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शनिवार, 23 फ़रवरी 2019

हिग्स-बोसॉन कण

लेख: 
हिग्स-बोसॉन कण – धर्म और विज्ञान की सांझी विरासत 
संजीव वर्मा ‘सलिल’
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भारतीय दर्शन सृष्टि निर्माता को सृष्टि के प्रत्येक सूक्ष्मतम कण में उपस्थित तथा सकल सृष्टि का कर्म विधायक मानता है। अहम् ब्रम्हास्मि, शिवोsssहं, अयमात्मा ब्रम्ह, कंकर में शंकर, आत्मा सो परमात्मा आदि उक्तियाँ यही दर्शाती हैं कि सृष्टिकर्ता परमात्मा ही कण-कण की मूल चेतना है। परमात्मा ही कण-कण के कर्म विधान का लेखा-जोखा रखता है तथा कर्मानुसार फल देता है। कर्म योग का यह सिद्धांत परमात्मा को मूलतः निर्गुण, निराकार, अजर, अमर, अनादि, अनंत, अनश्वर बताता है। आकार का जन्म कणों के समुच्चय से होता है, इसलिए कण-कण में भगवान् कहा जाता है। आकार से चित्र बनता है।जो निराकार या आकारहीन हो उसका चित्र नहीं हो सकता। उसका चित्र गुप्त है इसलिए उस परमसत्ता को चित्र गुप्त कहा गया, वह परम सत्य है इसलिए उसे सत्य नारायण (सच्चा स्वामी) भी कहा गया। 

भारतीय आर्ष ग्रंथों में सृष्टि उत्पत्ति का जो सिद्धांत वर्णित है वही विज्ञान भी मानता है। वैज्ञानिक मानते हैं कि सृष्टि भार युक्त भौतिक परमाणुओं के सम्मिलन से बनी है। भार युक्त परमाणुओं को संयुक्त करनेवाली शक्ति अस्तित्व में हुए बिना परमाणुओं से पदार्थ कैसे बन सकता है? भार रहित परमाणुओं को भार देनेवाले कणों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व अथवा भार नहीं होता। भारतीय दर्शन इस शक्ति को विश्वकर्मा (विश्व का निर्माता) कहती है। वैज्ञानिकों के अनुसार शून्यता के रहते हुए पदार्थों के परमाणु गतिवान होते हुए भी आपस में जुड़ नहीं सकते। हिग्स-बोसॉन सिद्धांत के अनुसार रिक्त स्थान में परमाणु को भार देनेवाले कण उपस्थित होते हैं। इनका कोई भार या द्रव्यमान नहीं होता. वैज्ञानिकों ने इन्हीं कणों की अनुभूति की है और इन्हें हिग्स-बोसॉन कण या देव कण (गॉड पार्टिकल) कहा है। 
भारतीय चिन्तन काया और चेतना का अलग-अलग अस्तित्व मानता है। ऋग्वेद से लेकर उपनिषदों, ब्राम्हण ग्रंथों, आरण्यकों, पुराणों आदि में इस विषय पर वैज्ञानिक दृष्टि और जिज्ञासा से परिपूर्ण व्यापक चर्चा है।  ऋग्वेद में विश्वकर्मा की स्तुति करते हुए जिज्ञासा है कि श्रृष्टि के सृजन से पूर्व सृष्ट-रचना की सामग्री कहाँ से लायी गयी? नारदीय सूक्त (ऋ. १० / १२९) में असत और सत के भी पूर्व काल के संबंध में प्रश्न है। अणु जैसे सूक्ष्म घटक की जानकारी उपनिषद काल में भी थी। कठोपनिषद में कहा गया है कि ‘वह’ अणु से भी छोटा और विराट से भी बड़ा है, वह शरीर में रहकर भी अशरीरी अर्थात भारविहीन है। वैज्ञानिक प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार भाररहित उपपरमाणुओं तथा भाररहित परमाणुओं की टकराहट से पृथ्वी, चन्द्र, तारामंडल, ग्रहों आदि का निर्माण हुआ। यह निष्कर्ष अंतिम न होने पर भी ध्यान देने योग्य है। भारत में ज्योतिष शास्त्र परंपरागत रूप से मंगल को पृथ्वी से उत्पन्न (पुत्र) मानता है तथा उज्जैन में मंगल के पृथक होने का स्थान मान्य है। 
ऋग्वेद (१०.७२.६) में परमाणुओं को देव कहा गया है: ‘हे देव! आपके नृत्य से उत्पन्न धूलि से पृथ्वी का निर्माण हुआ। यह प्रतीक सरल-सहज बोधगम्य है। देव यही भारहीन कण है। इन्हीं की हलचल और टकराव से भाररहित  परमाणुओं में जुड़ने की प्रवृत्ति और शक्ति उत्पन्न हुई। ऋग्वेद में इस मंत्र के पहले (१०.७२.२) कहा गया है कि परम सत्ता ने अव्यक्त को लोहार की धौंकनी की तरह पकाया। आचार्य श्री राम शर्मा ने इसे वर्तमान विज्ञान सम्मत ‘बिग बैंग’ (महाविस्फोट) ठीक ही कहा है। ऋग्वेद (१०.७२.३) कहता है असत से सत आया। असत भारहीनता अर्थात अदृश्यता की स्थिति है, सत भारयुक्तता अर्थात दृश्यमान अस्तित्व की। 
मुन्डकोपनिषद (२.९) के अनुसार ‘वह’ परम आकाश में सब जगह उपस्थित है, कलाओं से रहित है, अवयवशून्य और निर्मल है।  कलारहित अवयवशून्य से तात्पर्य भारहीनता ही है। श्वेताश्वतर उपनिषद (६.१९) उसे निष्कलं (कलारहित), शांतं, निरवद्यं तथा निरंजनं कहता है। भारहीन के लिए वैदिक ऋषियों के ये शब्द प्रयोग विज्ञानसम्मत होने के साथ-साथ मधुर भी हैं। परमात्मा की अनुभूति इसी शरीर सी होने पर भी उसे ‘अशरीरी’ (शरीर से परे) कहा गया है। ईशावास्योपनिषद के अष्टम खंड में उसे अकायं (कायारहित) तथा अस्रविरं (स्रावरहित) अर्थात शुद्ध बताया गया है।
हिग्स-बोसॉन कण ही देव कण है क्योंकि इसके अभाव में सृष्टि में सृजन असंभव है। सृष्टि के हर पदार्थ के सृजन में इन कणों की भूमिका है। ईशावास्योपनिषदकार घोषणा करता है ‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्’ अर्थात सकल सृष्टि में सर्वत्र ईश्वर की ही उपस्थिति है। ईशावास्योपनिषद का ईश्वर ही कण रूप में भाररहित होकर भी अनंत को आच्छादित करता है। ऐसा देव कण केवल एक ही है या ऐसे अनेक देव कण हैं? वेद अनेक देव बताता है किंतु इस संबंध में विज्ञान निरुत्तर है। विज्ञान की सीमा है किन्तु परमसत्ता असीम है। ईशावास्योपनिषद (मन्त्र ५) कहता है ‘तद्दूरे तद्वन्तिके तदन्तस्य सर्वस्य तदु सर्वस्याय बाह्यतः’ अर्थात व्ह अति दूर होते हुए भी अति निकट है, वह हमारे अंदर होते हुए भी सबको बाहर से भी घेरता है।
विज्ञान भौतिक जगत की शोध करता है जबकि परमसत्ता जड़ भौतिक पदार्थ मात्र नहीं हो सकती, वह ‘सत’ और ‘असत’ दोनों है और दोनों से परे भी है। अतः, वह कण मात्र कैसे हो सकता है? सृष्टि का हर एक और सभी कण, अणु, परमाणु, छंद, वाणी, स्पन्दन, स्थिरता, गति, स्पर्श, गंध आदि में वही है और होते हुए भी नहीं है। इसे दृष्टांत रूप में इस तरह समझें की भारत सरकाए के हर कर्मचारी-अधिकारी के रूप में राष्ट्रपति की सत्ता है अर्थत राष्ट्रपति हैं किन्तु नहीं भी हैं। विज्ञान पदार्थ, गति, ऊर्जा, समय और अंतरिक्ष में अंतर्संबंध और बाह्यसंबंध की खोज करता है। वह अज्ञात को ज्ञात की परिधि में समाविष्ट करता है किन्तु सृष्टि के कण-कण में अंतर्भूत सृष्टा का रहस्य अज्ञात की परिधि मात्र नहीं, अज्ञेय का विस्तार भी है। विश्व विख्यात चीनी दार्शनिक लाओत्से रचित ‘ताओ तेह चिंग’ के अनुसार अन्धकार से प्रकाश, अरूप से रूप अस्तित्व में आया। यह ऋग्वेद में बहुत पहले वर्णित ‘असत से सत’ आगमन के सत्य की पुनरावृत्ति है। लाओत्से ब्रम्ह या ईश्वर के स्थान पर ‘ताओ’ शब्द का प्रयोग कर लिखता है कि ज्ञान या तर्क से उसका बोध नहीं होता, उसमें कितना भी जोड़ो या घटाओ उसमें फर्क नहीं पड़ता। 
ताओ से सहस्त्रों वर्ष पूर्व वृहदारण्यकोपनिषद कहता है ‘ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते’ अर्थात परमसत्ता पूर्ण था, पूर्ण है, पूर्ण में से पूर्ण को घटा देने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है। मुंडकोपनिषद (२.२१०) के अनुसार न सूर्य है, न चाँद, न तारे, न अग्नि, न विद्युत् केवल उसकी आभा से ही यह सब प्रकाशवान है। वृहदारण्यकोपनिषद (१.५.२) कहता है ‘संचरण च असन्चरण च- अर्थात वह गतिशील भी है, गतिहीन स्थिर भी है। तैत्तरीयोपनिषद (२.६) के अनुसार वह वह निरुक्त है, अनिरुक्त है, निलयन है, अनिलयन है, विज्ञान है, अविज्ञान है। श्रीमद्भगवद्गीता का आत्म तत्व भी भारहीन कण जैसा ही है जिसे हथियार मार नहीं सकते, अग्नि जला नही सकती, पानी गीला नहीं कर सकता, हवा सुखा नहीं सकती। यह ‘आत्म’ परमात्म का ही अंश है इसलिए यह सर्वथा न्यायसंगत है। 
केनोपनिषदकार उदात्त घोषणा करता है: ‘नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च’ अर्थात मैं नहीं मानता कि मैं उसे ठीक से जानता हूँ, न यह मानता हूँ कि मैं उसे नहीं जानता।’ विज्ञान ने अभी उस परमसत्ता की ओर यात्रा का आरम्भ मात्र किया है। योगियों ने अनाहद नाद के रूप में उस गुंजार की प्रतीति की है जो सतत गुंजरित और अधिकाधिक सघन होकर बिग-बैंग को जन देता है, जिसे ॐ से अभिव्यक्त किया जाता है और जिसके सृष्टि की हर काया में स्थित होने के सत्य को जानने और माननेवाले खुद को ‘कायस्थ’ (कायास्थिते सः कायस्थ: अर्थात जो सत्ता काया का सृजन कर अंश रूप में  आत्मा बनकर उसमें स्थित होती है कायस्थ कही जाती है) वे ईश्वर का अंश मानकर अन्य सभी जातियों, धर्मों, वर्णों, भाषा-भाषियों, देशवासियों को समभाव से देखते हैं। वे हर रूप में परमसत्ता को पूजनीय मानते हैं, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, देश, भाषा, भूषा, लिंग, नस्ल, वंश आदि के आधार पर अपना-पराया मानने को स्वीकार नहीं करते। वे ‘विश्वैक नीडं’ (विश्व एक घोंसला या घर है), ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ (सकल वसुधा एक कुटुंब है) ‘श्रद्धावान लभते ज्ञानं’ (परमसत्ता के प्रति श्रद्धा रखनेवाला ही उसका ज्ञान पा सकता है) तथा ‘विश्वासं फलदायकं’ (परमसत्ता के प्रति विश्वास ही फल देनेवाला होता है) जैसे आर्ष जीवनदर्शक सिद्धांतों का अनुसरण करते हैं। उनका इष्ट ‘श्रृद्ध-विश्वास रूपिणौ’ (श्रृद्धा-विश्वास के रूप में) ही होता है। विज्ञान श्रृद्धा-विश्वास पर नहीं तर्क पर विश्वास करता है।  इसलिए विज्ञान और धर्म एक दूसरे के विरोधी नहीं पूरक हैं। हिग्स-बोसॉन कण (देव कण) ने धर्म और विज्ञान को उनकी सांझी विरासत के निकट लाकर एक-दूसरे को अधिक समझने का अवसर उपलब्ध कराया है। 
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२३-२-२०१५ 

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