रसानंद दे छंद नर्मदा १
७
:
गीतिका
दोहा, आल्हा, सार
,
ताटंक,रूपमाला (मदन), चौपाई
तथा
उल्लाला
छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए
गीतिका
से.
लक्षण : गीतिका मात्रिक सम छंद है जिसमें
२६
मात्राएँ होती हैं
।
१४
और
१२
पर यति तथा अंत में लघु -गुरु
आवश्यक
है। इस छंद की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ लघु हों तथा अंत में रगण हो तो छंद निर्दोष व मधुर होता है।
अपवाद- इसमें कभी-कभी यति शब्द की पूर्णता के आधार पर १२-१४ में भी आ पडती है
।
यथा-
राम ही की भक्ति में, अपनी भलाई जानिए
।
- जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', छंद प्रभाकर
लक्षण छंद:
सूर्य-धरती के मिलन की, छवि मनोहर देखिए।
गीतिका में नर्मदा सी, 'सलिल'-ध्वनि अवरेखिए।।
तीसरा-दसवाँ सदा लघु, हर चरण में वर्ण हो।
रगण रखिये अंत में सुन, झूमिये ऋतु-पर्ण हो।।
*
तीन-दो-दो बार तीनहिं, तीन-दो धुज अंत हो।
रत्न वा रवि मत्त पर यति, चंचरी लक्षण कहो।। -नारायण दास, हिंदी छन्दोलक्षण
टीप- छंद प्रभाकर में भानु जी ने छब्बीस मात्रिक वर्णवृत्त चंचरी (चर्चरी) में 'र स ज ज भ र' वर्ण (राजभा सलगा जभान जभान भानस राजभा) बताये हैं। इसमें कुल मात्राएँ २६ तथा तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ लघु हैं किंतु दूसरे जगण को तोड़े बिना चौदह मात्रा पर यति नहीं आती। डॉ. पुत्तूलाल ने दोनों छंदों को अभिन्न बताया है। भिखारीदास और केशवदास ने २८ मात्रिक हरिगीतिका को ही गीतिका तथा २६ मात्रिक वर्णवृत्त को चंचरी बताया है। डॉ. पुत्तूलाल के अनुसार के द्विकल को कम कर यह छंद बनता है। सम्भवत: इसी कारण इसे हरिगीतिका के आरम्भ के दो अक्षर हटा कर 'गीतिका' नाम दिया गया। इसकी मात्रा बाँट (३+२+२) x ३+ (३+२) बनती है।
मात्रा बाँट:
ऽ
। ऽ
।
।
ऽ
।
ऽ
ऽ
ऽ
। ऽ
ऽ
ऽ
। ऽ
हे दयामय दीनबन्धो, प्रार्थना मे श्रूयतां।
यच्च दुरितं दीनबन्धो, पूर्णतो व्यपनीयताम्।।
चञ्चलानि मम चेन्द्रियाणि, मानसं मे पूयतां।
शरणं याचेऽहं सदा हि, सेवकोऽस्म्यनुगृह्यताम्।।
उदाहरण:
०१. रत्न रवि कल धारि कै लग, अंत रचिए गीतिका।
क्यों बिसारे श्याम सुंदर, यह धरी अनरीतिका।।
पायके नर जन्म प्यारे, कृष्ण के गुण गाइये।
पाद पंकज हीय में धर, जन्म को फल पाइये।। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', छंद प्रभाकर
०२.
मातृ भू सी मातृ भू है , अन्य से तुलना नहीं
।
०३. उस रुदंती विरहिणी के, रुदन रस के लेप से
।
और पाकर ताप उसके, प्रिय विरह-विक्षेप से
।
।
वर्ण-वर्ण सदैव जिनके, हों विभूषण कर्ण
के
।
क्यों न बनते कवि जनों के, ताम्र पत्र सुवर्ण के
।
।
- मैथिलीशरण गुप्त, साकेत
३, ७, १० वीं मात्रा पूर्ववर्ती शब्द के साथ जुड़कर गुरु हो किन्तु लय-भंग न हो तो मान्य की जा सकती है-
०४. कहीं औगुन किया तो पुनि वृथा ही पछताइये - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', छंद प्रभाकर
०५. हे प्रभो! आनंददाता, ज्ञान हमको दीजिए
शीघ्र सारे दुर्गुणों से, दूर हमको कीजिए
लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बनें
ब्रम्हचारी धर्मरक्षक, वीर व्रतधरी बनें -रामनरेश त्रिपाठी
०६. लोक-राशि गति-यति भू-नभ, साथ-साथ ही रहते
लघु-गुरु गहकर हाथ-अंत, गीतिका छंद कहते
लघु-गुरु गहकर हाथ-अंत, गीतिका छंद कहते
०७. चौपालों में सूनापन, खेत-मेड में झगड़े
उनकी जय-जय होती जो, धन-बल में हैं तगड़े
खोट न अपनी देखें, बतला थका आइना
कोई फर्क नहीं पड़ता, अगड़े हों या पिछड़े
उनकी जय-जय होती जो, धन-बल में हैं तगड़े
खोट न अपनी देखें, बतला थका आइना
कोई फर्क नहीं पड़ता, अगड़े हों या पिछड़े
०८. आइए, फरमाइए भी, ह्रदय में जो बात है
क्या पता कल जीत किसकी, और किसकी मात है
झेलिये धीरज धरे रह, मौन जो हालात है
एक सा रहता समय कब?, रात लाती प्रात है
क्या पता कल जीत किसकी, और किसकी मात है
झेलिये धीरज धरे रह, मौन जो हालात है
एक सा रहता समय कब?, रात लाती प्रात है
०९. सियासत ने कर दिया है , विरासत से दूर क्यों?
हिमाकत ने कर दिया है , अजाने मजबूर यों
विपक्षी परदेशियों से , अधिक लगते दूर हैं
दलों की दलदल न दल दे, आँख रहते सूर हैं
हिमाकत ने कर दिया है , अजाने मजबूर यों
विपक्षी परदेशियों से , अधिक लगते दूर हैं
दलों की दलदल न दल दे, आँख रहते सूर हैं
*****
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें