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रविवार, 5 अप्रैल 2020

ग़ज़ल - अमीर खुसरो हिंदी अनुवाद - संजीव

ग़ज़ल - अमीर खुसरो
हिंदी अनुवाद - संजीव
*
काफ़िरे-इश्कम मुसलमानी मरा दरकार नीस्त
हर रगे मन तार गश्ता हाजते जुन्नार नीस्त

हूँ इश्क़ में काफ़िर, मुसलमानी न मुझको चाहिए
हो गया मन तार, जनेऊ न मुझको चाहिए
अज़ सरे बालिने मन बर खेज ऐ नादाँ तबीब
मेरे सिरहाने से उठ जा, अब तो ऐ! नादां हकीम

दर्द मन्द इश्क़ रा दारो-बख़ैर दीदार नीस्त
इश्क़-मारे को न कुछ दीदार ही बस चाहिए
मा व इश्क़ यार, अगर पर किब्ला ,गर दर बुतकदा
मैं हूँ उसका प्रेम है तो क्या दर है, मंदिर है क्या

आशिकान दोस्त रा बक़ुफ़्रो- इमां कार नीस्त
आशिकों को यार दो, कुफ्रो-ईमां कब चाहिए?
ख़ल्क़ मी गोयद के खुसरो बुत परस्ती मी कुनद
कह रही दुनिया कहे, खुसरो तो मूरत पूजता

आरे -आरे मी कुनम बा ख़लको-दुनिया कार नीस्त
हाँ रे हाँ हूँ पूजता, दुनिया नहीं तू चाहिए
*
अर्थ
मैं इश्क़ का काफ़िर हूँ,मुझे मुसलमानी की ज़रूरत नहीं
मेरी हर रग तार बन गयी है,मुझे जनेऊ की ज़रूरत नहीं
ऐ नादाँ हकीम मेरे सिरहाने से उठ जा,
जिसको इश्क़ का दर्द लगा है,उसका इलाज
महबूब के दर्शन के सिवा कुछ नहीं।
हम हैं और महबूब का प्रेम है,चाहे काबा हो या बुतखाना,
प्रेमिका के प्रेमियों को कुफ़्र और ईमान से कोई काम नहीं।
दुनिया कहती है खुसरो मूर्ति पूजा करता है।
हाँ ,हाँ मैं करता हूँ, मेरा दुनिया से कोई सरोकार नहीं।
डॉ.यासमीन ख़ान

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