एक रचना
बरगद बब्बा
*
बरगद बब्बा
खड़े दिख रहे
जड़ें न लेकिन
अब मजबूत
*
बदलावों की घातक बारिश
संस्कार की माटी बहती।
जटा न दे पाती मजबूती
पात गिर रहे, डालें ढहतीं।
बेपेंदी के
लोटों जैसे
लुढकें घबरा
पंछी-पूत
*
रक्षक मानव छाया पाता
भक्षक बन फिर काट गिराता
सिर पर धूप पड़े जब सहनी
हाय-हाय तब खूब मचाता
सावन-झूला
गिल्ली-डंडा
मोबाइल को
लगे अछूत
*
मिटा दिये चौपाल-चौंतरे
भूले पूजा-व्रत-फेरे
तोता-मैना तोड़ रहे दम
घिरे चतुर्दिक बाँझ अँधेरे
बरगद बब्बा
अड़े दिख रहे
टूटी हिम्मत
मगर अकूत
***
१६-२-१६
Sanjiv verma 'Salil', 94251 83244
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'
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