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सोमवार, 16 जनवरी 2023

कृष्ण, शिव, भवन निर्माण, वास्तु, नवगीत,


गोपाल पूर्वतापीयोपनिषद

ओम क्लीं कृष्णाय गोपीचंद्र वल्लभाय नम: स्वाहा।
*
योग हो सके सभी चाहते, चाहे कोई वियोग नहीं।
हमें सुलभ है योग न केवल, प्राप्य हुए योगेंद्र यहीं।।

बड़भागी हम रानी आईं, दर्शन देने धन्य प्रजा।
वसुधा पर फहराने आईं, सरला शारद धर्म ध्वजा।।

कृष्ण वही जो कृष न' कभी हो, कर आकृष्ट चित्त ले वह।
अनुपम अवसर सलिल करे, अभिषेक सके अब कोई न दह।।

गोपी सकल जीव हैं जग के, चंद केंद्र आकर्षक है।
वल्लभ प्राणों से भी प्रिय हैं, उससे कभी न हों वंचित।।

माया-मायापति अनन्य हैं, प्रिय दोनों को दोनों ही।
कोई किसी को न्यून न ज्यादा, दोनों को हों प्रिय हम भी।।
*
भाव-भावना सहित पूजिए, धर्म ज्ञान वैराग ऐश्वर्य।
दिशा अग्नि 'ऋत वायु ईश में, दें आहुति नाम लेकर।।

चौकी अठदल कमल पर रखें, कर आसीन पूजिए कृष्ण।
हृद सर शिखा नेत्र 'फट्' करिए, कभी न कोई रहे सतृष्ण।।
*
कहें प्रयोजन मंत्र-जाप का, ब्रह्मा से पूछें ऋषिजन।
क ल इ अनुस्वार से बने, जल भू अग्नि चंद्रमा भी।

सब मिलकर दिनकर बन पाया, पंचम पद जीवन दाता।।
कहें चन्द्रध्वज से ब्रह्मा जी, कर परार्ध जप रहता मैं।

विश्वेश्वर को नमन कीजिए, तभी धन्यता अनुभव हो।।

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शिव दोहावली
शिव शंकर ओंकार हैं, नाद ताल सुर थाप।
शिव सुमरनी सुमेरु भी, शिव ही जापक-जाप।।
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पूजा पूजक पूज्य शिव, श्लोक मंत्र श्रुति गीत।
अक्षर मुखड़ा अंतरा, लय रस छंद सुरीत।।
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आत्म-अर्थ परमार्थ भी, शब्द-कोष शब्दार्थ।
शिव ही वेद-पुराण हैं, प्रगट-अर्थ निहितार्थ।।
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तन शिव को ही पूजना, मन शिव का कर ध्यान।
भिन्न न शिव से जो रहे, हो जाता भगवान।।
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इस असार संसार में, सार शिवा-शिव जान।
शिव में हो रसलीन तू, शिव रसनिधि रसखान।।
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१६-१-२०१८ , जबलपुर
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शिव को पा सकते नहीं, शिव से सकें न भाग।
शिव अंतर्मन में बसे, मिलें अगर अनुराग।।
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शिव को भज निष्काम हो, शिव बिन चले न काम।
शिव-अनुकंपा नाम दे, शिव हैं आप अनाम।।
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वृषभ-देव शिव दिगंबर, ढंकते सबकी लाज।
निर्बल के बल शिव बनें, पूर्ण करें हर काज।।
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शिव से छल करना नहीं, बल भी रखना दूर।
भक्ति करो मन-प्राण से, बजा श्वास संतूर।।
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शिव त्रिनेत्र से देखते, तीन लोक के भेद।
असत मिटा, सत बचाते, करते कभी न भेद।।
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१५.१.२०१८
एफ १०८ सरिता विहार, दिल्ली
दोहा दुनिया
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लेख :
भवन निर्माण संबंधी वास्तु सूत्र
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वास्तुमूर्तिः परमज्योतिः वास्तु देवो पराशिवः
वास्तुदेवेषु सर्वेषाम वास्तुदेव्यम नमाम्यहम् - समरांगण सूत्रधार,
भवन निवेश वास्तु मूर्ति (इमारत) परम ज्योति की तरह सबको सदा प्रकाशित करती है। वास्तुदेव चराचर का कल्याण करनेवाले सदाशिव हैं। वास्तुदेव ही सर्वस्व हैं वास्तुदेव को प्रणाम।
सनातन भारतीय शिल्प विज्ञान के अनुसार अपने मन में विविध कलात्मक रूपों की कल्पना कर उनका निर्माण इस प्रकार करना चाहिए कि मानव तन और प्रकृति में उपस्थित पञ्च तत्वों का समुचित समन्वय व संतुलन संरचना का उपयोग करनेवालों को सुख दे, यही वास्तु विज्ञान का उद्देश्य है।
मनुष्य और पशु-पक्षियों में एक प्रमुख अंतर यह है कि मनुष्य अपने रहने के लिये ऐसा घर बनाते हैं जो उनकी हर आवासीय जरूरत पूरी करता है जबकि अन्य प्राणी घर या तो बनाते ही नहीं या उसमें केवल रात गुजारते हैं। मनुष्य अपने जीवन का अधिकांश समय इमारतों में ही व्यतीत करते हैं। एक अच्छे भवन का परिरूपण कई तत्वों पर निर्भर करता है। यथा : भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से संबंध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश की दिशा, लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिये अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुँचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
* भवन में प्रवेश हेतु पूर्वोत्तर (ईशान) श्रेष्ठ है। पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) तथा पूर्व-पश्चिम (वायव्य) दिशा भी अच्छी है किंतु दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य), दक्षिण- पूर्व (आग्नेय) से प्रवेश यथासंभव नहीं करना चाहिए। यदि वर्जित दिशा से प्रवेश अनिवार्य हो तो किसी वास्तुविद से सलाह लेकर उपचार करना आवश्यक है।
* भवन के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने स्थाई अवरोध खम्बा, कुआँ, बड़ा वृक्ष, मोची, मद्य, मांस आदि की दूकान, गैर कानूनी व्यवसाय आदि नहीं हो।
* मुखिया का कक्ष नैऋत्य दिशा में होना शुभ है।
* शयन कक्ष में मंदिर न हो। यदि शयन कक्ष में देव रखना आवश्यक हो तो उनके सम्मुख एक पर्दा लगा दें।
* वायव्य दिशा में वास करनेवाला अस्थिर होता है, उसका स्थान परिवर्तन होने की अधिक संभावना होती है।अत:, अविवाहित कन्याओं का कक्ष, अतिथि कक्ष, निरुपयोगी पदार्थ, विक्रय सामग्री आदि वायव्य में हो। इस दिशा में तिजोरी, आभूषण, धन, पुत्र का कक्ष आदि न हो।
* शयन कक्ष में दक्षिण की और पैर कर नहीं सोना चाहिए। मानव शरीर एक चुंबक की तरह कार्य करता है जिसका उत्तर ध्रुव सिर होता है। मनुष्य तथा पृथ्वी का उत्तर ध्रुव एक दिशा में हो तो उनसे निकलनेवाली चुंबकीय बल रेखाएँ आपस में टकराने के कारण प्रगाढ़ निद्रा नहीं आएगी। फलतः, अनिद्रा के कारण रक्तचाप आदि रोग हो सकते हैं। सोते समय पूर्व दिशा में सिर होने से उगते हुए सूर्य से निकलनेवाली किरणों के सकारात्मक प्रभाव से बुद्धि का विकास होता है। पश्चिम दिशा में डूबते हुए सूर्य से निकलनेवाली नकारात्मक किरणों के दुष्प्रभाव के कारण सोते समय पश्चिम में सिर रखना मना है।
* भारी बीम या गर्डर के बिल्कुल नीचे सोना भी हानिकारक है।
* शयन तथा भंडार कक्ष यथासंभव सटे हुए न हों।
* शयन कक्ष में आईना ईशान दिशा में ही रखें, अन्यत्र नहीं।
* पूजा का स्थान पूर्व या ईशान दिशा में इस तरह इस तरह हो कि पूजा करनेवाले का मुँह पूर्व या ईशान दिशा की ओर तथा देवताओं का मुख पश्चिम या नैऋत्य की ओर रहे। बहुमंजिला भवनों में पूजा का स्थान भूतल पर होना आवश्यक है। पूजास्थल पर हवन कुण्ड या अग्नि कुण्ड आग्नेय दिशा में रखें।
* रसोई घर का द्वार मध्य भाग में इस तरह हो कि हर आनेवाले को चूल्हा न दिखे। चूल्हा आग्नेय दिशा में पूर्व या दक्षिण से लगभग ४'' स्थान छोड़कर रखें। रसोई, शौचालय एवं पूजा एक दूसरे से सटे न हों। रसोई में अलमारियाँ दक्षिण-पश्चिम दीवार तथा पानी ईशान दिशा में रखें।
* बैठक का द्वार उत्तर या पूर्व में हो. दीवारों का रंग सफेद, पीला, हरा, नीला या गुलाबी हो पर लाल या काला न हो। युद्ध, हिंसक जानवरों, भूत-प्रेत, दुर्घटना या अन्य भयानक दृश्यों के चित्र न हों। अधिकांश फर्नीचर आयताकार या वर्गाकार तथा दक्षिण एवं पश्चिम में हों।
* सीढ़ियाँ दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, नैऋत्य या वायव्य में हो सकती हैं पर ईशान में न हों। सीढ़ियों के नीचे शयन कक्ष, पूजा या तिजोरी न हो. सीढियों की संख्या विषम हो।
* कुआँ, पानी का बोर, हैण्ड पाइप, टंकी आदि ईशान में शुभ होता है। दक्षिण या नैऋत्य में अशुभ व नुकसानदायक है।
* स्नान गृह पूर्व में, मैले कपड़े वायव्य में, आइना ईशान, पूर्व या उत्तर में गीजर तथा स्विच बोर्ड आग्नेय दिशा में हों।
* शौचालय वायव्य या नैऋत्य में, नल ईशान, पूर्व या उत्तर में, सेप्टिक टेंक उत्तर या पूर्व में हो।
* मकान के केंद्र (ब्रम्ह्स्थान) में गड्ढा, खंबा, बीम आदि न हो। यह स्थान खुला, प्रकाशित व् सुगंधित हो।
* घर के पश्चिम में ऊँची जमीन, वृक्ष या भवन शुभ होता है।
* घर में पूर्व व उत्तर की दीवारें कम मोटी तथा दक्षिण व् पश्चिम की दीवारें अधिक मोटी हों। तहखाना ईशान, उत्तर या पूर्व में तथा १/४ हिस्सा जमीन के ऊपर हो। सूर्य किरणें तहखाने तक पहुँचना चाहिए।
* मुख्य द्वार के सामने अन्य मकान का मुख्य द्वार, खम्बा, शिलाखंड, कचराघर आदि न हो।
* घर के उत्तर व पूर्व में अधिक खुली जगह यश, प्रसिद्धि एवं समृद्धि प्रदान करती है। वराह मिहिर के अनुसार वास्तु का उद्देश्य 'इहलोक व परलोक दोनों की प्राप्ति है। नारद संहिता, अध्याय ३१, पृष्ठ २२० के अनुसार-
'अनेन विधिनन समग्वास्तुपूजाम करोति यः आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धन्यं लाभेन्नारह।'
अर्थात इस तरह से जो व्यक्ति वास्तुदेव का सम्मान करता है वह आरोग्य, पुत्र धन-धान्यादि का लाभ प्राप्त करता है।
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नवगीत:
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वह खासों में खास है
रूपया जिसके पास है
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सब दुनिया में कर अँधियारा
वह खरीद लेता उजियारा
मेरी-तेरी खत कड़ी हो
पर उसकी होती पौ बारा
असहनीय संत्रास है
वह मालिक जग दास है
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था तो वह सच का हत्यारा
लेकिन गया नहीं दुतकारा
न्याय वही, जो राजा करता
सौ ले दस देकर उपकारा
सीता का वनवास है
लव-कुश का उपहास है
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अँगना गली मकां चौबारा
हर सूं उसने पैर पसारा
कोई फर्क न पड़ता उसको
हाय-हाय या जय-जयकारा
उद्धव का सन्यास है
सूर्यग्रहण खग्रास है
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१६-१-२०१५

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