एक रचना
*
तुम नहीं माने
घने जंगल काट डाले।
खोद दिए हैं पहाड़,
गुफाएँ दी हैं उजाड़,
धरती को कर दिया है नंगा
जंगलों में मजा दिया है दंगा।
प्रकृति से खिलवाड़
विकास की ले आड़।
अपनी समझ में
तुमने उसे मार डाला है।
अब वह
कहीं नहीं दिखता,
उसके भय से
आदमी नहीं छिपता।
लेकिन
तुम्हें नहीं पता,
कर चुके हो खता।
उसने नहीं किया माफ
पाते ही मैदान साफ
बदलकर अपना
डेरा और चोला
तुम्हीं में आ बसा है।
अनजाने-अनचाहे
अनदेखे-अनलेखे
तुम्हें अपनी गिरफ्त में कसा है।
वह धूर्त है,
निर्मम है।
हर्ष नहीं, मातम है।
खोजो,
कितना भी खोजो
यही कहोगे
वह कहीं दिखाई नहीं दिया
दिखाई देगा भी नहीं।
यह न सोचो कि नहीं है
वह रहता यहीं है
पर दिखता नहीं है
क्योंकि तुम्हीं में आ बसा है
जंगल का
खूँखार भेड़िया।
***
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019
कविता भेड़िया
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