कृति चर्चा:
'उम्र जैसे नदी हो गई' हिंदी गजल का सरस प्रवाह
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
. [कृति विवरण: उम्र जैसे नदी हो गई, हिंदी ग़ज़ल / गीतिका संग्रह, प्रो. विश्वंभर शुक्ल, प्रथम संस्करण, २०१७, आई एस बी एन ९७८.९३.८६४९८.३७.३, पृष्ठ ११८, मूल्य २२५/-, आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, अनुराधा प्रकाशन, जनकपुरी, नई दिल्ली, रचनाकार संपर्क ८४ ट्रांस गोमतीए त्रिवेणी नगर, प्रथम, डालीगंज रेलवे क्रोसिंग, लखनऊ २२६०२०, चलभाष ९४१५३२५२४६]
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. विश्ववाणी हिंदी का गीति काव्य विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में अधिक व्यापक, गहन, उर्वर, तथा श्रेष्ठ है। इस कथन की सत्यता हेतु मात्र यह इंगित करना पर्याप्त है कि हिंदी में ३२ मात्रा तक के मात्रिक छंदों की संख्या ९२, २७, ७६३ तथा २६ वर्णों तक के वर्णिक छंदों की संख्या ६,७१,०८,८६४ है। दंडक छंद, मिश्रित छंद, संकर छंद, लोक भाषाओँ के छंद असंख्य हैं जिनकी गणना ही नहीं की जा सकी है। यह छंद संख्या गणित तथा ध्वनि-विज्ञान सम्मत है। संस्कृत से छान्दस विरासत ग्रहण कर हिंदी ने उसे सतत समृद्ध किया है। माँ शारदा के छंद कोष को संस्कृत अनुष्टुप छंद के विशिष्ट शिल्प के अंतर्गत समतुकांती द्विपदी में लिखने की परंपरा के श्लोक सहज उपलब्ध हैं। संस्कृत से अरबी-फारसी ने यह परंपरा ग्रहण की और मुग़ल आक्रान्ताओं के साथ इसने भारत में प्रवेश किया। सैन्य छावनियों व बाज़ार में लश्करी, रेख्ता और उर्दू के जन्म और विकास के साथ ग़ज़ल नाम की यह विधा भारत में विकसित हुई किंतु सामान्य जन अरबी-फारसी के व्याकरण-नियम और ध्वनि व्यवस्था से अपरिचित होने के कारण यह उच्च शिक्षितों या जानकारों तक सीमित रह गई। उर्दू के तीन गढ़ों में से एक लखनऊ से ग़ज़ल के भारतीयकरण का सूत्रपात हुआ।
. . हरदोई निवासी डॉ. रोहिताश्व अस्थाना ने हिंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोध ग्रन्थ 'हिंदी ग़ज़ल उद्भव और विकास' प्रस्तुत किया। सागर मीराजपुरी ने गज़लपुर, नवग़ज़लपुर तथा गीतिकायनम के नाम से तीन शोधपरक कृतियों में हिंदी ग़ज़ल के सम्यक विश्लेषण का कार्य किया। हिंदी ग़ज़ल को स्वतंत्र विधा के रूप में पहचान देने की भावना से प्रेरित रचनाकारों ने इसे मुक्तिका, गीतिका, तेवरी, अनुगीत, लघुगीत जैसे नाम दिए किंतु नाम मात्र बदलने से किसी विधा का इतिहास नहीं बदला करता।
. हिंदी ग़ज़ल को महाप्राण निराला द्वारा प्रदत्त 'गीतिका' नाम से स्थापित करने के लिए प्रो . विश्वंभर शुक्ल ने अपने अभिन्न मित्र ओम नीरव के साथ मिलकर अंतरजाल पर निरंतर प्रयत्न कर नव पीढ़ी को जोड़ा। फलत: 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' तथा 'गीतिकालोक' शीर्षक से दो महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाशित हुईं जिनसे नई कलमों को प्रोत्साहन मिला।
. . विवेच्य कृति 'उम्र जैसे नदी हो गयी' इस पृष्ठभूमि में हिंदी छंदाधारित हिंदी ग़ज़ल की परिपक्वता की झलक प्रस्तुत करती पठनीय-मननीय कृति है। गीतिका, रोला, वाचिक भुजंगप्रयात, विजात, वीर/आल्ह, सिंधु, मंगलवत्थु, दोहा, आनंदवर्धक, वाचिक महालक्ष्मी, वाचिक स्रग्विणी, जयकरी चौपाई, वर्णिक घनाक्षरी, राधाश्यामी चौपाई, हरिगीतिका, सरसी, वाचिक चामर, समानिका, लौकिक अनाम, वर्णिक दुर्मिल सवैया, सारए लावणी, गंगोदक, सोरठा, मधुकरी चौपाई, रारायगा, विजात, विधाता, द्वियशोदा, सुखदा, ताटंक, बाला, शक्ति, द्विमनोरम, तोटक, वर्णिक विमोहाए आदि छंदाधारित सरस रचनाओं से समृद्ध यह काव्य-कृति रचनाकार की छंद पर पकड़, भाषिक सामर्थ्य तथा नवप्रयोगोंमुखता की बानगी है। शुभाशंसान्तर्गत प्रो . सूर्यप्रकाश दीक्षित ने ठीक ही कहा है: 'इस कृति में वस्तु-शिल्पगत यथेष्ट वैविध्यपूर्ण काव्य भाषा का प्रयोग किया गया है, जो प्रौढ़ एवं प्रांजल है.... कृति में विषयगत वैविध्य दिखाई देता है। कवि ने प्रेम, सौन्दर्य, विरह-मिलन एवं उदात्त चेतना को स्वर दिया है। डॉ. उमाशंकर शुक्ल 'शितिकंठ' के अनुसार इन रचनाओं में विषय वैविध्य, प्राकृतिक एवं मानवीय प्रेम-सौन्दर्य के रूप-प्रसंग, भक्ति-आस्था की दीप्ति, उदात्त मानवीय मूल्यों का बोध, राष्ट्रीय गौरव की दृढ़ भावनाएँ विडंबनाओं पर अन्वेषी दृष्टि, व्यंग्यात्मक कशाघात से तिलमिला देनेवाले सांकेतिक चित्र तथा सुधारात्मक दृष्टिकोण समाहित हैं।'
. 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' में ९० रचनाकारों की १८० रचनाओं के अतिरिक्त, दृगों में इक समंदर है तथा मृग कस्तूरी हो जाना दो गीतिका शतकों के माध्यम से इस विधा के विकास हेतु निरंतर सचेष्ट प्रो. विश्वंभर शुक्ल आयु के सात दशकीय पड़ाव पार करने के बाद भी युवकोचित उत्साह और ऊर्जा से छलकते हुए उम्र के नद-प्रवाह को इस घाट से घाट तक तैरकर पराजित करते रहते हैं। भाव-संतरण की महायात्रा में गीतिका की नाव और मुक्तकों के चप्पू उनका साथ निभाते हैं। प्रो. शुक्ल के सृजन का वैशिष्ट्य देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप भाषा- शैली और शब्दों का चयन करना है। वे भाषिक शुद्धता के प्रति सजग तो हैं किंतु रूढ़-संकीर्ण दृष्टि से मुक्त हैं। वे भारत की उदात्त परंपरानुसार परिवर्तन को जीवन की पहचान मानते हुए कथ्य को शिल्प पर वरीयता देते हैं। 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा' और 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' की सनातन परंपरा के क्रम में वे कहते हैं-
. 'कर्म के खग पंख खोलें व्योम तक विचरण करें
. शिथिल हैं यदि चरण तब यह जीवनी कारा हुई
. काटकर पत्थर मनुज अब खोजता है नीर को
. दग्ध धरती कुपित यह अभिशप्तए अंगारा हुई
. पर्वतों को सींचता है देवता जब स्वेद से
. भूमि पर तब एक सलिला पुण्य की धारा हुई '
. जीवन में सर्वाधिक महत्व स्नेह का हैण् तुलसीदास कहते है-
. 'आवत ही हरसे नहींए नैनन नहीं सनेह
. तुलसी तहाँ न जाइए कंचन बरसे नेह'
शुक्ल जी इस सत्य को अपने ही अंदाज़ में कहते हैं.
. 'आदमी यद्यपि कभी होता नहीं भगवान है
. किंतु प्रिय सबको वही जिसके अधर मुस्कान है
. सूख जाते हैं समंदर जिस ह्रदय में स्नेह के
. जानिए वह देवता भी सिर्फ रेगिस्तान है
. पाहनों को पूज लेताए मोड़ता मुँह दीन से
. प्यार.ममता के बिना मानव सदा निष्प्राण हैण्
. प्रेम करुणा की सलिल सरिता जहाँ बहती नहीं
. जीव ऐसा जगत में बस स्वार्थ की दूकान है'
प्रकृति के मानवीकरण ओर रूपक के माध्यम से जीवन-व्यापार को शब्दांकित करने में शुक्ल जी का सानी नहीं है. भोर में उदित होते भास्कर पर आल्हाध्वीर छंद में रचित यह मुक्तिका देखिए-
. 'सोई हुई नींद में बेसुध, रजनी बाला कर श्रृंगार
. रवि ने चुपके से आकर के, रखे अधर पर ऊष्ण अंगार
. अवगुंठन जब हटा अचानक, अरुणिम उसके हुए कपोल
. प्रकृति वधूटी ले अँगड़ाई, उठी लाज से वस्त्र सँवार
. सकुचाई श्यामा ने हँसकर, इक उपहार दिया अनमोल
. प्रखर रश्मियों ने दिखलाए, जी भर उसके रंग हजार
. हुआ तिरोहित घने तिमिर का, फैला हुआ प्रबल संजाल
. उषा लालिमा के संग निखरी, गई बिखेर स्वर्ण उपहार
. प्रणय समर्पण मोह अनूठे, इनसे खिलती भोर अनूप
. हमें जीवनी दे देता है, रिश्तों का यह कारोबार'
. पंचवटी में मैथिलीशरण जी गुप्त भोर के दृश्य का शब्दांकन देखें-
. 'है बिखेर देती वसुंधरा मोती सबके सोने पर
. रवि बटोर लेता है उनको सदा सवेरा होनेपर
. और विरामदायिनी अपनी संध्या को दे जाता है
. शून्य श्याम तनु जिससे उसका नया रूप झलकाता है'
दो कवियों में एक ही दृश्य को देखकर उपजे विचार में भिन्नता स्वाभाविक है किंतु शुक्ल जी द्वारा किए गए वर्णन में अपेक्षाकृत अधिक सटीकता और बारीकी उल्लेखनीय है।
उर्दू ग़ज़ल के चुलबुलेपन से प्रभावित रचना का रंग अन्य से बिलकुल भिन्न है-
'हमारे प्यार का किस्सा पुराना है
कहो क्या और इसको आजमाना है
गज़ब इस ज़िंदगी के ढंग हैं प्यारे
पता चलता नहीं किस पर निशाना है।'
एक और नमूना देखें -
'फिर से चर्चा में आज है साहिब
दफन जिसमें मुमताज है साहिब
याद में उनके लगे हैं मेले
जिनके घर में रिवाज़ है साहिब'
भारतीय आंचलिक भाषाओँ को हिंदी की सहोदरी मानते हुए शुक्ल जी ने बृज भाषा की एक रचना को स्थान दिया है। वर्णिक दुर्मिल सवैया छंद का माधुर्य आनंदित करता है-
करि गोरि चिरौरि छकी दुखियाए छलिया पिय टेर सुनाय नहीं
अँखियाँ दुइ पंथ निहारि थकींए हिय व्याकुल हैए पिय आय नहीं
तब बोलि सयानि कहैं सखियाँ ए तनि कान लगाय के बात सुनो
जब लौं अँसुआ टपकें ण कहूँए सजना तोहि अंग लगाय नहीं
ग्रामीण लोक मानस ऐसी छेड़-छाड़ भरी रचनाओं में ही जीवन की कठिनाइयों को भुलाकर जी पाता है।
राष्ट्रीयता के स्वर बापू और अटल जी को समर्पित रचनाओं के अलावा यत्र-तत्र भी मुखर हुए हैं-
'तोड़ सभी देते दीवारें बंधन सीमाओं के
जन्मभूमि जिनको प्यारी वे करते नहीं बहाना
कब-कब मृत्यु डरा पाई है पथ के दीवानों को
करते प्राणोत्सर्ग राष्ट्र-हित गाते हुए तराना
धवल कीर्ति हो अखिल विश्व में, नवोन्मेष का सूरज
शस्य श्यामला नमन देश को वन्दे मातरम गाना'
यदा-कदा मात्रा गिराने, आयें और आएँ दोनों क्रिया रूपों का प्रयोग, छुपे, मुसकाय जैसे देशज क्रियारूप खड़ी हिंदी में प्रयोग करना आदि से बचा जा सकता तो आधुनिक हिंदी के मानक नियमानुरूप रचनाएँ नव रचनाकारों को भ्रमित न करतीं।
शुक्ल जी का शब्द भण्डार समृद्ध है। वे हिंदीए संस्कृत, अंगरेजी, देशज और उर्दू के शब्दों को अपना मानते हुए यथावश्यक निस्संकोच प्रयोग करते हैं , कथ्य के अनुसार छंद चयन करते हुए वे अपनी बात कहने में समर्थ हैं-
'अब हथेली पर चलो सूरज उगाएँ
बंद आँखों में अमित संभावनाएँ
मनुज के भीतर अनोखी रश्मियाँ है
खो गयी हैंए आज मिलकर ढूँढ लाएँ
एक सूखी झील जैसे हो गए मन
है जरूरी नेह की सरिता बहाएँ
आज का चिंतन मनन अब तो यही है
पेट भर के ग्रास भूखों को खिलाएँ
तोड़ करके व्योम से लायें न तारे
जो दबे कुचले उन्हें ऊपर उठाएँ'
सारत: 'उम्र जैसे नदी हो गयी' काव्य-पुस्तकों की भीड़ में अपनी अलग पहचान स्थापित करने में समर्थ कृति है। नव रचनाकारों को छांदस वैविध्य के अतिरिक्त भाषिक संस्कार देने में भी यह कृति समर्थ है। शुक्ल जी का जिजीविषाजयी व्यक्तित्व इन रचनाओं में जहाँ-तहाँ झलक दिखाकर पाठक को मोहने में कोई कसर नहीं छोड़ता।
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com, वेब: www.divyanarmada.in
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