कवितायें
प्रो. वीणा तिवारी
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कभी-कभी
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कभी-कभी ऐसा भी होता है
कोई अक्स, शब्द
या वाक्य का टुकडा
रक्त में घुल-मिल जाता है।
फ़िर उससे बचने को
कनपटी की नस दबाओ
उँगलियों में कलम पकडो
या पाँव के नाखून से
धरती की मिट्टी कुरेदो
वह घड़ी की टिक-टिक-सा
अनवरत
शिराओं में दौड़ता-बजता रहता है।
-कभी ऐसा क्यों होता है?
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क्या-क्यों?
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क्या हो रहा है?
क्यों हो रहा है?
इस 'क्या' और 'क्यों' को
न तो हम जानना चाहते हैं
न ही जानकर मानना
बल्कि प्रश्न के भय से
उत्तर की तरफ पीठ करके
सारी उम्र नदी की रेत में
सुई तलाशते हैं.
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मन
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दूसरों की छोटी-छोटी भूलें
आँखों पर चढी
परायेपन की दूरबीन
बड़े-बड़े अपराध दिखाती है
जिनकी सजा फांसी भी कम लगती है
अपनों की बात आने पर ये मन
भुरभुरी मिट्टी बन जाता है
जिसमें वह अपराध कहीं भीतर दब जाता है.
फिर सजा का सवाल कहाँ रह जाता है?
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