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सोमवार, 16 मार्च 2020

एक कविता घर

एक कविता 
 घर 
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घर 
ईंट-रेत, लोहे-लकड़ी, सीमेंट   
खंबे-दीवारो, द्वार-खड़की-छत से नहीं बनता। 
घर 
बनता है स्नेह-प्रेम 
त्याग-बलिदान और समर्पण से। 
घर 
बनाता है इंसान कल के लिए, 
लेकिन कल से होता है अनजान। 
घर 
पाने के लिए जन्म लेता है 
धरती पर, सर्व शक्तिमान भगवान। 
घर 
बनाकर हिल-मिलकर रहो 
सुख-दुःख, धूप-छाँव हँसकर सहो। 
घर
प्राणों की राधिका को 
बाँसुरी बजाकर टेरेगा-बुलाएगा। 
घर 
धरती पर तुम्हारे जीते जी 
तुम्हें स्वर्ग के दर्शन कराएगा। 
*** 


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