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गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

मुक्तिका साथ बुजुर्गों का

मुक्तक 
आशा की कंदील झूलती 
मिली समय की शाख पर 
जलकर भी देती उजियारा 
खुश हो खुद को राख कर
*
मुक्तिका
साथ बुजुर्गों का...
संजीव 'सलिल'
*
साथ बुजुर्गों का बरगद की छाया जैसा.
जब हटता तब अनुभव होता था वह कैसा?
मिले विकलता, हो मायूस मौन सहता मन.
मिले सफलता, नशा मूंड़ पर चढ़ता मै सा..
कम हो तो दुःख, अधिक मिले होता विनाश है.
अमृत और गरल दोनों बन जाता पैसा..
हटे शीश से छाँव, धूप-पानी सिर झेले.
फिर जाने बिजली, अंधड़, तूफां हो ऐसा..
जो बोया है वह काटोगे 'सलिल' न भूलो.
नियति-नियम है अटल, मिले जैसा को तैसा..
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१३-२-२०११

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