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सोमवार, 23 मार्च 2020

दोहा सलिला


दोहा सलिला 
60 
पर्वत शिखरों पर बसी, धूप-छाँव सँग शाम.
वृक्षों पर कलरव करें, नभचर आ आराम..
61
कृपा सभी पर कीजिए, ईश हमेशा आप।
सद्गुण सबको दीजिये, करे न कोई पाप।।
62
आन-बान की शान की,एक अलग पहचान।
परंपराओं की धरा,'भवि' है राजस्थान।।
63
दर्पण जैसा मित्र हो,परछाईं सा मीत।
धर्मराह हो फिर स्वयं , होगी तेरी जीत।।
64
कल जो मेरे साथ था, आज हुआ है दूर।
सच में होता वक़्त का,बड़ा अजब दस्तूर।।
65
माना ये सच्चा कथन, वक़्त बड़ा बलवान।
लेकिन हिम्मत हारना,कायर की पहचान।।
66
अंग्रेज़ों की चाल से,फैला ऐसा रोग।
भूले अपनी संस्कृति, हम भारत के लोग।।
67
संवत्सर से ‘भवि’ शुरू,अपना है नववर्ष।
एक जनवरी की धमक, है अंग्रेज़ी हर्ष।।
68
धन-दौलत की है नहीं, भवि मुझको दरकार।
सिर्फ़ प्रेम से प्रेम का,मिलता रहे उधार।।
69
ऐसा भी क्या क्रोध में,कर जाना ‘भवि’ काम।
खा जाए जो ज़िंदगी, सारी इज़्ज़त-नाम।।
70
कर्मों पर ही चल रहा, 'भवि' सारा संसार।
थोथी बातों से नहीं ,होगा बेड़ा पार।।
71
जिनकी गर्मी का कभी, दिल पर था 'भवि' राज।
उन रिश्तों की ठंड से,लहू जम रहा आज।।
72
सरदी लेकर आ गया, नया-नवेला साल।
फाल्गुन कहने आ रहा,खेलो रंग- गुलाल।।
73
काग़ज़दिल मेरा लिए, कितने ही जज़्बात।
कोई समझे तो कहूँ, 'भवि' मैं दिल की बात।।
74
दिल में ख़ुशियाँ चाहिए,जीवन में भवि रंग।
बिना डोर के यूँ नहीं, नभ में उड़े पतंग।।
75
जीवन का हर स्वाद है, 'भवि' जिनसे आबाद।
भूल रहे क्यों आज हम,उन हाथों का स्वाद।।
76
दुख सबको मिलते नहीं, ये भी एक प्रसाद।
ईश कृपा जो जानता, क्या सोचे अवसाद।।
77
अट्टहास 'भवि' हर तरफ़, करता अत्याचार।
काँप रही थर-थर धरा, ऐसी चली बयार।।
78
लाख शोर झूठे करें,झूठा अब परिवेश।
सच की ख़ुश्बू से मगर, महकेगा ‘भवि’ देश।।
79
छुरे लिए भवि हाथ में,हुआ ज्ञान का अंत।
लाल रंग सरसों हुई,रोए आज वसंत।।
80
केवल अब बंदूक है,ग़ायब केसर सेब।
निगल गया कश्मीर को,आतंकी आसेब।।
81
एक दिवस मत कीजिए, 'भवि' बेटी को याद।
प्रभु का है वरदान ये, करती जग आबाद।।
82
घर के कोने में पड़ा, सिसक रहा ईमान।
सच में कितना गिर गया,इस युग में इंसान।।
83
जीवित की चिंता नहीं, मुर्दों पर भवि ध्यान।
करे तरक़्क़ी किस तरह,मेरा हिंंदुस्तान।।
84
ये जो मेरे हैं नयन,देखें बस ये श्याम।
सावन की अंधी मुझे,या दो कोई नाम।।
85
करो निभाने का यतन, जब तक लेना साँस।
बचना तुम उससे मगर, रिश्ता जो हो फाँस।।
86
टूटा सपना जब जुड़े, दिल में भरे उमंग।
अगर ईश गुण तुम धरो, होगे मस्त मलंग।।
87
सभी चाहते सुख मगर,दुखी सकल संसार।
क्यों 'भवि' ऐसा हो रहा, आओ करें विचार।।
88
बच्चे अपने आजकल ,क्यों भूले आचार ।
इसपर भी तो हम सभी, आओ करें विचार।।
89
शुभकर्मों में ‘भवि’ सदा,रहते हैं जो हाथ।
पकड़े रहते हैं सदा, उन हाथों को नाथ।।
90
आया 'भवि' संसार में, मानव अतिथि समान।
जीवन का है खेल कुल,चार दिनों की शान।।
91
आदर चाहो तो सदा, सबको दो सम्मान।
बच्चो जीवन मंत्र यह,कितना है आसान।।
92
पावरफुल आशीष ही,मिलता उनके हाथ।
बच्चों किस्मत दे बदल, मात-पिता का साथ।।
93
बुरा समय सबसे बड़ा, जादूगर है मित्र।
यही बताता है हमें,सबका सही चरित्र।।
94
जीवन में दुख लाख हों, नहीं ईश को भूल।
कर्म-लगन-विश्वास से,समय बने अनुकूल।।95
चुग़ली-निंदा के समय,रखें सदा ये ध्यान।
इसमें औरों का नहीं, अपना है नुक़सान।।
96
नाहक़ ही मन को दुखी, कर मत मेरे यार।
कलियुग में संभव नहीं, सतयुग वाला प्यार।।
97
टूटा धागा गाँठ से,जुड़ सकता है यार।
यदि टूटा विश्वास तो, रिश्ता बचे न प्यार।।
98
चैन-सुकूं की बात अब,करना है बेकार।
दिल पर तेरे इश्क़ का,छाया हुआ बुख़ार।।
99
साँसें महकेंगी भला,कब तक होगा प्यार।
पीछे से कोई अगर, करे प्यार में वार।।
100
कुछ भी कर सकते नहींं, 'भवि' इसमें तुम यार।
अगर किसी के बस गया,दिल-दिमाग़ में प्यार।।
101
कितना ऊँचे तुम उठो, रहे सदा ये ध्यान।
तुमको 'भवि' तहज़ीब का,महकाना उद्यान।।
102
ख़ामोशी का कम नहींं, अपना रुतबा मित्र।
नज़रों की क्यों गुफ़्तगू, लगती तुम्हें विचित्र।।
103
अनुभव से मुझको मिला, भवि ये जीवन ज्ञान।
धीरज से ही आपको, मिल सकते भगवान।।
104
भवि अधीन दिल के हुए,रहे नहींं आज़ाद।
तुम्हीं कहो अब कुछ नई, कैसे हो ईजाद।।
105
प्रेम अमर यूँ ही नहीं, उनका है भरपूर।
कृष्ण-राधिका ने रखा,लज्जा का भवि नूर।।
106
भूल गया इंसान क्यों, नारी का सम्मान ।
जिसके आगे ख़ुद रहे, नतमस्तक भगवान।।
107
कर्मों के अनुसार ही,न्याय ईश का जान।
तेरे कर्मों का सदा,फल देते भगवान।।
108
होली में हम क्यों पिएँ,अनायास भवि भंग।
जब टेसू के साथ है,दिल में तेरा रंग।।
109
सभी जानते थे मुझे, जब तक घर था गाँव।
किसको ‘भवि’ पहचानती,आख़िर शहरी छाँव।।
110
दिल से दिल के हैं जुड़े,जहाँ नहीं ‘भवि’ तार।
ऐसे रिश्तों में कभी, समय न कर बेकार।।
111
गहने-कपड़े का उसे,बेशक है अरमान।
लेकिन पहले चाहती, हर नारी सम्मान।।
112
माना चहुँदिश गंदगी,यत्र-तत्र दुर्गंध।
जीवन में तो कर्म की,रखिए ध्यान सुगंध।।
113
घर बेशक चमका रही, झाड़ू सुबहोशाम।
मन से कैसे साफ़ हो,द्वेष-बैर औ'काम।।
114
जीवन का सबसे सरल,यही एक है मंत्र ।
सबसे सम व्यवहार हो,सबसे हो सम तंत्र।।
115
जीवन में चाहो अगर, रहो नहीं बदहाल।
ईश कृपा पर तुम सदा, रहना बस ख़ुशहाल।।
116
दुनिया में हर आदमी, उसे बनाता मित्र।
धन से पहले जो सदा,देखे उच्च चरित्र।।
117
देखे इस संसार में,मानव रूप अनेक।
पर कोई दिखता नहीं, मुझको तुमसा नेक।।
118
अक्षर मन का आईना, और भाव दिल-जान।
लेखन को 'भवि' तू नहीं, काम समझ आसान।।
119
जो डूबा उसने किया, अमृत का ‘भवि’ पान।
केवल उथला जो रहा, उसका किसको ध्यान।।
120
ख़ुद पर है विश्वास तो,रखिए ये विश्वास।
डोर प्रेम की दूर के,रिश्ते करती पास।।
121
बेटी निर्धन बाप की,जबसे हुई जवान।
भूला है संसार वो,क्या सोचे पकवान।।

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