजाता गीत,
अनन्य हुआ है।
कल-कल नाद प्रार्थना,
अगणित रूपा,
सनन-सनन-सन वंदन
पवन बहा है।
हिंदी हो भावी जगवाणी
जय-जय वीणापाणी!!
२०-१-२०१६
***
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